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शुरुआती औपचारिकता या गहरे रिश्तों की शुरुआत

मारिया जॉन सांचेज
२५ जनवरी २०१७

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पद संभालने के पहले हफ्ते में ही भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी को फोन किया है. कुलदीप कुमार का कहना है कि ये सब शुरुआती औपचारिकताएं हैं और इनमें गहरे अर्थ ढूंढना बेमानी होगा.

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Bild-Kombi Modi Trump

डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्हें बधाई देने वाले पहले पांच राज्याध्यक्षों में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल थे. और पदभार संभालने के बाद ट्रंप ने जिन पांच राज्याध्यक्षों को फोन किया उनमें भी मोदी शामिल हैं. बातचीत के बाद व्हाइट हाउस ने एक बयान में भारत को अमेरिका का सच्चा दोस्त बताया है. मोदी ने भी कहा है कि बातचीत ऊष्मा से भरी थी और कई मुद्दों पर चर्चा हुई. जाहिरा तौर पर ये सब शुरुआती औपचारिकताएं हैं और इनमें गहरे अर्थ ढूंढना बेमानी होगा क्योंकि ट्रंप ने कनाडा, मेक्सिको एवं इस्राएल के प्रधानमंत्रियों और मिस्र के राष्ट्रपति को फोन करने के बाद मोदी को फोन किया था. स्पष्ट है कि इससे मोदी और ट्रंप के बीच असाधारण निकटता सिद्ध नहीं होती और न ही यह सिद्ध होता है कि अमेरिका के लिए भारत रूस, जर्मनी या ब्रिटेन से अधिक महत्वपूर्ण देश बन गया है.

हालांकि ट्रंप और मोदी के व्यक्तित्व और राजनीति में अनेक समानताएं हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आने वाले वर्षों में भारत और अमेरिका के संबंध इन समानताओं द्वारा निर्धारित होंगे. चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवार बहुत सी बातें कहते हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद वे जो कहते हैं, असली महत्व उनका होता है. ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद "पहले अमेरिका" का नारा दिया है और अमेरिकी उत्पाद खरीदने और अमेरिकियों को ही नौकरी देने का आह्वान किया है. इस आह्वान ने सूचना तकनीकी से जुड़ी भारतीय कंपनियों में बेचैनी पैदा कर दी है. इन कंपनियों का पंद्रह अरब डॉलर का कारोबार दांव पर लगा है और यदि ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने संरक्षणात्मक आर्थिक एवं व्यापारिक नीतियां अपनाईं तो इनके कारोबार पर काफी प्रतिकूल असर पड़ सकता है. यूं भी पिछले कुछ समय से इस क्षेत्र में विकास की गति धीमी होती जा रही है. सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भारत से होने वाले निर्यात का साठ प्रतिशत अकेले अमेरिका के खाते में है, इसलिए राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप के प्रशासन की नीतियों का भारत के लिए कितना अधिक महत्व है, यह बताने की जरूरत नहीं. आश्चर्य नहीं कि सूचना तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अमेरिका को याद दिलाया है कि भारतीय कंपनियों ने न केवल अरबों डॉलर टैक्स में देकर बल्कि बड़ी संख्या में अमेरिकियों को रोजगार मुहैया कराकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दिया है. नैसकॉम के अध्यक्ष आर. चन्द्रशेखर ने विश्वास जताया है कि ट्रंप भारत के समर्थक रहे हैं और स्वयं एक कारोबारी होने के कारण कारोबार की वास्तविकताओं को अच्छी तरह समझते हैं. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि संरक्षणवादी नीतियों का भारतीय कंपनियों के साथ-साथ अमेरिकी कंपनियों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि आउट-सोर्स करने से उन्हें भी लाभ होता है.

ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की निकटता अब किंवदंतियों का हिस्सा बन चुकी है और कहना मुश्किल है कि इन किंवदंतियों में कितनी सच्चाई है. फिर भी इतना स्पष्ट है कि ट्रंप अमेरिका और रूस के बीच विरोध की जगह सहयोग का रिश्ता बनाने के पक्ष में हैं. यदि ऐसा होता है तो यह एक ओर भारत के पक्ष में जाएगा तो दूसरी ओर पाकिस्तान के मामले में उसकी मुश्किलें बढ़ा भी सकता है. ट्रंप घोषित रूप से इस राय के हैं कि चीन को नियंत्रित करने के लिए भारत का समर्थन करना जरूरी है. भारत को जहां इस विचार का स्वागत करना चाहिए वहीं इस बात का भी खयाल रखना चाहिए कि वह अमेरिका की चीनविरोधी अंतराष्ट्रीय रणनीति का हिस्सा न बन जाए. अमेरिका और चीन के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंध हैं. उनके मद्देनजर ट्रंप चीन को काबू में करने में कितना सफल हो पाएंगे, कहना मुश्किल है. यह ठीक है कि चीन अक्सर भारत के लिए परेशानियां खड़ी करता रहता है, भले ही वह आतंकवाद का मुद्दा हो या फिर परमाणु आपूर्तक समूह की सदस्यता का, लेकिन उसके खिलाफ किसी गठबंधन में शामिल होना भारत की स्वतंत्र विदेश नीति के हित में नहीं है. फिर भारत का बहुत पुराना और विश्वसनीय मित्र होने के बावजूद रूस भी चीन और पाकिस्तान की तरफ झुकाव दिखाता रहता है. अपने समस्त चीनविरोध के बावजूद अमेरिका उसके सबसे घनिष्ठ मित्र पाकिस्तान का सरपरस्त बना हुआ है और पाकिस्तान के प्रति उसकी नीति में निकट भविष्य में कोई खास अंतर आने वाला नहीं है. इसलिए इस जटिल अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक समीकरण को सुलझाने के लिए भारत को विशेष प्रयास करने होंगे.

हालांकि भारत के मूल्य डेमोक्रेटिक पार्टी के अधिक नजदीक पड़ते हैं, लेकिन यह भी एक अजीब विरोधाभास है कि जब भी अमेरिका में कोई रिपब्लिकन उम्मीदवार राष्ट्रपति बनाता है, तब उसके कार्यकाल में ही भारत और अमेरिका के संबंध सुधरते हैं. आशा की जानी चाहिए कि ट्रंप के कार्यकाल में भी यही होगा.