हॉन्ग कॉन्ग में अंब्रेला मूवमेंट के नेताओं को सजा
२४ अप्रैल २०१९हॉन्ग कॉन्ग में 2014 में हुए लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों के लिए चार लोगों को सजा सुनाई गई है. इस प्रदर्शन को 'अंब्रैला मूवमेंट' के नाम से जाना जाता है जो 79 दिन तक चला था. प्रदर्शनों में शामिल नौ लोगों पर महीनों तक चले ट्रायल के बाद सजा सुनाई गई. इस कार्रवाई को चीन की साम्यवादी सरकार का हॉन्ग कॉन्ग की स्वायत्तता पर बढ़ते दबाव के तौर पर देखा जा रहा है.
कानून के प्रोफेसर बेनी ताई और सेवानिवृत समाजशास्त्री चान किन मान को समाज में उपद्रव करने की साजिश रचने के लिए सजा सुनाई गई. इस मौके पर चान किन मान ने कहा, "हमारे पास अहिंसक आंदोलन करने और बोलने की आजादी होनी चाहिए. हालांकि इस आंदोलन के दौरान हुए प्रदर्शनों से लोगों को परेशानियां हुईं लेकिन लोकतंत्र में इस तरह की परेशानियां होती रहती हैं." सजा सुनाते हुए जज जॉनी चान ने कहा कि इन दोनों की सजा को दो महीने के लिए कम किया गया है क्योंकि इनका पुराना रिकॉर्ड और चरित्र सकारात्मक रहा है.
लोकतंत्र समर्थक नेता शिउ का चुन और कार्यकर्ता रफाएल वॉन्ग को उपद्रव फैलाने के लिए आठ महीने जेल की सजा सुनाई है. सजा सुनाए जाने के बाद वॉन्ग ने चिल्लाते हुए कहा, "हम सार्वभौमिक मताधिकार की कोशिशें जारी रखेंगे. हमारी मांगें बदलने वाली नहीं हैं." इसके अलावा एक छात्र नेता टॉमी चुंग को 200 घंटे की समाजसेवा की सजा दी गई है. एक और नेता तान्ये चान के अस्वस्थ होने के चलते जून तक उनकी सजा पर सुनवाई टाल दी.
क्यों हुआ था हॉन्ग कॉन्ग में प्रदर्शन
1984 में ब्रिटेन और हॉन्ग कॉन्ग के बीच में एक समझौता हुआ था जिसमें हॉन्ग कॉन्ग को चीन को लौटा दिया गया. 1 जुलाई, 1997 से हॉन्ग कॉन्ग पर चीन का शासन चलने लगा. इसके लिए एक देश दो शासन के तरीके का सिद्धान्त लागू किया गया. हालांकि हॉन्ग कॉन्ग को चीन से उतनी स्वायत्तता नहीं मिल सकी जितनी वहां के लोग चाहते थे. हॉन्ग कॉन्ग का शासन 1,200 सदस्यों की चुनाव समिति के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा चलाया जाता है. हॉन्ग कॉन्ग के लोग चाहते हैं कि ये प्रतिनिधि जनता के जरिए चुने जाने चाहिए. 2007 में यह निर्णय लिया गया कि 2017 में होने वाले चुनावों में लोगों को मताधिकार का प्रयोग करने का हक मिलेगा. 2014 की शुरुआत में इसके लिए कानूनों में जरूरी बदलाव शुरू हुए.
हालांकि, जनवरी, 2013 में कानून के प्रोफेसर बेनी ताई ने एक आर्टिकल लिखा किया जिसमें कहा गया कि सरकार सार्वभौमिक मताधिकार के अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन नहीं कर रही है. इसके लिए उन्होंने एक अंहिसक अवज्ञा आंदोलन करने का आह्वान किया. आंदोलन के लिए ऑक्यूपाई सेंट्रल विद लव एंड पीस नाम का एक संगठन बनाया गया. जून 2014 में इस संगठन ने एक जनमत संग्रह भी किया जिसमें करीब आठ लाख लोगों ने वोट दिया. ये हॉन्ग कॉन्ग के कुल वोटरों का 20 प्रतिशत है. 31 अगस्त, 2014 को सरकार ने वोटिंग के नए कानून बनाए जिससे वहां के लोग संतुष्ट नहीं हुए. 22 सितंबर, 2014 को हॉन्ग कॉन्ग के कई स्टूडेंट यूनियनों ने इसका विरोध करना शुरू किया.
26 सितंबर को इनके साथ और प्रदर्शनकारी जुड़े और सरकार के मुख्यालय के सामने इकट्ठा हो गए. ये लोग पीले कलर के बैंड और छाते अपने साथ लेकर आए थे. इसलिए इसका नाम येलो अंब्रेला प्रोटेस्ट रखा गया. प्रदर्शनकारियों ने कुछ सरकारी इमारतों पर भी कब्जा कर लिया. प्रदर्शनकारियों ने उत्तरी हॉन्ग कॉन्ग की कई सड़कों को जाम कर दिया. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई की. इस कार्रवाई के बाद दूसरे आम लोग भी इन प्रदर्शनकारियों के साथ जुड़ गए.
हॉन्ग कॉन्ग और चीन के सरकारी अधिकारियों ने इस प्रदर्शन को नियमों का उल्लंघन करने वाला और गैरकानूनी बताया. चीनी मीडिया और अधिकारियों ने दावा किया कि इसके पीछे पश्चिमी देशों का हाथ है. ये प्रदर्शन 15 दिसंबर तक चलते रहे. 79 दिनों के इस आंदोलन में कई रास्ते जाम रहे. पुलिस और प्रदर्शनकारियों में हिंसक झड़पें हुईं. पुलिस ने धीरे-धीरे कर सभी जगहों को खाली करवा लिया.
इस आंदोलन को 1989 में बीजिंग के तियानमेन चौक पर हुए प्रदर्शनों के बाद सबसे बड़ा लोकतंत्र समर्थक आंदोलन माना जाता है. आंदोलन में करीब दस लाख लोगों ने हिस्सा लिया था. इस आंदोलन के नेताओं का कहना था कि उन्होंने एक अहिंसक आंदोलन बुलाया था लेकिन पुलिस कार्रवाई के चलते वो हिंसक हो गया. वहीं चीन में लोकतंत्र विरोधी लोगों का कहना है कि इस सब के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ था.
ऋषभ शर्मा(रॉयटर्स)