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बढ़ते जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी संकेत

हृदयेश जोशी
२२ जुलाई २०२१

नवंबर में ग्लासगो में होने वाले क्लाइमेट चेंज महासम्मेलन (कॉप-26) के अध्यक्ष ने पूरी दुनिया से कहा है कि जलवायु परिवर्तन से उसी तत्परता से लड़ा जाए जैसी कोरोना महामारी के खिलाफ दिखाई गई.

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चिली में एंडीज पर्वतमाला में पहाड़ों की हालत
चिली में एंडीज पर्वतमाला में पहाड़ों की हालततस्वीर: FAU/David Farías

कनाडा में हीटवेव से 500 लोगों की मौत, अमेजन के जंगल बने अब कार्बन का स्रोत, यूरोप के आल्प्स में बनीं 1000 से अधिक झीलें, हिमालय के जंगलों की पहचान बनी आग. पिछले एक महीने में एक के बाद एक लगातार आती इन सुर्खियों ने एक बार फिर मौसम के बिगड़ैल मिजाज और पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के बढ़ते विनाशकारी प्रभावों पर मुहर लगा दी है. कनाडा में इस साल हीटवेव से 500 से अधिक लोगों की जान चली गई और यहां पर वन्य जीवों और वनस्पतियों को भारी नुकसान पहुंचा है. सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायर्नमेंट की निदेशक सुनीता नारायण ने लिखा है, "कनाडा जैसे ठंडे इलाके और अमेरिका के पश्चिमी हिस्सों में तापमान का 50 डिग्री तक पहुंच जाना एक बार फिर हम सबके लिए एक स्पष्ट संदेश है, क्लाइमेट चेंज हो रहा है और आने वाले दिनों में हालात अधिक बिगड़ेंगे."

2019 में गर्मी से यूरोप और अमेरिका में रिकॉर्ड मौतें हुईं
2019 में गर्मी से यूरोप और अमेरिका में रिकॉर्ड मौतें हुईंतस्वीर: Getty Images/P.Huguen

पूरी दुनिया में बिगड़ता मौसमी चक्र

बात कनाडा तक सीमित नहीं है. यूरोप में भी हीट वेव का साफ असर दिख रहा है और अनुमान है कि इस साल रिकॉर्ड अधिकतम तापमान दर्ज होगा. उधर सोमवार को प्रकाशित एक रिसर्च से पता चला कि यूरोप के आल्प्स पर्वतों पर ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं और आज इन पर करीब 1000 झीलें हैं. जलीय विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर काम करने वाले स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट की इस रिसर्च में बताया गया है कि आल्प्स पर 1850 के बाद से ही झीलों की संख्या बढ़ने का सिलसिला चल रहा है. एक समय झीलों की कुल संख्या 1200 तक पहुंच गई थी. इन झीलों का बनना 1946 और 1973 के बीच सबसे तेज गति से हुआ और तब हर साल औसतन 8 झीलें बनीं हालांकि उसके बाद यहां लेक बनने की रफ्तार कुछ कम हुई लेकिन 2016 के बाद से यह सिलसिला फिर बढ़ रहा है और अब सालाना 18 झीलें बढ़ रही हैं और इनके कुल क्षेत्रफल में डेढ़ लाख वर्ग मीटर की बढ़ोतरी हो रही है.

खतरा आल्प्स के अलावा दुनिया के दूसरे हिस्सों में स्थित पर्वत श्रृंखलाओं पर भी है. मिसाल के तौर पर एशिया के हिन्दुकुश-हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. हिमालयी क्षेत्र में रिसर्च करने वाली संस्था इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीमोड) ने अपनी ताजा रिसर्च में कहा है कि साल 2100 तक हिन्दुकुश-हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर अपनी दो-तिहाई बर्फ खो देंगे जिससे पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र में गंभीर जल और खाद्य संकट हो सकता है जिससे 200 करोड़ लोग प्रभावित होंगे.

तेजी से फिघल रहे हैं पूरी दुनिया के ग्लेशियर
तेजी से फिघल रहे हैं पूरी दुनिया के ग्लेशियरतस्वीर: picture alliance/dpa/blickwinkel/E. Hummel

अमेजन के जंगल तक छोड़ने लगे कार्बन

पूरी दुनिया में अमेजन और हिमालय के जंगलों को कार्बन सोखने का एक बड़ा जरिया माना जाता है लेकिन ताजा स्थिति में हालात बिगड़ रहे हैं. अमेजन के वर्षावन अब जितना कार्बन सोखते हैं उससे अधिक उत्सर्जित कर रहे हैं क्योंकि यहां जंगलों को काटने और जलाने का अंधाधुंध सिलसिला चल रहा है. वैज्ञानिकों का कहना है अब अमेजन के जंगल हर साल 30 करोड़ टन कार्बन छोड़ रहे हैं जो कि बहुत निराशाजनक बात है. अगर यहां बायोमास बर्निंग इस स्तर पर नहीं होती तो यह निश्चित ही कार्बन का सोख्ता बना रहता.

