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गांधी को कैसे याद करता है पाकिस्तान

स्वाति मिश्रा
१२ अगस्त २०२२

भारत को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं. आजादी की इस 75वीं सालगिरह पर इस लेख में हम आजादी के सबसे बड़े नायकों में से एक महात्मा गांधी की स्मृतियां टटोल रहे हैं. खासतौर पर, आधुनिक पाकिस्तान के संदर्भ में.

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Vorschaubild Dokus KW 31 | Gandhi
पारंपरिक तौर पर पाकिस्तान में गांधी की छवि एक 'हिंदू नेता' की रही है. इसकी एक मुख्य वजह जिन्ना के साथ उनके राजनैतिक और वैचारिक मतभेद भी हैं. तस्वीर: DW

"गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाता है. लेकिन अगर ऐसा है, तो पिता के अपने कर्तव्य का पालन करने में वो विफल रहे हैं क्योंकि विभाजन को सहमति देकर उन्होंने देश को धोखा दिया है. मैं दृढ़ता से कहता हूं कि गांधी अपने कर्तव्य में विफल रहे हैं. वह पाकिस्तान के राष्ट्रपिता सिद्ध हुए हैं."

30 जनवरी 1948 की शाम दिल्ली के बिड़ला हाउस की सीढ़ियों पर गांधी की हत्या कर दी गई. उन्हें गोली मारने वाले का नाम था, नाथूराम गोडसे. उस पर मुकदमा चला. नवंबर 1948 में कोर्ट के आगे अपने पक्ष में दलील पेश करते हुए गोडसे ने 92 पन्नों का एक लिखित बयान पढ़ा. ऊपर लिखी पंक्तियां इसी बयान का हिस्सा बताई जाती हैं.

"वाय आई किल्ड गांधी" नाम की किताब, जिसका लेखक गोडसे को बताया जाता है, उसे पढ़ते हुए आपको दो प्रमुख कीवर्ड मिलेंगे- पाकिस्तान और मुस्लिम (तुष्टीकरण). बकौल गोडसे, ये वो प्रमुख कारण थे जिनके चलते उसने गांधी की हत्या की थी.

गांधी का आखिरी उपवास और पाकिस्तान

गांधी ने अपने सक्रिय राजनैतिक जीवन में कई उपवास किए. उनके लिए ये आत्मा की शुचिता का एक तरीका था. अपनी हत्या से 17 दिन पहले 13 जनवरी 1948 की दोपहर सवा 11 बजे भी उन्होंने एक उपवास शुरू किया था. ऐसा उपवास, जो तब तक चलता, जब तक वो जिंदा रहते. ये उनके जीवन का आखिरी व्रत साबित हुआ. गांधी ने बिगड़ते सामाजिक सौहार्द और बढ़ती सांप्रदायिक नफरत को अपने उपवास का कारण बताया.उन्होंने कहा कि उनका व्रत भारत और पाकिस्तान, दोनों ओर के अल्पसंख्यकों की ओर से है.

इसके अलावा एक और चीज थी, जिससे गांधी नाराज थे. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन ने कई देशों से स्टर्लिंग बैलेंस लिया था. समूचे स्टर्लिंग बैलेंसेज का 40 फीसदी हिस्सा भारत से लिया गया था. ब्रिटेन को ये पैसा अविभाजित भारत को लौटाना था. आजादी के बाद भारत को इसमें से पाकिस्तान का हिस्सा उसे देना था. पाकिस्तान के कश्मीर पर किए हमले के बाद भारत इसे देने में देर कर रहा था. बताया जाता है कि गांधी इससे खुश नहीं थे.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब "गांधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड" के मुताबिक, उपवास के तीसरे दिन, यानी 15 जनवरी की शाम तक गांधी काफी कमजोर हो गए थे. उन्हें उपवास खत्म करने के लिए मनाने की सारी कोशिशें नाकाम हो रही थीं. ऐसे में उसी रोज खबर आई कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार पाकिस्तान का बकाया भुगतान देने को राजी हो गई थी. इसे उन्होंने गांधी के अहिंसक और महान प्रयासों के प्रति अपना योगदान बताया. 17 जनवरी की शाम, उपवास खत्म होने से एक रोज पहले गांधी ने प्रार्थना सभा में पहुंचकर उन सभी लोगों का धन्यवाद किया, जिन्होंने उन्हें शुभकामनाएं देते हुए, उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए उन्हें संदेश भेजे थे. इनमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों से आए संदेश शामिल थे.

पाकिस्तान पर गांधी के विचार

आज के भारत और पाकिस्तान, दोनों अविभाजित भारत का हिस्सा थे. गांधी पाकिस्तान बनाए जाने की मांग और जरूरत, दोनों से सहमत नहीं थे. 1946 में हरिजन के अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था, "मुझे विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो मांग उठाई है, वो पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसे पापपूर्ण कृत्य कहने में कोई संकोच नहीं है. इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है, ना कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का. जो तत्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम के शत्रु हैं. भले ही वो मेरी देह के टुकड़े कर दें, किंतु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूं."

इन्हीं गांधी ने अक्टूबर 1947 में ये भी लिखा, "ताकत का इस्तेमाल करके पाकिस्तान को नष्ट करना स्वराज को नष्ट करने जैसा होगा." अपने जीवन के आखिरी दिनों में वो पाकिस्तान जाना चाहते थे, ताकि वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों के लिए काम कर सकें. वैसे ही, जैसे वो भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों और सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिशों में लगे थे. उन्होंने कहा था, "मेरी वहां मृत्यु भी हो जाती है तो मुझे खुशी होगी."

हिंदू नेता की छवि!

