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आदिवासियों की कत्लगाह बन गया है छत्तीसगढ़

विवेक कुमार
१० अक्टूबर २०१६

माओवादियों के खिलाफ मुहिम में छत्तीसगढ़ एक कत्लगाह बन गया है. जमकर मुठभेड़ें हो रही हैं और मारने पर इनाम मिल रहे हैं.

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Wiederaufbau nach Maoisten Angriff in Jungal Mahal Indien
तस्वीर: DW/A. Chatterjee

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में बसरूर गांव के दो लड़के रिश्तेदारों को एक बुरी खबर देने घर से निकले थे. शाम तक खुद एक बुरी खबर बनकर घर लौटे. दोनों को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस का कहना है कि ये दोनों माओवादी थे. 16 और 18 साल के ये लड़के अब सिर्फ एक खबर बन चुके हैं, उन 100 से ज्यादा लोगों की तरह जो पिछले सात महीनों में पुलिस की गोली से मारे जा चुके हैं. पुलिस का दावा है कि ये सभी माओवादी थे और मुठभेड़ में मारे गए. लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता और इनमें से ज्यादातर के गांव वाले कहते हैं कि पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में इन्हें मारा है. आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम कर रहे जानेमाने कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिस का काम करने का यही तरीका है. वह कहते हैं, "पुलिस कहीं से भी लोगों को, खासकर युवा लड़कों या लड़कियों को पकड़ती है और उन्हें गोली मार देती है. फिर उनकी लाशों पर बंदूकें रख कर उन्हें माओवादी बता दिया जाता है."

हिमांशु हाल ही में सुकमा जिले के गदीरास थाने में हुई एक मुठभेड़ का उदाहरण देते हैं. वह कहते हैं, "सुकमा जिले के गदीरास थाने के डोड़रेम गांव के 40 लोगों को बन्दूक की नोक पर ले जाकर आईजी कल्लूरी के सामने फर्जी आत्मसमर्पण कराया. पहले तो गांव के आदिवासी नक्सली बन कर फर्जी आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं थे. इस पर गांव वालों को डराने के लिए पुलिस वालों ने 27 सितंबर को उनकी तीन बेटियों से बलात्कार किया और उसके बाद लड़कियों को गोली मार दी. बाद में डरे हुए गांव वालों को ले जाकर आईजी कल्लूरी के साथ फोटो खिंचवा दी गई." 13 जून को हुई ऐसी ही एक घटना में मदकम हिडमे को मार गिराया गया था. पुलिस ने दावा किया कि माओवादियों के साथ तीखी मुठभेड़ हुई जिसमें 23 साल की मकदम हिडमे मारी गई. लेकिन हिडमे के घरवालों ने मीडिया को बताया, "13 जून को पुलिसवाले उसे घसीटते हुए घर से ले गए थे."

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बस्तर में फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ काम कर रहे संगठन बस्तर सॉलिडैरिटी नेटवर्क (बीएसएन) का दावा है कि पिछले सात महीनों में 100 से ज्यादा आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मारा जा चुका है. अपनी रिपोर्ट में बीएसएन ने इसे जमीन हथियाने की कोलंबस के बाद इतिहास की सबसे बड़ी कोशिश बताया है. नक्सल विरोधी आंदोलन को युद्ध बताते हुए बीएसएन ने दावा किया है, "सरकार ने यह युद्ध आदिवासियों का सफाया करके खनिजों से भरी जमीन को बड़ी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने के लिए चलाया है." इसी साल फरवरी में छत्तीसगढ़ पुलिस ने अपने स्थानीय सशस्त्र बल डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड्स (डीआरजी) को माओवाद खत्म करने का मिशन सौंपा है.

