जो मुसलमान न कर सके, दलितों ने कर दिखाया
२ अगस्त २०१६'दलितों में स्वाभाविक रूप से प्रभावशाली लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है.' गुजरात का दलित समाज इस अपमान जनक मिथक को तोड़ने का प्रयास कर रहा है, वह भी बिना किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक समर्थन के.
पूरे भारत की तरह ही गुजरात में भी दलितों की स्थिति कुछ खास अलग नहीं है. विकास की रोशनी से दूर और हिन्दू समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थिर हो चुका यह समाज, अमानवीय व्यवहार और अत्याचार के चलते अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सजग हो उठा है. ऊना में गोरक्षा के नाम पर दलित युवकों पर हुए बर्बर हमले ने दलित समुदाय को सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया है.
आन्दोलन का गांधीवादी स्वरूप
ऊना में हुई दलितों की पिटाई के विरोध में रविवार 31 जुलाई को अहमदाबाद में दलित समाज ने विशाल रैली कर अहिंसात्मक तरीके से अपनी मांगों को सरकार के सामने रखा. हालांकि दलितों ने अपनी उपयोगिता और काम की सार्थकता नजरअंदाज करने के लिए समाज को सबक सिखाने का फैसला भी लिया है. महात्मा गांधी ने जिस तरह अंग्रेजों से असहयोग कर ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया था उसी तरह दलित समुदाय के लोगों मृत पशुओं के शव को नहीं उठाने और सफाई का कामकाज नहीं करने का संकल्प लिया.
ऊना में मृत गाय की खाल उतारने को लेकर कथित गोरक्षकों द्वारा दलितों की बर्बर पिटाई पर अपना आक्रोश जताने के लिए दलित समुदाय ने मृत पशुओं के शव को ही हाथ नहीं लगाने और यहां तक कि समाज की स्वच्छता का जिम्मा भी ढोने से इनकार किया है. दलित परिवार में पैदा होने वाले सचिन गायकवाड़ कहते हैं, "गोरक्षकों को ही मृत गाय का अंतिम संस्कार करना चाहिए. मृत पशुओं को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी सिर्फ दलितों की ही नहीं है."
दलित नेता और रैली के आयोजक जिग्नेष मेवानी ने सरकार से मांग की है कि मरे हुए पशुओं को उठाने का काम छोड़ने वाले दलितों और भूमिहीन दलितों को सरकारी कोटे से 5-5 एकड़ खेती योग्य जमीन दी जाए. दलितों को सुरक्षा, पिछली ऐसी घटनाओं में तुरंत कार्रवाई और विशेष अदालतें बनाने की मांगें उन्होंने सरकार के सामने रखी हैं.
इस आंदोलन को आगे ले जाने के लिए दलित समुदाय ने 15 अगस्त को ऊना में दलित स्वतंत्रता दिवस मनाने का फैसला किया है. इसके लिए एक पैदल मार्च 5 अगस्त से शुरू होगा जिसका समापन 15 अगस्त को ऊना में होगा.
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समर्थन में सामने आए मुसलमान
ऊना के मुद्दे पर दलितों को मुसलमानों का समर्थन मिल रहा है. दलित चिंता में ही मुसलमानों की अपनी चिंता भी शामिल है लेकिन धार्मिक रूप से संवेदनशील मुद्दा होने के कारण मुस्लिम समुदाय इतना मुखर नहीं हो पाया जितना दलित. गोरक्षकों के निशाने पर अक्सर मुसलमान ही रहते हैं लेकिन अपनी भावनाओं का इजहार वे खुलकर इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि इससे हिन्दुओं की भावना आहत होने का खतरा रहता है. अब जबकि खुद हिन्दू धर्म से गोरक्षकों के खिलाफ आवाज उठी है, गुजरात का मुसलमान इसे अपने हित में देख रहा है. मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया भी दलितों के समर्थन में सामने आया है.
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राजनीति में हलचल
गुजरात में अपने बूते एक बड़ी विरोध रैली कर दलितों ने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है. सत्ताधारी भाजपा के लिए यह एक भूचाल साबित हुआ और मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है. आनंदीबेन पटेल के इस्तीफे की वजह भाजपा कुछ भी बताये पर पिछले एक साल में हुए दो बड़े आंदोलनों ने भाजपा की नींद उड़ा दी है. इन आंदोलनों से निपट ना पाने के चलते आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. लगभग दो दशक से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा को भरोसा नहीं था कि आनंदीबेन पटेल का नेतृत्व पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत दिलवा पाएगा. पाटीदारों के बाद दलितों के गुस्से ने भाजपा को मुख्यमंत्री बदलने पर मजबूर कर दिया.
फिलहाल अपने आन्दोलन को गैर राजनीतिक बता रहे दलितों का कहना है कि अगर दलितों पर अत्याचार नहीं रुका तो अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव में वे अपनी ताकत दिखाएंगे. वैसे, गुजरात के इस दलित आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश और पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाओं में भी पड़ने की संभावना है. इन चुनावों में भाजपा को दलित गुस्से का सामना करना पड़ सकता है. इन दोनों राज्यों में दलित मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है.