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कानून और न्यायब्रिटेन

ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस, सुधारों के बाद कितना सुधरी

स्वाति बक्शी
९ मई २०२३

भारत की पुलिस का गठन ब्रिटिश भारत के बनाये कानूनों और संरचना के आधार पर किया गया था. अकसर उसमें सुधार की बात होती है. ब्रिटेन की पुलिस में तो सुधार हो चुके हैं लेकिन उसका कितना फायदा हुआ?

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ब्रिटेन की पुलिस में सुधार की कई कोशिशें हुई हैं
मेट पुलिस को बीते सालों में कई शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पड़ा जब पुलिस अधिकारियों पर आरोप लगेतस्वीर: TOLGA AKMEN/AFP/Getty Images

भारत में आम जनता के बीच पुलिस की नकारात्मक छवि, मानवाधिकार हनन के गंभीर आरोप और कार्यशैली पर सवाल उठते रहे हैं. कानून का पालन कराने के लिए जिम्मेदार पुलिस भ्रष्टाचार और ताकत के गलत इस्तेमाल के आरोपों से घिरी रहती है.  भारतीय पुलिस की इस हालत को देखते हुए इसके गठन की बुनियाद यानी ब्रिटिश भारत में बने 1861 के पुलिस अधिनियम की जगह नये कानून की मांग अकसर होती है.

दलील यह है कि एक लोकतांत्रिक देश में साम्राज्यवादी ब्रिटेन के मंसूबे पूरे करने के लिए सदियों पहले बनाया गया कानून पुलिस के अधिकार और कार्यशैली का आधार नहीं हो सकता. हालांकि अहम सवाल यह है कि क्या सिर्फ कागजी सुधारों के जरिए पुलिस की जमीनी भूमिका को बदला जा सकता है?

लंदन पुलिस से डरती हैं महिलाएं

खुद ब्रिटेन में साल 2011 में पुलिस सुधार और सामाजिक जिम्मेदारी कानून लाकर पुलिस को ‘वर्तमान जरूरतों' के हिसाब से ढालने और ज्यादा जवाबदेह बनाने की बात कही गई. हालांकि कानून पुलिस की ढांचागत खामियों को रोकने में सफल रहा हो, ऐसा कतई नहीं है. वास्तविकता यह है कि ब्रिटेन में पुलिस को लेकर लोगों का भरोसा टूटा है और अब पुलिस की छवि को साफ करने की छटपटाहट दिख रही है.

1829 में अस्तित्व में आई ब्रिटेन की सबसे बड़ी पुलिस सेवा मेट्रोपॉलिटन पुलिस को मेट या स्कॉटलैंड यार्ड भी कहा जाता है. यह ग्रेटर लंदन की सुरक्षा संभालती है. इसके अलावा इस फोर्स की विशेष जिम्मेदारियों में आतंकवाद-निरोधी कदम और विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देना शामिल है. मेट्रोपॉलिटन पुलिस पर उसकी बुनियादी भूमिका यानी आम लोगों को सुरक्षा देने में विफल रहने का आरोप है. इतना ही नहीं कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां पुलिस खुद अपराधी के तौर पर कठघरे में खड़ी नजर आई है.

डेविड कैरिक को 12 महिलाओं के बलात्कार का दोषी माना गया
लंदन में डेविड कैरिक के खिलाफ प्रदर्शन करते लोगतस्वीर: Adrian Dennis/AFP/Getty Images

अपराधी पुलिस अधिकारी

मेट्रोपॉलिटन पुलिस अधिकारी अपनी ताकत के गलत इस्तेमाल के चलते लंबे वक्त से सवालों के घेरे में है. पिछले कुछ सालों में तो कई पुलिस अधिकारी गंभीर अपराधों मे शामिल रहे हैं. इसी साल फरवरी में डेविड कैरिक नाम के पुलिस अधिकारी महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में उम्रकैद की सजा सुनाई गई. कैरिक ने महिलाओं के खिलाफ अपराध के 85 मामलों में आरोप स्वीकार किए जिसमें 48 बलात्कार के मामले थे. ये मामले साल 2003 से 2020 के बीच के थे.

