एक झटके में शिकारी से संरक्षक
२३ सितम्बर २०१६माइकल मेगोसिवा सोफी की गिनती कभी पूर्वोत्तर भारत के सबसे अचूक शिकारी के रूप में होती थी. नागालैंड की राजधानी कोहिमा से कुछ दूर बसे खोनोमा गांव के सोफी ने कई जंगली जानवर मारे. उनकी राइफल ने नागालैंड के प्रांतीय पंछी लाल गर्दन वाले तीतर को भी नहीं बख्शा. कंधे में राइफल टांगकर जंगलों में घूमने वाले सोफी की जिंदगी ऐसे ही चलती रही.
पल में बदली जिंदगी
लेकिन 1998 में एक दिन कुछ गांव वालों के साथ सोफी ने एक बंदरिया पर निशाना लगाया. निशाना सटीक लगा, बंदरिया पल भर में मारी गई. लेकिन जब सोफी शव तक पहुंचे तो उन्होंने बंदरिया की गोद में लिपटा मासूम बच्चा देखा. सोफी के मुताबिक वह दृश्य देखते ही उनकी आंखों में अंधेरा सा छा गया. वह अपराध बोध से घिर गए.
(इंसान से हजारों साल पहले ये जीव धरती पर थे)
उस दिन के बाद से सोफी ने राइफल हमेशा के लिए टांग दी. इसी दौरान एक दूसरे गांव के तिसिली साखरी शिकार और जंगलों की कटाई के खिलाफ अभियान चला रहे थे. साखरी गांव गांव जाकर लोगों को बता रहे थे कि अगर शिकार और लकड़ी कटाई ऐसे ही जारी रही तो भावी पीढ़ियों के लिए कुछ नहीं बचेगा. अभियान के दौरान साखरी की मुलाकात सोफी से हुई और दोनों ने मिलकर काम करने की योजना बनाई.
युवाओं को प्रेरणा
सोफी की कहानी ने युवाओं का खासा प्रभावित किया. नई पीढ़ी ने हथियार नहीं उठाए और गांव में शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया. 2002 में शुरू हुई इस मुहिम का नतीजा आज यह है कि गांव और उसके आस पास के इलाके वन्य जीवन से फल फूल चुके हैं. पूर्वोत्तर भारत में सशस्त्र विद्रोह के थमने से भी अवैध हथियार कम हुए हैं और वन्य जीवन को इसका फायदा मिला है.
पूर्वोत्तर भारत में आज भी कबीलाई पहचान बड़ी अहमियत रखती है. 19वीं शताब्दी में अंग्रेजी फौज के छक्के छुड़ाने वाले कई कबीले आज भी खुद को योद्धा और शिकारी मानते हैं. अंगामी कबीले के सोफी के मुताबिक बदलती दुनिया के साथ इस पुरानी सोच को बदलने की जरूरत है और युवा पीढ़ी यह काम बेहतर तरीके के कर सकती है.
(स्कूल और शिक्षा की आम परंपरा को तोड़कर शीर्ष पर पहुंचने वाली हस्तियां)