उधर हिमालय के जंगलों में लगने वाली आग की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं. पिछले 10 सालों में यहां आग लगने की घटनायें भी बढ़ी हैं और आग अधिक भयानक हुई हैं. पिछले 8 साल से नेपाल में औसतन 462 आग की घटनाएं हो रहीं थी लेकिन इस साल करीब 8 गुना घटनाएं हुई हैं. पिछले नवंबर से इस साल मार्च के अंत तक एशियाई देशों में 2,700 आग की घटनाएं हुईं जो एक फॉरेस्ट सीज़न में पिछले एक दशक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. जाहिर है ये स्थितियां ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे को विकराल ही बना रही हैं.

कैलीफोर्निया में भीषण गर्मी से कई जगह आग लगी
कैलीफोर्निया में भीषण गर्मी से कई जगह आग लगीतस्वीर: Noah Berger/AP Photo/picture alliance

कोरोना जैसी तैयारी चाहिए इस जंग में भी

इस साल नवंबर में ग्लोसगो में होने वाले जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन के अध्यक्ष और ब्रिटिश सांसद आलोक शर्मा ने कहा है कि क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिए वैसी ही तत्परता दिखाई जानी चाहिए जैसी कोरोना महामारी के खिलाफ दिखाई गई. लेकिन समस्या ये है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में कई मोर्चों पर ईमानदारी का अभाव है.

इसीलिए जहां गरीब और विकासशील देश अमीर देशों से अपने संकल्प पूरा करने को कह रहे हैं वहीं अमीर और विकसित देश अब तक विकासशील देशों के लिए ग्रीन क्लाइमेट फंड में हर साल 100 बिलियन डॉलर का फंड और क्लीन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का वादा भी पूरा नहीं कर पाए हैं. दुनिया के 100 विकासशील देशों ने एक बार फिर से पांच सूत्री कार्यक्रम के तहत अमीर देशों से इस वादे को पूरा करने को कहा है.

रोजगार से भी जुड़ी से ये लड़ाई

क्लाइमेट चेंज के साथ लड़ने में कुछ व्यवहारिक समस्याएं भी हैं और इनमें एक बड़ी दिक्कत यह है कि उन लोगों को रोज़गार कहां दिया जाए जो कि अभी कोयले, तेल और गैस जैसे कार्बन छोड़ने वाले उद्योगों में लगे हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए ऐसे जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद करना होगा लेकिन इनमें काम कर रहे कर्मचारी या मजदूरों के लिए नौकरियां ढूंढना और उन्हें नए रोजगार के लिए ट्रेनिंग देना एक बड़ी चुनौती होगी. जलवायु परिवर्तन की भाषा में इसे "जस्ट ट्रांजिशन" यानी न्यायोचित परिवर्तन कहा जाता है.

जीवाश्म ईंधन से जुड़ी हैं लाखों नौकरियां
जीवाश्म ईंधन से जुड़ी हैं लाखों नौकरियांतस्वीर: picture alliance / ASSOCIATED PRESS

देश के 700 में से करीब 120 जिलों में अर्थव्यवस्था सीधे या परोक्ष रूप से कोयले या तेल-गैस से जुड़े कारोबार पर टिकी है. पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था आई-फॉरेस्ट में जस्ट ट्रांजिशन की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी कहती है कि देश के कुल कोयला उत्पादन का 95% हिस्सा केवल 65 जिलों से आता है. बनर्जी के मुताबिक "कोयला प्रचुर राज्यों में यही खनिज वहां की अर्थव्यवस्था का मुख्य वाहक बन गया है जबकि कृषि, वन आधारित रोजगार और मछली पालन जैसे व्यवसाय हाशिये पर चले जाते हैं. खेती के लिए पानी कम हो जाता है और जल और मिट्टी के प्रदूषण का भी इन कारोबारों पर असर पड़ता है."

स्पष्ट है कि भारत के सात कोयला प्रचुर राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में ही देश की सबसे गरीब आबादी का बड़ा हिस्सा है. इसलिए इन उद्योगों का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव काफी गहरा है. जाहिर है भारत और दुनिया के तमाम गरीब और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ते समय इस कड़वी सच्चाई का भी सामना करना है.

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