1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
आतंकवाद

अफगानिस्तान में तालिबान के आने से कहीं खुशी कहीं गम

२० अगस्त २०२१

अफगानिस्तान के साथ चीन, भारत, ईरान और पाकिस्तान के अलग-अलग सरोकार रहे हैं. अब तालिबान के सत्ता में आने से कहीं खुशी तो कहीं गम का माहौल है. भारत और चीन के लिए कैसी है ये खबर...

https://p.dw.com/p/3zCNs
तस्वीर: John Macdougall/AFP/Getty Images

चीनी सरकार अब तक अफगान सरकार के पतन और देश में तालिबान कब्जे पर सहज दिखाई दे रही है. चीन के विदेशी मामलों की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने बीते सोमवार को कहा, "अफगानिस्तान में चीनी दूतावास सामान्य रूप से काम कर रहा है और उसके राजदूत और दूतावास के कर्मचारी अपने पदों पर बने रहेंगे."

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट अखबार ने बताया कि अफगानिस्तान में रहने वाले ज्यादातर चीनी नागरिक पहले ही लौट आए थे, लेकिन जो छूट गए हैं वे दूतावास से संपर्क में हैं. प्रवक्ता ने तालिबान के साथ चीन के पहले से स्थापित संबंधों पर भी जोर दिया. उन्होंने कहा कि तालिबान ने चीन के साथ बेहतर संबंध बनाए रखने की इच्छा व्यक्त की है.

उन्होंने कहा, "तालिबान ने कई बार चीन के साथ अच्छे संबंधों की इच्छा व्यक्त की है. तालिबान को उम्मीद है कि चीन अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास प्रक्रिया में भाग लेगा. साथ ही, तालिबान ने कहा है कि वह किसी भी ताकत को चीन को नुकसान पहुंचाने के लिए अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देगा. हम तालिबान की इस इच्छा का स्वागत करते हैं."

उईगुर अलगाववादियों को समर्थन नहीं?

चीनी नेतृत्व विशेष रूप से अफगानिस्तान में इस्लामी आतंकवादियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में उभरने को लेकर चिंतित है. विशेषज्ञों का कहना है कि अतीत में अफगानिस्तान ने तथाकथित पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) के उईगुर अलगाववादी ताकतों को पनाह दी है. इन अलगाववादियों का उद्देश्य चीन के पश्चिमी शिनजियांग प्रांत की जगह पूर्वी तुर्किस्तान नामक एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना था.

संयुक्त राज्य अमेरिका के जर्मन मार्शल फंड में विदेश नीति के विशेषज्ञ एंड्रयू स्मॉल ने डॉयचे वेले को बताया, "यह स्पष्ट है कि अफगानिस्तान में तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी के लड़ाके रहे हैं. चीन अफगानिस्तान में आतंकवाद विरोधी इस गंभीर गतिविधियों को लेकर चिंतित है."

स्मॉल का मानना है कि शिनजियांग के उईगुर चरमपंथियों के प्रति तालिबान का अस्पष्ट रवैया चीन और अफगानिस्तान में बनने वाली सरकार के बीच तनाव पैदा कर सकता है. चीन इन उईगुर चरमपंथियों को कई घातक हमलों के लिए दोषी मानता है.

तालिबान के महिमामंडन पर बिफरीं अफगान महिला नेता

स्मॉल कहते हैं, "सवाल यह है कि क्या यह तालिबान अभी भी वही तालिबान है जो 20 साल पहले सरकार में था. इस समूह के चरमपंथी और आतंकवादी समूहों के साथ इतने गहरे और जटिल संबंध हैं कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि चीन को कितना चिंतित होना चाहिए."

तालिबान ने हाल ही में समूह के प्रतिनिधियों और चीनी अधिकारियों के बीच हुई बैठक में चीन के साथ अच्छे संबंध बनाने की इच्छा व्यक्त की थी. हालांकि, स्मॉल ने चेतावनी दी है कि "उनके रवैये और वादे बदल भी सकते हैं."

विकट परिस्थिति में भारत

भारत ने मंगलवार को अपने सभी राजनयिक कर्मचारियों सहित 190 कर्मचारियों को काबुल से वापस देश में बुला लिया. पिछले कुछ दिनों की नाटकीय घटनाओं और सत्ता पर तालिबान के कब्जे के बाद, भारत की नरेंद्र मोदी सरकार विकट परिस्थिति का सामना कर रही है. भारत दशकों से लगातार तालिबान विरोधी नीति बनाए हुए है.