गांधी के जीवन से ये बात साफ है कि वो मुस्लिम-विरोधी नहीं थे. उन्होंने पाकिस्तान बनाए जाने का विरोध किया क्योंकि उनके मुताबिक, आजाद भारत में हिंदू और मुसलमान समेत सभी धर्मों और समुदायों की बराबर जगह थी. वो सामुदायिक एकता के समर्थक और सांप्रदायिक नफरत के विरोधी थे. मगर पाकिस्तान में आमतौर पर गांधी की छवि अलग है. प्रचलित राय में उन्हें एक हिंदू लीडर समझा जाता है, जो "हिंदुओं की पार्टी" कांग्रेस के मार्गदर्शक थे. और, कांग्रेस अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में "हिंदू राज" कायम करना चाहती थी.

जैसा कि "म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग वील: महात्मा गांधीज मैनिफेस्टो फॉर द इंटरनेट ऐज" के लेखक सुधींद्र कुलकर्णी अपने एक लेख में लिखते हैं, "ये सच है कि गांधी किसी हिंदू संत की तरह दिखते और बर्ताव करते थे, और कभी-कभी राम राज्य जैसे हिंदू धार्मिक मुहावरों का इस्तेमाल करते थे. पाकिस्तान समर्थक कैंपेनर्स ने इन बातों को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया." इसके अलावा मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उनके राजनैतिक और वैचारिक मतभेदों को भी पाकिस्तान और मुस्लिम-विरोधी समझ लिया जाता है.

कराची से इस्लामाबाद कैसे पहुंची गांधी प्रतिमा

इस 'गलतफहमी' को आप गांधी की एक मूर्ति के साथ हुए घटनाक्रम से समझ सकते हैं. 1931 में इंडियन मर्चेंट्स असोसिएशन ने कराची के भीतर गांधी की एक कांसे से बनी प्रतिमा लगवाई. जिस जगह मूर्ति लगाई गई, उसका नाम तब किंग्स वे हुआ करता था. अब इस जगह का नाम कोर्ट रोड है. प्रतिमा के नीचे लिखा था, "महात्मा गांधी, स्वतंत्रता, सत्य और अहिंसा की नामी शख्सियत."

आजादी के तीन साल बाद 1950 में एक दंगे के दौरान ये मूर्ति तोड़ दी गई. 1981 में मूर्ति के टूटे टुकड़े कराची स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास के सुपुर्द कर दिए गए. भारतीय अथॉरिटीज ने इसकी मरम्मत करवाई और इसे इस्लामाबाद के इंडियन हाई कमीशन परिसर में लगाया. ये मूर्ति पाकिस्तान की जमीन पर होकर भी वहां नहीं है.

हालांकि पाकिस्तान में गांधी की ये अकेली मूर्ति नहीं है. वहां राजधानी इस्लामाबाद में नैशनल मॉन्यूमेंट म्यूजियम है. यहां गांधी और जिन्ना, दोनों की मूर्तियां आमने-सामने खड़ी हैं. गांधी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया हुआ है और जिन्ना की हथेलियां भी सामने की ओर हैं. दोनों मूर्तियों की मुद्रा ऐसी है, मानो उनके बीच किसी मुद्दे पर बात या बहस हो रही हो.

पाकिस्तान में गांधी की स्मृति पर हमने वहां के इतिहासकार मुबारक अली से बात की. उन्होंने कहा, "गांधी भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच समझौता चाहते थे. वो चाहते थे कि लड़ाई और संघर्ष की जगह दोनों समुदायों में समझौता हो. इसके मुकाबले मजहबी जमातें संघर्ष चाहती थीं. चूंकि संघर्ष के जरिये वो जल्द स्वीकार्यता और लोकप्रियता हासिल करना चाहती थीं. ये दोनों मुल्क आजाद तो हो गए, लेकिन गांधी का अहिंसा और मिल-जुलकर रहने का जो सिद्धांत था, वो आगे चलकर नाकाम हो गया. इतिहास में बहरहाल उनका एक किरदार है, उनका एक हिस्सा है, जिसका जिक्र करना जरूरी है."

जब बैन हुई ऐटनबोरो की गांधी

जिक्र के लिए जानकारी की उपलब्धता जरूरी है. अब तो इंटरनेट ने जानकारियों तक हमारी पहुंच बढ़ा दी है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था. उसी दौर का एक प्रसंग है. नवंबर 1982 में रिचर्ड ऐटनबोरो की मशहूर फिल्म 'गांधी' रिलीज हुई. उन दिनों पाकिस्तान में सैन्य-तानाशाही थी. उसने इस फिल्म को बैन कर दिया. कइयों को शिकायत थी कि फिल्म में जहां जिन्ना को खलनायक की तरह पेश किया गया है, वहीं गांधी के चित्रण में उनकी आलोचनाओं को जगह नहीं दी गई है.

ऐरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में इतिहास के एक प्रोफेसर थे, बी आर बर्ग. उन दिनों वो इस्लामाबाद की कायद-ए-आजम यूनिवर्सिटी में भी पढ़ा रहे थे. उन्होंने इस प्रकरण पर "द वॉशिंगटन पोस्ट" में छपे अपने लेख में लिखा, "पाकिस्तान शायद धरती पर अकेला देश है, जहां मोहनदास गांधी को एक धर्मनिरपेक्ष संत की प्रजाति का नहीं माना जाता है. पाकिस्तान के सबसे बड़े सरकारी अधिकारियों से लेकर सबसे जूनियर पत्रकारों तक, सबसे ये पंक्ति सुनाई दी कि गांधी हिपोक्रेट थे, पक्के मैनिपुलेटर थे. ऐसे इंसान थे, जो आजादी मिलने के बाद भारत के मुसलमानों के ऊपर हिंदू राज कायम करने के लिए प्रतिबद्ध थे."

वो कौन थी? सीजन 2 एपिसोड 5: भीकाजी कामा