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अनपढ़ता से जूझ रहा है अमीर, आधुनिक जर्मनी

जेफर्सन चेज/वीके१२ सितम्बर २०१६

जर्मनी अनपढ़ता से जूझ रहा है. इतनी बड़ी तादाद में लोग पढ़ने लिखने से लाचार हैं कि अब यह एक समस्या बन चुका है. कोशिशें हो रही हैं लेकिन वे नाकाफी हैं.

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Symbolbild Aggressivität in der Schule
तस्वीर: picture-alliance/dpa/U. Baumgarten

जर्मनी जैसे अमीर, ताकतवर और आधुनिक देश में अनपढ़ता कोई मुद्दा हो सकता है, तीसरी दुनिया के लोगों को ख्याल भी नहीं आएगा. लेकिन जर्मनी में यह एक बड़ी समस्या है. लाखों जर्मन अनपढ़ हैं और अब यह देश के लिए समस्या बन रहा है.

कवियों और दार्शनिकों का यह देश अनपढ़ता से जूझ रहा है. देश के नौ फीसदी लोग ऐसे हैं जो तीसरी क्लास के स्तर से ज्यादा ना पढ़ सकते हैं और ना लिख सकते हैं. 2011 में हैम्बुर्ग यूनिवर्सिटी का एक सर्वे आया था जिसके मुताबिक 75 लाख लोग एकदम अनपढ़ हैं.

फेडरल असोसिएशन फॉर अल्फाबेटाइजेशन एंड बेसिक एजुकेशन के निदेशक राल्फ हेडर कहते हैं कि देश में लोगों के अनपढ़ रह जाने की एक से ज्यादा वजह हैं. वह बताते हैं, "हमेशा तो नहीं लेकिन अक्सर यह बात जरूरी हो जाती है कि लोगों का लालन-पालन कैसे हुआ है. क्या घर में पढ़ाई-लिखाई होती थी? क्या उनके माता-पिता पढ़े-लिखे थे? कुछ परिवार हैं जो शिक्षा को जरूरी नहीं मानते. इसलिए बच्चों को अगर स्कूल में कोई दिक्कत हुई तो घर पर किसी तरह का सहयोग नहीं मिल पाएगा. और जर्मन शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि अच्छे छात्रों पर ही केंद्रित हो जाती है. कई बार लोगों की त्रासदी भी वजह बन जाती है. जैसे कि अगर कोई बच्चा स्कूल शुरू करने के दौरान अपनी मां खो दे तो बहुत संभव है कि वह पीछे छूट जाएगा."

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वैसे, अब समस्या पर ध्यान बढ़ गया है तो हल खोजने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं. शिक्षा और अनुसंधान मंत्रालय के प्रवक्ता मार्कुस फेल्स बताते हैं कि 2015 में ही केंद्र सरकार और 16 राज्यों ने 10 वर्ष लंबी एक योजना शुरू की है. डेकेड ऑफ अल्फाबेटाइजेशन नाम की इस योजना पर 18 करोड़ यूरो खर्च करने का प्रावधान है. रकम जितनी बड़ी लगती है उतनी है नहीं. हेडर कहते हैं कि इतनी रकम में से हर प्रभावित के हिस्से रोजाना के मात्र ढाई यूरो आएंगे. वह कहते हैं, "यह तो बेहद कम है. अगर हम 75 लाख लोगों की बात करें तो यह विशाल आबादी है और उसके मुकाबले रकम बहुत मामूली." हेडर का तर्क है कि प्रभावशाली शिक्षा प्रोग्राम शुरू करने और फिर लोगों को उन तक लाने के लिए प्रेरित करने के वास्ते कहीं ज्यादा बड़ी रकम की जरूरत होगी.

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हेडर बताते हैं कि अपनढ़ता से लड़ने की जिम्मेदारी सबसे पहले तो प्रौढ़ शिक्षा केंद्रों की है. उन्हें पढ़ाई और लिखाई के लिए कोर्स शुरू करने होते हैं. लेकिन इन कोर्सेज के बारे में जानकारी जनता तक पहुंचाने के लिए कुछ नहीं मिलता है. जो लोग कोर्स में दाखिला लेते हैं, वे तो कुछ फीस नहीं देते लेकिन केंद्रों को तो क्लासरूम भी चाहिए और अध्यापक भी. और क्लास में लोगों की संख्या भी ज्यादा नहीं हो सकती. हेडर कहते हैं, "लिटरेसी कोर्स में 6 से 8 छात्र अधिकतम हो सकते हैं. जो अनपढ़ लोग हैं, वे भी बहुत अलग अलग तरह के हैं. मसलन कुछ हैं जो अक्षरों को पहचान ही नहीं सकते. कुछ हैं जो थोड़ा बहुत पढ़ लेते हैं लेकिन लिख नहीं पाते. सबको एक जैसे कोर्स में नहीं डाला जा सकता. ये तो वैसा ही हो जाएगा कि पहली से चौथी क्लास एक ही जगह, एक साथ पढ़ाई जा रही हो."

हेडर के मुताबिक निजी शिक्षण संस्थाएं, चर्च और स्वयंसेवी संस्थाएं इस मामले में बेहतर काम कर सकती हैं. लेकिन चुनौती यह भी है कि अनपढ़ लोगों को जागरूक किया जाए. फिलहाल लिटरेसी कोर्सों में 20 हजार लोगों ने पंजीकरण करा रखा है. अगर अनपढ़ों की संख्या 75 लाख है तो फिर 20 हजार तो ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं है. यानी बड़े पैमाने पर क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत होगी.

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