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बिहार में कोरोना के साए में खुल रहे हैं चुनावी पत्ते

मनीष कुमार, पटना
१० जुलाई २०२०

देश के दूसरे हिस्सों की तरह बिहार में भी कोरोना संक्रमण की रफ्तार तेज हो रही है जबकि विधानसभा चुनाव की तैयारी परवान चढ़ रही है. भारत में कोरोना संकट के दौरान पहली बार होने वाला चुनाव बिहार में अक्टूबर-नवंबर में होगा.

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Indien Bahir | Virtueller Wahlkampf und Proteste
तस्वीर: DW/M. Kumar

आने वाले विधान सभा चुनावों के पहले राजनीतिक पार्टियां चुनावी तैयारी में जुट रही हैं. चुनाव आयोग ने भी समय पर ही चुनाव कराने के संकेत दिए हैं. जिंदगी के साथ कोरोना को सत्य मान कर राजनीतिक दलों ने अपने-अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं. चुनावी मैदान में स्थिति बेहतर करने की होड़ में पार्टियों में तोडफ़ोड़ की कवायद तेज हो गई है. पुराने पन्ने उलटे जा रहे है. साथ ही यह डर भी सता रहा कि कोरोना के कारण चुनाव का स्वरूप क्या होगा. कोई वर्चुअल के गीत गा रहा है तो किसी को इसमें साजिश की बू आ रही है. किसी का भरोसा तो किसी का तिलिस्म टूटता नजर आ रहा है. जो भी हो इस बार के चुनाव में कई मिथकों का टूटना तय दिख रहा है.

वर्चुअल रैली कर सभी प्रमुख पार्टियों ने अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी तो काफी पहले से शुरू कर दी है लेकिन भीड़ व भाषण के दौरान जनता की प्रतिक्रिया न देख पाने का मलाल उन्हें बेचैन कर रहा है. दिग्गज नेता दरअसल भीड़ देखकर भांप जाते थे कि चुनाव का रुख क्या रहेगा. कोरोना के साये में होने वाले इस चुनाव के लिए प्रचार को लेकर संशय की स्थिति पार्टियों को परेशान कर रही है. कई दलों के स्टार प्रचारक रहे नेता भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं. यह देख दूसरे नेता अतिरिक्त सावधानी बरत रहे हैं. उनका तर्जुबा कह रहा है कि चुनावी माहौल में जनता के बीच जाना निहायत जरूरी है लेकिन कोरोना के भय से उनकी हिम्मत जवाब दे जा रही है. राजद के रघुवंश सिंह जैसे करीब आधा दर्जन से अधिक नेताओं को कोरोना की चपेट में आया देख उनके कार्यकर्ताओं व समर्थकों के हौसले भी पस्त हैं. जाहिर है वे चुनावी समां बांधने में जी-जान से नहीं जुट पा रहे.

चुनाव आयोग ने किया बड़ा बदलाव

कोरोना संकट के दौरान देश में होने वाले पहले चुनाव को देखते हुए निर्वाचन आयोग ऐसी गाइडलाइन बनाने की तैयारी कर रहा है जिससे चुनाव के दौरान संक्रमण को फैलने से रोका जा सके. सुरक्षित मतदान की दिशा में एक कदम बढ़ाते हुए आयोग ने 65 वर्ष से अधिक उम्र वाले तथा कोरोना संक्रमित मतदाताओं को पोस्टल बैलेट के जरिए मतदान की सुविधा दे दी है. इस सुविधा का लाभ लेने वाले वोटरों को स्थानीय निर्वाचन अधिकारी के यहां आवेदन करना होगा. देश में पहली बार इस सुविधा का लाभ बिहार के वोटरों को मिलेगा. राज्य में कुल मतदाताओं में 65 पार के करीब 8.3 फीसदी वोटर हैं. आयोग ने बूथों की संख्या में भी वृद्धि कर दी है. करीब 33 हजार नए बूथ बनाने की तैयारी की जा रही है. वोटिंग के दौरान कई ऐसे उपायों पर विचार किया जा रहा है जिससे कोई मतदानकर्मी न तो मतदाता के संपर्क में आए और न ही वोटर चुनावकर्मियों के संपर्क में आ सके. इनमें पोलिंग अधिकारी को शीशे की दीवार के पीछे रखने, ईवीएम को छुए बिना वोट देने, डिस्पोजेबल सीरिंज द्वारा वोटर की अंगुली पर अमिट स्याही लगाने, मतदान केंद्रों को सैनिटाइज करने, मतदाताओं के लिए मास्क व दस्तानों की व्यवस्था करने जैसे उपाय शामिल हैं.

