प्रवासी कामगारों के योगदान के बिना अधूरा है गणेश उत्सव
गणेश चतुर्थी को लेकर सबसे ज्यादा उत्साह शायद मुंबई में नजर आता है. इस उत्सव के पीछे बड़ा योगदान है उन सैकड़ों प्रवासी शिल्पकारों का, जो हर साल मूर्तियों की बढ़ती मांग को पूरा करने इस समय मुंबई आते हैं.
दूर-दूर से आते हैं शिल्पकार
गणेश चतुर्थी से पहले देश के अलग-अलग हिस्सों से सैकड़ों शिल्पकार मुंबई आते हैं, ताकि भगवान गणेश की मूर्तियों की बढ़ती मांग को पूरा कर सकें. ज्यादातर प्रवासी शिल्पकार उत्तर भारत के राज्यों से लंबा सफर कर मुंबई पहुंचते हैं.
मूर्तियां बनाने के लिए कई महीने रहते हैं घर से दूर
करीब चार महीने तक मुंबई ही इन शिल्पकारों का घर होता है. मूर्तियां बनाने के लिए ये अपने परिवार से दूर इस महानगर में अकेले रहते हैं और शहर की कई शिल्पशालाओं में मूर्तियां बनाते हैं.
प्लास्टर की मूर्तियां
मूर्तियों को बनाने के लिए इनकी पहली पसंद है, तुरंत सेट हो जाने वाला जिप्सम प्लास्टर. इसे पीओपी या प्लास्टर ऑफ पेरिस के नाम से जाना जाता है. इसकी मदद से बड़ी और तुलनात्मक रूप से हल्की मूर्तियां कम समय में बनाई जा सकती हैं.
मिट्टी की मूर्तियों का चलन
उत्सव के अंत में पूरे शहर की मूर्तियों का तालाबों, नदियों और समुद्र में विसर्जन किया जाता है. बड़ी संख्या में प्लास्टर की मूर्तियों के विसर्जन के कारण जल प्रदूषण और पर्यावरणीय नुकसान पर बड़ी बहस है. इस वजह से अब मिट्टी की मूर्तियों की मांग बढ़ने लगी है.
पर्यावरण की चिंता
कई शिल्पकार मिट्टी की मूर्तियां बना रहे हैं. विशाल शिंदे ने इस साल मिट्टी की 470 मूर्तियां बनाई हैं. उनका कहना है कि साल-दर-साल मिट्टी से बनी और वॉटरकलर से रंगी मूर्तियों की मांग बढ़ती जा रही है, क्योंकि लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है.
मिट्टी का दोबारा इस्तेमाल
मुंबई में रहने वाले पत्रकार कुणाल पाटिल उन लोगों में हैं, जो मिट्टी की मूर्तियां खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं. वह हर साल एक छोटी सी मिट्टी की मूर्ति खरीदते हैं और पूजा के बाद घर पर ही एक टब में उसका विसर्जन कर देते हैं. कुणाल पाटिल का कहना है कि टब में जमा होने वाली मिट्टी वह मूर्तिकारों को दे देते हैं, ताकि उससे और मूर्तियां बन सकें. (एपी)