फरवरी 2022 में 14 पुलिस अधिकारियों के बर्ताव की जांच पर आधारित एक स्वतंत्र रिपोर्ट में डराने-धमकाने, नस्लीय भेदभाव, महिला विरोधी बर्ताव, समलैंगिकों से नफरत और यौन-शोषण जैसे आरोप सही साबित हुए. इससे पहले साल 2021 में दक्षिणी लंदन में 33 साल की सारा एवरर्ड के अपहरण, बलात्कार और हत्या के मामले में वेन कजिन्स दोषी साबित हुए. इसके बाद पुलिस के खिलाफ जबरदस्त आवाज उठी.

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इन्हीं सब घटनाओं को देखते हुए मेट पुलिस सेवा ने बैरोनेस लुईस केसी को अपने संस्थागत ढांचे और कार्यप्रणाली की समीक्षा का जिम्मा सौंपा. फरवरी 2022 से मार्च 2023 के बीच हुई समीक्षा के बाद रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस बुनियादी तौर पर ब्रिटेन के विविधतापूर्ण समाज के लिए काम करने में नाकाबिल है. पुलिस की प्राथमिकताओं में आम नागरिक नहीं हैं. वह खासकर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है. यही नहीं पुलिस में नस्लीय और लैंगिक भेदभाव की बात जोर देकर उभारी गई जिसका संबंध पुलिस सेवा के ढांचे से है.

पुलिस के रवैये में नस्ली भेदभाव की शिकायत भी होती है
मेट्रोपॉलिटन पुलिस में गोरे लोगों की बहुतायत है जबकि समाज में बहुत विविधता हैतस्वीर: Jeff J Mitchell/Getty Images

विविधता से भरा ब्रिटेन और ‘गोरी' पुलिस

मेट पुलिस में कुल 47000 हजार से ज्यादा अधिकारी और कर्मचारी काम करते हैं. इसमें 71 फीसदी अधिकारी पुरुष हैं और इनमें भी 82 फीसदी गोरे हैं. अधिकारियों की संख्या में लगभग 17 फीसदी काले, एशियाई और दूसरे समुदायों से हैं. काले पुरुष अधिकारी महज 1200 के करीब हैं जो इस फोर्स का 3.7 प्रतिशत है. जाहिर है कि मेट्रोपॉलिटन पुलिस बल में विविधता की भारी कमी है. गोरे पुरुषों के प्रभुत्व को इस सेवा की वर्तमान दिक्कतों का एक अहम कारक माना जा रहा है.

कई सर्वेक्षणों में पुलिस पर जनता के विश्वास में लगातार गिरावट दर्ज की गई है. बैरोनेस केसी समीक्षा रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 में 89 फीसदी लोगों ने पुलिस पर विश्वास की बात कही जो मार्च 2022 में गिरकर 66 फीसदी पर पहुंच गया है. एशियाई और काले लोगों के पुलिस पर विश्वास का आंकड़ा और भी कम है.

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ग्रेटर लंदन इलाके की विविधता का सही प्रतिनिधित्व ना करने वाली इस पुलिस सेवा की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. समीक्षा रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया कि पुलिस के पास अपने कार्यबल को नियोजित करने की ना कोई रणनीति है और ना ही ताकत का गलत इस्तेमाल करने वालों को रोकने के कारगर तरीके. पुलिस बल के भीतर बेहतर, काबिल या बुरे अधिकारियों के बीच फर्क करने की कोई परंपरा नहीं है. नतीजतन खामियाजा भुगतती है आम जनता.

बकिंघम पैलेस के बाहर मौजूद पुलिस
पुलिस की जिम्मेदारी में विशिष्ट लोगों की सुरक्षा भी एक अहम काम हैतस्वीर: Belinda Jiao/Getty Images

इसका एक उदाहरण हत्यारे स्टीफन पोर्ट का मामला है. पोर्ट ने जून 2014 से सितंबर 2015 के बीच चार लोगों की जान ली. इस मामले में पुलिस की नाकामी खुलकर सामने आई. जांच अधिकारी तीन हत्याओं के बीच की कड़ियां जोड़ने में असफल रहे और चौथी हत्या के बाद ही पोर्ट को पकड़ा जा सका. पुलिस की खामियों से भरी जांच प्रक्रिया के कारण यह सब हुआ. इसमें गैर-अनुभवी अधिकारियों को बिना सही ट्रेनिंग के मामले की जांच सौंपना और हत्या जैसे मामलों में बिना रणनीति के सुराग ढूंढना शामिल है.