कंटेनमेंट जोन में आयोग वोटरों के घर तक ईवीएम पहुंचाने के विकल्प पर भी विचार कर रहा है. बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी एचआर श्रीनिवास कहते हैं, "मतदान केंद्रों पर वोटरों की सुरक्षा के मद्देनजर कुछ प्रस्ताव भेजे गए हैं. उद्देश्य है कि मतदाता बूथ पर किसी भी वस्तु के संपर्क में न आ सके. इसके लिए तमाम एहतियाती विकल्पों पर विचार किया जा रहा है." जाहिर है, राज्य के एक लाख छह हजार बूथों पर सात करोड़ से ज्यादा वोटरों के द्वारा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए चुनाव की प्रक्रिया को संपन्न कराना चुनाव आयोग के लिए चुनौती भरा काम होगा. राजनीतिक पार्टियों को भी तय अवधि के बीच अतिरिक्त बूथों के लिए एजेंट की व्यवस्था करनी होगी जो उनके लिए सहज नहीं होगा.

पार्टियों को भी कोरोना प्रोटोकॉल के अनुसार वोटरों के बूथ तक आने और फिर सुरक्षित तरीके से उनके घर पहुंचने की चिंता करनी होगी. साफ है कि वोटरों को खासकर ग्रामीण इलाकों में मतदान केंद्रों तक लाने व ले जाने में इन दलों की अप्रत्यक्ष तौर पर बड़ी भूमिका होती है. इधर, आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में सत्ता पक्ष ने एक या दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव दिया तो विपक्ष ने घर-घर जाकर जनसंपर्क करने की अनुमति देने का आग्रह किया. भारतीय जनता पार्टी ने तो मतदाता सूची से आधार कार्ड को लिंक करने के विकल्प पर भी विचार करने का अनुरोध किया है.

विपक्षी गठबंधन में कश्मकश

बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच घात-प्रतिघात का दायरा भी बढ़ रहा है. चुनाव के पहले राज्य के प्रमुख विपक्षी दल व लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को सत्ताधारी पार्टी जनता दल (यू) ने उनके पांच विधान पार्षदों को अपने खेमे में लाकर बड़ा झटका दिया. इसी समय एक बाहुबली नेता व पूर्व सांसद रामा सिंह को राजद में शामिल कराने के मुद्दे पर उनकी पार्टी के दिग्गज रघुवंश प्रसाद सिंह ने पार्टी के पद से इस्तीफा दे दिया हालांकि बाद में रामा सिंह की इंट्री को रोककर तात्कालिक तौर पर पार्टी ने उन्हें मना लिया. ये वहीं रामा सिंह हैं जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर वैशाली सीट पर रघुवंश प्रसाद सिंह को पराजित किया था. वहीं सूत्र बताते हैं कि राजद में तोडफ़ोड़ के बाद जदयू की नजर अब कांग्रेस पर है. कहा जा रहा है कि कांग्रेस के कुछ विधायक पूर्व कांग्रेसी व वर्तमान भवन निर्माण मंत्री डॉ. अशोक चौधरी के संपर्क में हैं. उन्हें ही कांग्रेस में टूट-फूट की जिम्मेदारी दी गई है. कहा जा रहा है कि ये नेता उस समय भी डॉ. चौधरी के साथ ही जदयू ज्वाइन करने की तैयारी में थे.

हालांकि इन सबसे इतर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. मदन मोहन झा कहते हैं, "कुछ विधायक पार्टी की बैठक में नहीं आते हैं लेकिन यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. चुनाव के वक्त टूट-फूट होती ही रहती है. राजद में टूट जदयू की साजिश है. लोकतंत्र में विधायकों-सांसदों को तोड़ना अलोकतांत्रिक व अनैतिक आचरण है. पार्टी महागठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरेगी." वहीं विधान पार्षद प्रेमचंद मिश्रा कहते हैं, "लोकतंत्र की मजबूती के लिए विपक्ष का होना जरूरी है लेकिन भाजपा-जदयू जैसी पार्टियां लोकतंत्र को कमजोर करने पर तुली हुई हैं." दूसरी तरफ महागठबंधन में शामिल हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा (हम) के प्रमुख व पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी महागठबंधन में समन्वय समिति बनाने को लेकर तेजस्वी यादव का खुलेआम विरोध करते आ रहे हैं. हाल में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यों की न सिर्फ सराहना की है और राजद को अल्टीमेटम भी दे दिया. हालांकि मांझी का यह रुख उनके अपने-पराये, दोनों को ही चौंका रहा है. जो भी हो उनका मुक्त चिंतन सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को सुकून दे रहा है.

