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गौरी लंकेश: बोली का जवाब गोली से

मारिया जॉन सांचेज
६ सितम्बर २०१७

पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या ने फिर देश को झकझोर दिया है, वहीं कुछ लोग सोशल मीडिया पर जश्न मना रहे हैं. कुलदीप कुमार कहते हैं कि यह अब लोगों को तय करना है कि क्या वे ऐसे माहौल में रहना चाहते हैं जहां बोली का जबाव गोली है.

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Gauri Lankesh
तस्वीर: twitter/gaurilankesh

मंगलवार की शाम बेंगलुरु में प्रसिद्ध पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर के बाहर हुई हत्या ने पूरे देश की अंतरात्मा को झिंझोड़ दिया है. उनकी हत्या इस बात का एक और प्रमाण है कि देश में वैचारिक असहिष्णुता का ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है जिसमें कुछ लोग मान कर चल रहे हैं कि उनसे भिन्न विचार के लोगों को जीने का अधिकार ही नहीं है.

पिछले चार सालों में यह चौथी बार है जब विवेकवादी, धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी और हिंदुत्वविरोधी लेखन में लगे किसी लेखक-पत्रकार की हत्या हुई है. महाराष्ट्र में 2013 में 68 वर्षीय नरेंद्र दाभोलकर और 2015 में 81 वर्षीय गोविंद पनसारे और 2016 में कर्नाटक में 77 वर्षीय एमएम कलबुर्गी की हत्या की गयी. अब 55 वर्षीय गौरी लंकेश की जान ले ली गयी है. इन सभी हत्याओं को लगभग एक ही तरीके से किया गया है.

कर्नाटक पुलिस आज तक कलबुर्गी की हत्या का मामला सुलझा नहीं पायी है. हां, यह जरूर है कि उसने इस तथ्य का पता चला लिया है कि कलबुर्गी की हत्या में जिस पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ है वह वही है जिससे पनसारे की हत्या की गयी थी. यह भी पता चल चुका है कि जिन दो पिस्तौलों का इस्तेमाल पनसारे की हत्या करने के लिए किया गया था, उन्हीं में से एक से दाभोलकर को भी मारा गया था. यानी इन सभी हत्याओं के तार एक-दूसरे से जुड़े हैं.

इन तीनों की तरह ही गौरी लंकेश को भी लगातार धमकियां मिलती रहती थीं. फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर भी उनके खिलाफ नफरत से भरा जहरीला प्रचार जारी रहता था. उनकी हत्या के बाद भी यह प्रचार जारी है और सोशल मीडिया पर उसका जश्न मनाया जा रहा है. इसी तरह की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए पिछले साल नवंबर में दिये एक इंटरव्यू में गौरी लंकेश ने कहा था कि कर्नाटक में एक ऐसा जहरीला माहौल बना दिया गया है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक कलबुर्गी की हत्या और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति जैसे बड़े साहित्यकार के निधन पर उत्सव मनाया जाता है. दुर्भाग्य की बात यह है कि यह उत्सव गौरी लंकेश की हत्या के बाद भी मनाया जा रहा है.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने उसके लिए नाथूराम गोडसे द्वारा चलायी गोली के जितना ही जिम्मेदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसे सांप्रदायिक नफरत का जहर फैलाने वाले संगठनों को भी माना था जिनकी गतिविधियों के कारण देश में ऐसा माहौल बन गया था जिसमें महात्मा गांधी की हत्या संभव हो सकी. क्या आज भी देश में ऐसी ही स्थिति नहीं है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से लगातार ऐसे नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया है जो सांप्रदायिक नफरत से भरे अपने भाषणों और बयानों के लिए कुख्यात हैं. मुजफ्फरनगर के दंगों के समय अपने विवादित बयानों के कारण सुर्खियों में आये संजीव बालियान को केंद्रीय मंत्री बनाया गया तो योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री.

रविवार को केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में हुए फेरबदल में कर्नाटक के ही अनंतकुमार हेगड़े को मंत्री बनाया गया जबकि उनका यह विवादास्पद बयान लगातार चर्चा में बना हुआ है कि आतंकवाद के खात्मे के लिए इस्लामी विचारधारा का खत्म होना अनिवार्य है. पिछले तीन वर्षों के दौरान अनेक राज्यों में तथाकथित गौरक्षक दलों द्वारा बेगुनाह लोगों की पिटाई और हत्या करने की अनेक घटनाएं हुई हैं. लोगों के घरों में घुसकर फ्रिज और रसोई की तलाशी ली गयी है और गाय की रक्षा के नाम पर आतंक का माहौल बनाया गया है. उत्तर प्रदेश में तो एंटी-रोमियो दस्ते बना दिये गये हैं ताकि लड़के और लड़कियां आपस में न मिल सकें.

यह सब करके सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी देश की जनता को क्या संदेश देना चाहती है, यह स्पष्ट है. अब यह देशवासियों को तय करना है कि क्या वे ऐसे माहौल में जीना चाहते हैं जिसमें बोली का जवाब गोली से दिया जाए?