मेट पुलिस के पास अपने अधिकारियों के प्रशिक्षण से जुड़ा कोई रिकॉर्ड भी नहीं है. इसका सीधा मतलब है कि वो जिस मामले पर काम कर रहे हों, उसके बारे में उन्हें जानकारी और समझ भी हो यह जरूरी नहीं है. ये बात महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़े मामलों में बहुत साफ नजर आती है.

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साल 2021 में दनियाल हुसैन नाम के 19 साल के एक किशोर को दो बहनों की हत्या के मामले में सजा मिली. मामले की जांच के दौरान पता चला कि अपराध की जगह की निगरानी के लिए तैनात दो पुलिस अधिकारियों ने मृत बहनों की तस्वीरें साझा की जिसमें उन्हें ‘मरी हुई चिड़ियां' कहा. दोनों अधिकारियों को बाद में भयंकर दुराचार के अलग मामलों में भी दोषी पाया गया और सजा मिली.

ये तो वो मामले हैं जिनमें अधिकारियों के खिलाफ सबूत सामने आए और कार्रवाई मुमकिन हुई लेकिन ऐसे कितने ही अधिकारी होंगे जो अपारदर्शी व्यवस्था का फायदा उठाकर हर पल अपनी कानूनी ताकत का गैर-कानूनी इस्तेमाल कर रहे होंगे.

पुलिस के सामने हमेशा अपराधियों और आम लोगों में फर्क करने की चुनौती होती है
बीते सालों में कई बार पुलिस पर उनकी जिम्मेदारी नहीं पूरे करने आरोप लगेतस्वीर: Dan Kitwood/Getty Images

लोकतंत्र, पुलिस और जवाबदेही

लोकतंत्र में पुलिस की जरूरत क्या है और उसका स्वरूप क्या होना चाहिए, इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता. राज्य की एजेंसी के रूप में पुलिस के सामने सामाजिक और ढांचागत असमानता वाले आधुनिक समाज में संवेदनशीलता के साथ काम करने के लिए खुद को तैयार करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है. ब्रिटेन में इसके लिए पुलिस को ज्यादा ‘पेशेवर' बनाने की जरूरत पर जोर दिया गया है. इसमें मेडिकल या कानून जैसे प्रशिक्षण आधारित परंपरागत पेशों की व्यवस्था शामिल है जहां ज्ञान और पेशे से जुड़े निर्देश काम का तरीका तय करते हैं.

कॉलेज ऑफ पोलिसिंग, स्नातकों के लिए पुलिस शिक्षण फ्रेमवर्क के तहत प्रवेश समेत नैतिक आचार संहिता अपनाने की दिशा में कदम उठाए गए यानी पुलिस के परंपरागत ढांचे में नई जान फूंकने की कोशिशें की गई. हालांकि बुनियादी सवाल अब भी यही है कि क्या पेशेवर होने की कोई खास परिभाषा, पुलिस को विभिन्न समुदायों और समाज की जटिल सचाइयों से वाकिफ करवा सकती है? क्या पढ़ाई का पाठ्यक्रम संवेदनाओं को जगाने में कामयाब हो सकता है? जरूरत इस बात की है कि पहले लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस की भूमिका को परिभाषित किया जाए और फिर उसके अधिकारों और तरीकों की समीक्षा की जाए.

वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही पुलिस के पेशेवर हो जाने की उम्मीद करने से दकियानूसी संस्थागत ढांचों की दीवारें नहीं गिराई नहीं जा सकतीं. शिक्षा और जानकारी दे कर पुलिसिया रुख में संवेदनशील व्यवहार की कुछ उम्मीद की जा सकती है लेकिन लोकतंत्र में जवाबदेही सबसे बुनियादी तत्व है और पुलिस अधिकारियों के कानूनी हाथों को जवाबदेही की मजबूत जंजीरें ही बांध सकती हैं.