सीपीआई (माओवादी) एक प्रतिबंधित संगठन है. अमेरिका में हुए एक अध्ययन में इसे तालिबान, इस्लामिक स्टेट और अल बोको हराम के बाद चौथा सबसे खतरनाक संगठन बताया गया है. आतंकवाद पर अध्ययन करने वाले अमेरिकी विदेश मंत्रालय के संस्थान नेशनल कन्सोर्टियम फॉर द स्टडी ऑफ टेररिजम एंड रेस्पॉन्सेस टु टेररिजम के मुताबिक बीते साल में भारत में 793 आतंकी हमले हुए जिनमें से 43 फीसदी नक्सली संगठनों ने किए. इन हमलों में 289 लोगों की जान गई. 2015 में सीपीआई (माओवादी) ने 343 हमले किए जिनमें 176 भारतीयों की जान गई. भारतीय गृह मंत्रालय के अनुसार 2010 से 2015 के बीच 2162 आम लोग और 802 सुरक्षाकर्मी माओवादियों के हाथों मारे गए हैं.

"मिशन 2016" के नाम से यह अभियान इन्हीं माओवादियों को खत्म करने के लिए चलाया गया है. लेकिन पुलिस जिस डीआरजी ग्रुप का सहारा ले रही है, उसमें हथियार डाल चुके माओवादियों को भर्ती किया जाता है. आलोचक डीआरजी को स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) का ही नया रूप मानते हैं. एसपीओ में भी आदिवासियों को भर्ती करके उन्हें हथियार दिए जाते थे. 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने एसपीओ को गैर कानूनी बताते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया था. अब उसी तरह का काम डीआरजी कर रहा है.

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लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर कहती हैं कि डीआरजी दरअसल एसपीओ ही है, बस नाम बदल गया है. इस बारे में उन्होंने हाई कोर्ट में अपील भी की है. वह कहती हैं, "डीआरजी के लोगों को माओवादियों को मारने पर प्रमोशंस दिए जा रहे हैं जबकि मानवाधिकार आयोग के स्पष्ट निर्देश हैं कि मुठभेड़ के लिए किसी पुलिस वाले को प्रमोशन नहीं दी जा सकती." बीएसएन का तो दावा है कि माओवादियों को मार गिराने के लिए इनाम में धन तक दिया जा रहा है. अपनी रिपोर्ट में बीएसएन लिखता है, "बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी ने अपने अफसरों को इस तरह की हत्याओं के लिए इनाम देना शुरू किया है. इस मुठभेड़ में शामिल जवानों को एक-एक लाख रुपये का इनाम दिया गया." कार्यकर्ताओं का दावा है कि इस इनाम के लालच में फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम दिया जा रहा है.

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम ने जून महीने में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह को छत्तीसगढ़ भेजा था. जानीमानी कार्यकर्ता कविता कृष्णन की अध्यक्षता में इस फैक्ट फाइंडिंग मिशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राज्य में फर्जी मुठभेड़ों, सुरक्षाकर्मियों द्वारा बलात्कार, मासूमों के खिलाफ फर्जी मामले दर्ज करने और उन्हें गिरफ्तार कर लेने का क्रूर सिलसिला चल रहा है.

'द बर्निंग फॉरेस्ट: इंडियाज वॉर इन बस्तर' किताब की लेखिका नंदिनी सुंदर कहती हैं कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई जांच नहीं होती. वह कहती हैं, "अगर मुठभेड़ होती है और गांव वाले कहते हैं कि फर्जी थी तो उसकी जांच होनी चाहिए. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. कोई सवाल भी नहीं पूछ सकता."

छत्तीसगढ़ इस वक्त एक ऐसी कत्लगाह बना हुआ है जिसमें संदेह के आधार पर भी किसी को मारा जा सकता है. पुलिस से इस बारे में सवाल भी नहीं पूछे जा सकते. इन सारे आरोपों पर जवाब पाने के लिए डॉयचे वेले ने बस्तर जिले के एसपी आर. एन. दाश से बात करनी चाही तो उन्होंने कहा, "आप जर्मनी में बैठकर नक्सलियों के बारे में क्या जानते हैं? मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दूंगा."