जर्मनी में बढ़ती तानाशाही चाहने वालों की संख्या
२२ सितम्बर २०२३हर 12 में से एक जर्मन व्यक्ति, दुनिया के प्रति दक्षिणपंथी कट्टरपंथी नजरिया रखता है. यह नतीजे फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन के लिए बीलेफेल्ड यूनिवर्सिटी के शोध में सामने आए हैं. फाउंडेशन राजनीतिक रूप से जर्मनी की सेंटर-लेफ्ट सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी से जुड़ा है.
जर्मन समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला यह शोध हर दो साल पर किया जाता है. ऐसा 2002 से किया जा रहा है. ताजा सर्वे जनवरी और फरवरी 2023 में किया गया. इसमें 18 से 90 वर्ष के करीब 2,000 लोग शामिल हुए. रिसर्चरों के मुताबिक, इनमें से 8 फीसदी लोग स्पष्ट रूप चरम दक्षिणपंथी रुझान वाले थे. पहले हुए शोधों में यह संख्या दो से तीन फीसदी के बीच थी.
तानाशाही चाहने वालों की बढ़ती संख्या
सर्वे में हिस्सा लेने वाले हर उम्र वर्ग के करीब 5-7 प्रतिशत लोग जर्मनी में तानाशाही का समर्थन करते हैं. उन्हें लगता है कि एक मजबूत पार्टी और नेता होना चाहिए. लंबे समय के रुझानों को देखें तो यह आंकड़ा दोगुना हो चुकी है.
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"द डिस्टेंस्ड मेनस्ट्रीम" शीर्षक वाले इस शोध में तीन रिसर्चरों की अहम भूमिका है. शोध का नेतृ्त्व, बीलेफेल्ड यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरडिसिप्लिनरी रिसर्च ऑन कॉनफ्लिक्ट एंड वायलेंस के प्रमुख आंद्रेयास त्सिक कर रहे थे. त्सिक के मुताबिक लोगों की आमदनी जितनी घटती है, उनमें दक्षिणपंथी चरमपंथ वाला व्यवहार उतना ज्यादा बढ़ता है.
वह कहते हैं, "राष्ट्रीय संकटों में फंसा देश, इस तरह की सोच बढ़ रही है. और यह उन लोगों को बुरी तरह प्रभावित करती है जो कम कमाते हैं. सर्वे में शामिल हुए लोगों में कम आय वाले, तकरीबन हर दूसरे शख्स, यानि 48 फीसदी लोग, खुद को निजी रूप से इन संकटों से प्रभावित इंसान की तरह देखते हैं. मध्य आय वर्ग में यह संख्या 27.5 फीसदी और उच्च आय वर्ग में सिर्फ 14.5 फीसदी है."
सरकार के प्रति टूटता भरोसा
यह नतीजे जर्मनी में सरकारी संस्थानों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति लोगों में घटते विश्वास से मिलते जुलते हैं. बहुमत अब भी जनता द्वारा चुनी जाने वाली सरकार के पक्ष में है. हालांकि 38 फीसदी लोग किसी ना किसी तरह की साजिश वाली थ्योरी पर यकीन करते हैं. 33 फीसदी लोकलुभावन नजरिया रखते हैं. 29 फीसदी नस्ल से जुड़ी राष्ट्रवादी-तानाशाही या विद्रोही सोच का समर्थन करते दिखते हैं.
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कोविड-19 महामारी वाले वर्षों 2020 और 2021 के मुकाबले यह संख्या एक तिहाई ज्यादा है. पारंपरिक मीडिया को खारिज करने या उसे संदेह से देखने वालों की संख्या भी बढ़ी है. सर्वे में शामिल 32 फीसदी लोगों को लगता है कि मीडिया और राजनेताओं की मिलीभगत है. दो साल पहले के सर्वे में यह आंकड़ा 24 फीसदी था.
क्या लोकतंत्र संकट में है?
इस सोच के विकास को कैसे रोका जाए, इस पर कई लोग माथापच्ची कर रहे हैं. इनमें रिसर्चर त्सिक भी शामिल हैं. उनके मुताबिक हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं, जहां अपील या बेहतर समाज कल्याण की नीतियां, विवादों, असंतोष और प्रदर्शनों को कुछ हद तक ही शांत कर सकती हैं.
त्सिक कहते हैं, "मुश्किलों भरे वक्त में लोग राजनीतिक रूप से सक्रिय हो जाते हैं और नया रुख अख्तियार करते हैं. ये रुख केंद्र से दक्षिण की तरफ खींचा जा सकता है. मुख्यधारा या मध्यमार्गी लोग, जो खुद को राइटविंग चरमपंथ या किसी खास विचारधारा वाला नहीं मानते, जब वे दक्षिणपंथी चरमपंथी तत्वों जैसा नजरिया अपनाने लगें, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है."
कोविड-19 ने भड़काई कई समस्याएं
2022 में लाइपजिग यूनिवर्सिटी के एक शोध में पता चला कि कोविड महामारी के दूसरे साल धुर दक्षिणपंथी व्यवहार में कमी आई. हालांकि उस दौरान लोकतंत्र के प्रति असंतोष ऊंचा था. दूसरे समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह खूब शेयर किए जा रहे थे.
त्सिक कहते हैं, "आज हम जानते हैं कि कितने दक्षिणपंथी चरमपंथी, दूसरे दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों और साजिशों की बात करने वाले लोकतंत्र विरोधी संगठनों के साथ जुड़ना चाहते हैं." त्सिक के मुताबिक कुछ ऐसे ही हालात पहले विश्व युद्ध से पहले जर्मन साम्राज्य राइष में भी पनप रहे थे.
मौजूदा राइषबुर्गर आंदोलन, जर्मनों का एक ग्रुप है, जिसका अर्थ है राइष के नागरिक. ये लोग जर्मन साम्राज्य की 1871 की सीमाओं को मानते हैं. इस विचारधारा को मानने वाले मौजूदा जर्मनी और उसके लोकतंत्रिक ढांचे को खारिज करते हैं. इन गुटों ने आंतकी सेल तक बना रखी हैं.
इस शोध के दौरान लोगों से यह पूछा गया कि समाज को इन समस्याओं से कैसे निपटना चाहिए. 53 फीसदी ने देश की जरूरतों को प्राथमिकता देने वाली नीतियों का पक्ष लिया. उन्होंने बाहरी दुनिया से अलग थलग होकर जर्मन मूल्यों, उच्च नैतिक व्यवहार और जिम्मेदारियों की तरफ लौटने को इन समस्याओं के खिलाफ जरूरी औजार बताया.