फैसला हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिंदू महिलाओं और विधवाओं के अधिकारों के संबंध में था. न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की बेंच के सामने सवाल था कि अगर मृतक की संपत्ति का कोई और कानूनी उत्तराधिकारी न हो और उसने अपनी वसीयत न बनवाई हो तो संपत्ति पर बेटी का अधिकार होगा या नहीं.
बेंच ने अपने फैसले में कहा की अगर ऐसे व्यक्ति की संपत्ति "खुद अर्जित की हुई है या पारिवारिक संपत्ति में विभाजन के बाद प्राप्त की हुई है तो वो उत्तराधिकार के नियमों के तहत सौंपी जाएगी और ऐसे व्यक्ति की बेटी का उस संपत्ति पर अधिकार दूसरे उत्तराधिकारियों से पहले होगा."
मील का पत्थर
यह मुकदमा इसलिए भी दिलचस्प था क्योंकि संबंधित व्यक्ति मरप्पा गौंदर की मृत्यु 1949 में हो गई थी, जब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम नहीं बना था. अधिनियम 1956 में बना. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि फैसला ऐसे मामलों पर भी लागू होगा जिनमें संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अधिनियम के बनने से पहले हो गई हो.
इस फैसले से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम का और स्पष्टीकरण हो गया है
अदालत ने यह भी कहा कि अधिनियम का उद्देश्य हिंदू कानून को संहिताबद्ध कर यह स्थापित करना है कि संपत्ति के अधिकार के सवाल पर पुरुषों और महिलाओं में पूरी तरह से बराबरी है और महिला के भी पूर्ण अधिकार हैं.
अदालत ने इस फैसले में यह भी समझाया कि अगर कोई हिंदू महिला बिना वसीयत के मर जाती है तो ऐसे मामलों में क्या होगा.
अदालत के मुताबिक ऐसे मामलों में महिला के पिता या माता से उसे प्राप्त हुई संपत्ति उसके पिता के उत्तराधिकारियों के पास वापस चली जाएगी, जबकि महिला के पति या ससुर से उसे प्राप्त हुई संपत्ति उसके पति के उत्तराधिकारियों के पास चली जाएगी.
बढ़ सकते हैं मुकदमे
अगर मृत महिला का पति या कोई भी संतान जीवित है तो उसकी सारी संपत्ति उसके पति या उसकी संतान के पास चली जाएगी. यह फैसला संपत्ति में महिलाओं के अधिकार के संबंध में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
इस फैसले के बाद अदालतों में 1956 के पहले के उत्तराधिकार के कई मुकदमे आ सकते हैं
फैसले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को लेकर कई बातें स्पष्ट की गई हैं, विशेष रूप से यह कि अधिनियम 1956 से पहले के मामलों पर भी लागू होगा. 1956 में अधिनियम के आने से पहले हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता था.
इस फैसले के बाद संभव है कि 1956 से पहले के कई संपत्ति विभाजन के मामलों पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है और अदालतों में और मुकदमे आ सकते हैं. लेकिन उम्मीद है कि इन सभी मामलों में इस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला सही राह दिखाएगा.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
समान हक
मातृसत्तात्मक समाज में ऐसा अक्सर देखा जाता है कि घरों की जिम्मेदारी महिलाओं के पास होती है. जायदाद पर मालिकाना हक महिलाओं का होता है और वे इसे अपनी बेटियों को देती हैं. यहां पति शादी कर महिला के घर में रहने जाते हैं. वहीं पुरूषों के पास राजनीतिक और सामाजिक मसलों पर निर्णय लेने का हक होता है. ऐसी व्यवस्था को यहां शक्तियों का सही बंटवारा माना जाता है.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
खासी (भारत)
पूर्वोत्तर के खासी समुदाय में लड़की का जन्म जश्न का मौका होता है और वहीं लड़का पैदा होना एक साधारण बात. आमतौर पर परिवार की बड़ी बेटी का परिवार की विरासत पर हक होता है. अगर किसी दंपत्ति के बेटी नहीं होती तो वे लड़की गोद लेकर अपनी जायदाद उसे सौंप सकते हैं. खासी समुदाय की इस प्रथा के चलते काफी पुरूषों ने अपने हकों के लिये नये समुदाय बना लिये हैं.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
चाम (दक्षिण भारत)
कंबोडिया, वियतनाम और थाईलैंड में भी दक्षिण भारत के चाम समुदाय की मान्यतायें बहुत अधिक प्रचलित हैं. चाम समुदाय भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था पर विश्वास करता है और परिवार की जायदाद भी महिलाओं को मिलती है. यहां की लड़कियों को अपने लिये पति चुनने का भी अधिकार है. आमतौर पर लड़की के मां-बाप लड़के के परिवार से बात करते हैं और शादी के बाद लड़के ज्यादातर लड़की के परिवार क साथ रहने जाते हैं.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
गारो (भारत)
गारो समुदाय में मां शब्द एक पदवी की तरह है. परिवार कि सबसे छोटी बेटी को मां अपनी पारिवारिक जायदाद सौंपती है. पहले किशोरावस्था में लड़के अपने माता-पिता का घर छोड़कर गांव की डॉर्मेटरी में रहने चले जाते थे. लेकिन ईसाई धर्म का प्रभाव इन पर पड़ा और अब समुदाय में भी मां-बाप अपने बच्चों को बराबरी के अधिकार और माहौल दे रहे हैं.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
मोस (चीन)
मोस समुदाय में लोग महिलाओं के नेतृत्व वाले बड़े परिवारों में रहते हैं. इस समुदाय में पति और पिता जैसे कोई मसला ही नहीं है. यहां के लोग चलते-फिरते विवाह (वाकिंग मैरिज) पर भरोसा करते हैं, जहां पुरूष महिलाओं से मिलने जा सकते हैं, रूक सकते हैं लेकिन यहां लोग साथ नहीं रहते. इन शादियों से पैदा हुये बच्चों को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है. जैविक पिता की बच्चों को पालने में कोई भूमिका नहीं होती.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
मिनांगकाबाऊ (इंडोनेशिया)
करीब 40 लाख की आबादी वाले इंडोनेशिया के इस समुदाय को विश्व का सबसे बड़ा मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता है. मूल रूप से इन्हें जीववादी (एनिमिस्ट) माना जाता था लेकिन हिंदु और बौद्ध धर्म का इन पर काफी असर पड़ा, कई लोगों ने इस्लाम भी अपना लिया. ये अपने समाज को कुरान पर आधारित मानते हैं, जो महिलाओं को जायदाद पर अधिकार देने और सामुदायिक निर्णय लेने से नहीं रोकता.
-
यहां आदमियों की नहीं औरतों की चलती है
छोड़ी पुरानी रीतियां
आज इन मातृसत्तात्मक समाजों में भी बदलाव महसूस किया जा रहा है. ये समाज भी बदल रहा है और नये रीति-रिवाजों को अपना रहा है. कुछ समुदायों में पुरूषों ने अपने हक के लिये आवाजें उठाईं हैं और अब वे ऐसी परंपराओं की खिलाफत कर रहे हैं. रिपोर्ट- ब्रेंडा हास/एए