राजनीति के जानकार महागठबंधन की गतिविधियों को लालू प्रसाद के टूटते तिलिस्म की संज्ञा दे रहे है. हाल के दिनों में तेजस्वी यादव द्वारा राजद के पिछले पंद्रह साल के शासनकाल के दौरान हुई गलतियों के लिए क्षमा मांगने को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि अपने पिता की राजनीति को आजमा कर देख चुके तेजस्वी ने यह मान लिया है कि उस तरह की राजनीति कर राजद को सत्ता में वापस लाना संभव नहीं है. आखिर लालू-राबड़ी के पंद्रह साल के शासन काल के दौरान ऐसी कौन सी गलती की गई थी, जिसके लिए तेजस्वी यादव को माफी मांगने की जरूरत पड़ी.

सत्ताधारी गठबंधन की मुश्किलें

साफ है नीतीश के पंद्रह साल बनाम लालू के पंद्रह साल के मुद्दे ने तेजस्वी को हाल-फिलहाल में काफी परेशान किया है. बीते चुनावों के विश्लेषण से तेजस्वी को यह समझ में आ गया है कि समाज को जात-पांत में बांटने की राजनीति के बजाय विकास, रोजगार व सबको सम्मान देकर ही कुछ हासिल किया जा सकता है. इसी सोच के तहत उन्होंने राजपूत जाति के कद्दावर नेता जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी और एडी सिंह को राज्यसभा का सदस्य बनाकर सवर्णों से बनी दूरी को पाटने की कोशिश की. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग/ एनडीए) में भी सीटों के तालमेल की राह आसान नहीं होगी. 2010 की स्थिति बरकरार रखने के लिए भाजपा-जदयू को अपनी सीटिंग सीट छोड़नी होगी. जदयू-भाजपा के बीच परंपरागत सीटों को लेकर भी मामला फंसने के आसार हैं. ये सीटें दोनों के ही पास गठबंधन के शुरुआत से थीं लेकिन 2015 में राजद-जदयू की दोस्ती के कारण दलगत स्थिति परिवर्तित हो गई.

वहीं इन दोनों बड़ी पार्टियों के बीच फंसी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) भी सीटों के बंटवारे को लेकर द्वंद्व की स्थिति में है. लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान की जदयू से तल्खी भी किसी से छुपी नहीं है. वे कई बार राज्य सरकार की सरेआम आलोचना कर चुके हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा नोटिस नहीं लिए जाने से भी चिराग नाराज रहते हैं. वे राज्य सरकार को पत्र भेजते हैं तो पावती की सूचना भी उन्हें नहीं दी जाती है. सीटों को लेकर भाजपा की सतर्कता भी चिराग को बेचैन कर रही है. यही वजह है कि अपने तल्ख तेवर का एकबार फिर संदेश देने के लिए उन्होंने राजग को अटूट बताने पर मुंगेर जिले के पार्टी अध्यक्ष राघवेंद्र भारती को पद से हटा दिया. हालांकि चिराग इस बात को भली-भांति जानते हैं कि राजग छोड़ने में उनकी भलाई नहीं है क्योंकि महागठबंधन में उनका चेहरा तेजस्वी यादव के बदले बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट हो ही नहीं सकता. राजग (एनडीए) में चेहरे से उन्हें कोई गिला-शिकवा नहीं है. शायद इसलिए वे मुद्दों पर तवज्जो चाहते हैं, जो उन्हें नहीं मिल रही.

अब यह तो समय ही बताएगा कि कोरोना संकट की इस घड़ी में निर्वाचन आयोग किस हद तक सुरक्षित मतदान करा पाने में सक्षम होगा और भीड़ व रैलियों में जनसैलाब देखने की आदी रही पार्टियां कहां तक अपना आत्मविश्वास बरकरार रख जीत का आकलन कर सकने में सफल होंगी. अब बस यही उम्मीद है कि चुनाव के समय तक कोरोना महामारी के कहर में कमी आएगी और लोकतंत्र का पर्व उल्लास से मनाया जा सकेगा.

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