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भारत: लड़कों को वरीयता देने की लाइलाज महामारी

२३ सितम्बर २०२०

यह तय है कि कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी भी जल्द ही गुजर जाएगी लेकिन अपनी संतानों में भी लड़का-लड़की का भेद करने की महामारी भारत से कब मिटेगी.

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Redewendung | kleines Maedchen zeigt jemandem den Vogel
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/fotototo

उत्तर प्रदेश के बदायूं में एक आदमी को हिरासत में लिया गया है. पुलिस और उसकी पत्नी के संबंधी बताते हैं कि इस आदमी ने हंसिए से अपनी गर्भवती पत्नी का पेट चीर दिया था. गंभीर रूप से घायल महिला का आईसीयू में इलाज चल रहा है और उनका बच्चा जन्म लेने से पहले ही मारा गया है.

आरोपी का भाई बताता है कि उसका मकसद केवल अजन्मे बच्चे का लिंग जानना था. इसकी वजह यह बताई गई कि पहले से ही इस जोड़े की पांच संतानें हैं, और ये सब लड़कियां हैं. लड़कियां- जो आज भी भारत समेत कई विकासशील और दकियानूसी सामाजिक दायरों में माता-पिता पर एक बोझ समझी जाती हैं.

हमारे समाज में बेटियों को बोझ बताने जैसी कई कहावतें भी प्रचलित रही हैं. मीडिया में देखें, तो रह रह कर हर क्षेत्र से चुनौतियों और भेदभाव के बावजूद सफल होने वाली महिलाओं की दास्तानें सामने आती हैं. हो सकता है कि इन्हें देख कर समाज में महिला-पुरुषों की बराबरी का भ्रम होता हो लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है.

जुलाई में पेश हुआ भारत सरकार का सबसे हालिया सर्वे दिखाता है कि देश में लिंग अनुपात लगातार घटता जा रहा है. इसके अनुसार, 2015 से 2017 के बीच भारत में प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाओं का अनुपात 896 रहा. जबकि इससे पहले की अवधि में 2014 से 2016 के बीच यह 898 और 2013 से 2015 के बीच 900 था. 

भारत में मादा भ्रूण को गिराने पर प्रतिबंध है. 2003 में सेक्स सेलेक्शन पर प्रतिबंध लगाने वाले 1994 के कानून में संशोधन कर उन्हें और सख्त भी बनाया गया. इस कानून के अनुसार, कोई भी मेडिकल पेशेवर अजन्मे बच्चे का लिंग नहीं बता सकता और गर्भपात करने की अनुमति भी केवल रजिस्टर्ड मेडिकल पेशेवरों को ही है.

Deutsche Welle DW Ritika Rai
ऋतिका पाण्डेय, डीडब्ल्यू हिन्दीतस्वीर: DW/P. Henriksen

फिर भी कई अहम आंकड़े समाज में लड़कों के प्रति ज्यादा झुकाव का सबूत पेश करते हैं. हिंदू समाज की सबसे बड़ी ग्रंथि तो वह मान्यता बनी हुई है कि केवल बेटे के हाथों से अंतिम संस्कार होने पर ही उन्हें सद्गति प्राप्त होती है. यानि लैंगिक भेदभाव का यह दुष्चक्र वाकई जन्म से मरण तक ऐसी अनगिनत सामाजिक मान्यताओं में लिपटा हुआ है, जिनका कोई और आधार नहीं.

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि केवल एक लिंग के प्रति यह झुकाव गरीब से लेकर अमीर समाज के हर तबके, हर धर्म, अनपढ़ से लेकर पढ़े लिखे और पुरुषों से लेकर खुद महिलाओं तक में दिखता है.

बेटों को लेकर आसक्ति की सीमा तक प्रेम और झुकाव दिखाने, तो वहीं बेटियों को अनचाहा बोझ मानना, मेरे हिसाब से आज के भारतीय समाज के लिए सबसे ज्यादा शर्मिंदगी की बात होनी चाहिए. इसके अलावा जिस गरीबी और भुखमरी को मिटाने की हमें सबसे ज्यादा चिंता होनी चाहिए, वह तो लिंग से इतर किसी भी इंसान की गरिमा को चोट पहुंचाने वाली है.

जन्म ले पाना तो पहला और सबसे अहम मानक है लेकिन इसके बाद उस बच्ची को लेकर समाज की सोच सबसे ज्यादा मायने रखती है. इसी समाज में किसी लड़के की तुलना में एक लड़कियों के गायब होने, घरेलू या यौन दुर्व्यवहार झेलने या स्कूल-कालेज के स्तर पर पढ़ाई से बाहर हो जाने की संभावना कहीं ज्यादा है.

शादी में दहेज दिए जाने पर कानूनी रोक है लेकिन दहेज ना लाने वाली कई लड़कियों को लड़के के परिवार वालों के हाथों कभी अपमान झेलना पड़ता है तो कभी जान भी गंवानी पड़ती है. 21वीं सदी के इन पहले दो दशकों को देखिए तो पाएंगे कि कानूनी तौर पर ऐसे कई बड़े बदलाव लाए गए जिनमें महिलाओं के प्रति भेदभाव बरता जाता था. सबसे बड़े बदलावों में से एक रहा बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों जैसा ही हक मिलना.

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल भारत इस समय कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के संक्रमण के मामलों में भी काफी आगे है. अभी चाहे कितना भी कठिन लग रहा हो लेकिन इसका टीका भी जल्द ही जरूर मिल जाएगा. लेकिन जिस बीमार सोच से भारतीय समाज का एक बड़ा तबका प्रभावित है, उसका इलाज केवल डॉक्टरों और अदालतों में नहीं बल्कि केवल आपके और हमारे हाथ में है.

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एडिटर, डीडब्ल्यू हिन्दी
ऋतिका पाण्डेय एडिटर, डॉयचे वेले हिन्दी. साप्ताहिक टीवी शो 'मंथन' की होस्ट.@RitikaPandey_