होली के बदलते रंग
२६ मार्च २०१३पहले हिंदी भाषी प्रदेशों में फागुन का महीना चढ़ते ही फिजा में होली के रंगीले और सुरीले गीत तैरने लगते थे. इनको स्थानीय भाषा में फाग या फगुआ गीत कहा जाता है. कोई महीने भर बाकायदा इनकी महफिलें जमती थीं. शहरों में भी ढोल-मजीरे के साथ फगुआ के गीत गाए जाते थे. लेकिन समय की कमी, बदलती जीवनशैली और कई अन्य वजहों से शहरों की कौन कहे, गांवों में भी यह परंपरा दम तोड़ रही है.
पहले होली के मौके पर शहरों में महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते थे और अखबारों में नामी-गिरामी लोगों को उपाधियां दी जाती थीं. अब यह परंपरा भी आखिरी सांसें ले रही है. होली के मौके पर बनने वाली ठंडई और भांग की जगह अब अंग्रेजी शराब ने ली है. दूसरी ओर सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए वृंदावन में रहने वाली सैकड़ों विधवाओं ने इस साल पहली बार होली खेली. भारतीय समाज में विधवाओं के रंग खेलने पर पाबंदी है.
फागुन की महफिलें
बदलते दौर में खास कर ग्रामीण इलाकों में भी फागुन का अंदाज बदलने लगा है. एक दशक पहले तक माघ महीने से ही गांव में फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फाल्गुन माह में भी गांव से ऐसी महफिलें लगभग गायब हो गई हैं. इस समय वसंत की अंगड़ाई, जहां-तहां खिलने वाले फूल और पछुआ यानी पश्चिम दिशा से बहने वाली हवाओं की सरसराहट फागुन का साफ संकेत दे रही हैं. लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में हमारी परंपराएं सिसकने लगी हैं. फागुन के महीने में शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को कान तरस गए हैं. फाग का सदियों पुराना राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों पर भी गुम हो गया है.
पहले होली के दिन अलग अलग युवकों की टोलियां घर घर घूम कर गीत गाती थी. बदले में उनको मिलते थे रंग अबीर और खाने के लिए लिए मालपुए. लेकिन अब यह परंपरा दम तोड़ रही है. कुछ लोग इसकी वजह आपसी दुश्मनी, भेदभाव और बढ़ते वैमनस्य को मानते हैं तो कुछ लोग पश्चिमी परंपराओं के हावी होने को मुख्य वजह बताते हैं.
सिवान (बिहार) जिले के फगुआ गायक रामेश्वर प्रसाद कहते हैं, "प्रेम सौहार्द के इस त्योहार में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे. पहले होली एक महीने तक चलने वाला त्योहार था." वह बताते हैं, "गांव भर के लोग एक जगह जमा होकर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे. हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे. लेकिन अब एक दूसरे के साथ तालमेल के अभाव, कद्रदानों की कमी और गांवों से तेज होते पलायन के चलते यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है. युवा पीढ़ी को तो फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं हैं."
छपरा के फाल्गुनी प्रसाद कहते हैं, "फगुआ के गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, देवर भाभी के रिश्तों में हास्यपुट तो दिए ही जाते हैं, धार्मिक गीतों को भी शामिल किया जाता है. लेकिन अब गायन की यह परंपरा खत्म होती जा रही है. अब इनकी जगह फूहड़ गीत बजने लगे हैं."
होली का बदलता स्वरूप
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के वशिष्ठ तिवारी कहते हैं, "अब लोगों में प्रेम की भावना ही गायब हो गई है. लोग टीवी से चिपके रहते हैं. पहले गांवों के चौपालों से होली खेलने के लिए निकलने वाली टोली में बुजुर्ग से लेकर युवा शामिल होते थे. यह टोली सामाजिक एकता की मिसला होती थी." बिहार में समस्तीसपुर जिले के रहने वाले महेंद्र कौशिक कहते हैं, "अब पहले वाली होली कहां रही?" अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि पहले गांवों में होली के दिन भांग और ठंडई बड़े बड़े बर्तनों में घोली जाती थी. जात पांत से परे गांव का हर व्यक्ति उसका सेवन करता था. अब तो जात पांत की भावना सतह पर आ गई है. इसके अलावा इनकी जगह देशी और विलायती शराब ने ले ली है.
तरह तरह के आयोजन
पटना के राम सजीवन प्रसाद कहते हैं, "अब होली की वह मस्ती तो अतीत के पन्नों में कहीं गुम हो गई है. पहले होली के दिन महामूर्ख सम्मेलन का आयोजन किया जाता था और इसमें समाज के हर तबके के लोग बड़े उत्साह से भाग लेते थे. लोग इस दौरान मिलने वाली उपाधियों का बुरा नहीं मानते थे." एक हिंदी अखबार के संपादक दिनेश शर्मा कहते हैं, "अब लोगों को इसकी फुर्सत ही कहां है? अब तो टीवी और इंटरनेट ने लोगों को समाज से काट कर रख दिया है."
विधवाओं की होली
इस साल पहली बार मथुरा वृंदावन में रहने वाली सैकड़ों विधावाओं ने होली खेली. लेकिन इसकी सरहाना की बजाय आलोचना हो रही है. इस होली उत्सव का आयोजन करने वाले सुलभ इंटरनेशनल के प्रमुख बिंदेश्वरी पाठक कहते हैं, "हमने विधवाओं को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने और उनको सामाजिक अछूत के दायरे से बाहर निकालने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया था." लेकिन पारंपरिक रूढ़िवादी भारतीय समाज में इस आयोजन की आलोचना हो रही है.
मथुरा के पुजारी मथुरा प्रदास कौशिक कहते हैं, "विधवाएं पहले कृष्ण और राधा के साथ होली खेलती थीं. आपस में नहीं. हमारे समाज में विधवाओं के होली खेलने पर पाबंदी है." लेकिन पाठक इसके खिलाफ हैं, "हमने इस आयोजन के जरिए सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ने का प्रयास किया है."
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः अनवर जे अशरफ