पीएम मोदी ने तालिबान के नेतृत्व वाले अफगानिस्तान के साथ भारत के संबंध पर आगे की रणनीति बनाने के लिए सुरक्षा को लेकर कैबिनेट समिति की बैठक की अध्यक्षता की. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने डॉयचे वेले को बताया, "हम दिमाग खुले रखेंगे, इंतजार करेंगे और देखेंगे कि सत्ता बदलने की प्रक्रिया के दौरान और बाद में तालिबान वास्तव में क्या करता है. हम यह भी आकलन करेंगे कि पिछले 20 वर्षों के लाभ को समायोजित करने में वे कितने समावेशी हैं."

कुछ पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी है कि तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद अफगानिस्तान में भारत का निवेश खतरे में है. पिछले दो दशकों में, भारत ने अफगानिस्तान के बुनियादी ढांचे के निर्माण में लगभग 3 बिलियन डॉलर (2.6 बिलियन डॉलर) का निवेश किया है. इसमें देश के सभी प्रांतों में 400 से अधिक परियोजनाएं शामिल हैं.

देखिए काबुल की दिल दहलाती  तस्वीरें

हैदराबाद में कौटिल्य स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में विदेश नीति के विशेषज्ञ शांति मैरियट डिसूजा ने डॉयचे वेले को बताया, "पिछले दो दशकों में 3 बिलियन डॉलर देने और अफगान सरकार का समर्थन करने के बाद, भारत शैतान और गहरे नीले समुद्र के बीच फंस गया है."

डिसूजा ने अफगानिस्तान के विभिन्न प्रांतों में सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में काम करते हुए एक दशक से अधिक समय बिताया है. उनका मानना है कि भारत को तालिबान के साथ जुड़ने के लिए व्यवहारिक और चतुर नीति के साथ आगे बढ़ना होगा. वह कहती हैं, "अफगानों के लिए अपनी मौजूदा विकास सहायता को जारी रखने के लिए इस नीति की जरूरत है, ताकि अब तक जो फायदा मिला है उसे बचाया जा सके और मानवीय संकट को रोका जा सके."

रणनीतिक दुविधा में भारत

तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान भी भारत की सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों में से एक है. वर्षों से, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत विरोधी आतंकवादी समूह भारत के खिलाफ हमले करने के लिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में अपने ठिकानों और प्रशिक्षण शिविरों से काम कर रहे हैं.

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद, ये आतंकवादी समूह और मजबूत हो सकते हैं. साथ ही, अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अफगानिस्तान का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर सकते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय की नवनीता बेहेरा ने डॉयचे वेले को बताया, "रणनीतिक रूप से, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पाकिस्तान और चीन के साथ तालिबान के संबंध कैसे विकसित होते हैं. साथ ही, इस बात पर भी निर्भर करेगा कि यह समूह कश्मीर में पाकिस्तान के छद्म युद्ध का समर्थन करता है या नहीं."

पाकिस्तान के लिए एक रोमांचक जीत?

पाकिस्तान या दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान की सेना ने दशकों से तालिबान का समर्थन किया है. यह सिर्फ भारत के साथ पाकिस्तान के संघर्ष में "रणनीतिक गहराई" हासिल करने तक सीमित नहीं है. अब जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, तो क्या यह पाकिस्तान के लिए अच्छी खबर है? दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ मदीहा अफजल जैसे विशेषज्ञ कहते हैं, "यह पूरी तरह से पाकिस्तान के लिए अच्छी खबर नहीं है."

अफजल ने डॉयचे वेले को बताया, "पाकिस्तान को तालिबान शासित अफगानिस्तान के साथ सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का सामना करना पड़ेगा. मुख्य रूप से उत्साहित और फिर से मजबूती के साथ खड़ा होने वाले आतंकवादी समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से. इस आतंकवादी समूह पर हजारों पाकिस्तानियों को मारने का आरोप है."

अफजल आगे कहते हैं, "अफगानिस्तान के घटनाक्रम से पाकिस्तान के भीतर अन्य कट्टरपंथी समूहों को भी बढ़ावा मिल सकता है. इस तरह से वे समूह पहले से ज्यादा ताकतवर हो सकते हैं और देश के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं."

वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि 1996-2001 की समय सीमा की तुलना में अब पाकिस्तान का तालिबान पर कम प्रभाव होगा." वे इशारा करते हैं कि आतंकवादी समूह ने अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल कर ली है, क्योंकि उसने दोहा में अमेरिका के साथ एक समझौता किया है. इसलिए उसे पहले की तुलना में अब पाकिस्तान की कम जरूरत है.

ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर क्लाउड राकिसिट्स कहते हैं कि पाकिस्तान मुख्य रूप से अफगानिस्तान के नए नेतृत्व के साथ अपने भविष्य के संबंधों को लेकर एक चीज चाहता है. वह यह कि उसे अफगान धरती पर टीटीपी के सुरक्षित ठिकानों से शुरू किए गए सीमा पार के आतंकवादी हमलों से सुरक्षा मिले.

तालिबान को ताकत कहां से मिलती है

राकिसिट्स कहते हैं, "मूल रूप से, पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ बेहतर संबंध चाहता है, ताकि उसे अपनी पश्चिमी सीमा और अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकानों से होने वाले संभावित आतंकवादी हमलों से निजात मिले."

वह आगे कहते हैं, "पाकिस्तान यह भी चाहता है कि अफगानिस्तान चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) परियोजना में शामिल हो. वह चाहता है कि अफगानिस्तान चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के इस अरबों डॉलर की परियोजना के साथ जुड़ जाए." हालांकि, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अफगानिस्तान के संबंध चीन के साथ कैसे आगे बढ़ते हैं.

अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को मान्यता देने के बारे में, पाकिस्तान के सूचना मंत्री फवाद चौधरी ने कहा कि तालिबान प्रशासन की कोई भी मान्यता क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के साथ परामर्श के बाद लिया गया एक "क्षेत्रीय निर्णय" होगा. उन्होंने कहा, "हम विश्व स्तर पर और क्षेत्रीय रूप से अपने दोस्तों के संपर्क में हैं और हम उनसे परामर्श करने के बाद निर्णय लेंगे."

ईरान को सता रहा शरणार्थियों का डर

ऐसा लगता है कि ईरान में अफगानिस्तान की हाल की घटनाओं को लेकर मिली-जुली भावनाएं हैं. एक तरफ वह अपने पड़ोस से अमेरिकी सेना को बाहर निकलते देख खुश है, तो दूसरी ओर अफगानिस्तान में सुरक्षा और स्थिरता को लेकर चिंतित है.

वर्तमान में, लगभग साढ़े सात लाख अफगान शरणार्थी आधिकारिक तौर पर ईरान में पंजीकृत हैं. देश में 20 लाख से अधिक अफगान अवैध रूप से रहते हैं, और अब हजारों की संख्या में लोग तालिबान से भाग रहे हैं. ईरान और अफगानिस्तान के बीच 950 किलोमीटर की लंबी सीमा रेखा है. ईरान अफगान शरणार्थियों और शरण चाहने वाले लोगों की बढ़ती संख्या से चिंतित है.

ईरानी अधिकारियों का कहना है कि उन्होंने सीमा पर तीन जगहों पर शरण लेने आने वाले लोगों के लिए ठहरने की व्यवस्था की है. सरकार के प्रवक्ता होसैन कासेमी ने कहा, "जैसे ही मौजूदा स्थिति स्थिर होगी, शरणार्थी और शरण चाहने वाले लोग वहां से अपने घरों को लौट सकेंगे."

इसके अलावा, ईरान और तालिबान के बीच हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रहे हैं. ईरान की शिया सरकार और सुन्नी तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच वर्षों से चली आ रही द्विपक्षीय वार्ता के बावजूद, ईरान में उनके प्रति नफरत की भावना है.

1998 में, ईरान ने तालिबान के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू किया था. तालिबान ने आठ ईरानी राजनयिकों और आधिकारिक समाचार एजेंसी आईआरएनए के एक संवाददाता को उत्तरी अफगान शहर मजार-ए शरीफ में ईरानी वाणिज्य दूतावास में मार डाला था. उनकी हत्या 8 अगस्त को की गई थी. यह दिन अभी भी ईरान में "पत्रकार दिवस" के रूप में मनाया जाता है.

रिपोर्टः हान्स सप्रोस

तस्वीरेंः 20 साल में औरतों के लिए अफगानिस्तान में क्या बदला

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी