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सदियों पुरानी बुनियाद पर टिके हैं भारत-जर्मन संबंध

१४ अगस्त २०१७

भारत की आजादी को 70 साल हो गये हैं. सरकारी सतह पर भारत के साथ जर्मनी के दोतरफा संबंध भी लगभग इतने ही पुराने हैं. लेकिन बात जहां तक भारत और जर्मनी के लोगों के आपसी संपर्क की है तो वह कई सदियों से रहे हैं.

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ITB Berlin - Partnerland Indien Tänzerin Suhana Reddy
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R. Jensen

भारत की आजादी को 70 साल हो गये हैं. सरकारी सतह पर भारत के साथ जर्मनी के दोतरफा संबंध भी लगभग इतने ही पुराने हैं. लेकिन बात जहां तक भारत और जर्मनी के लोगों के आपसी संपर्क की है तो वह कई सदियों से रहे हैं.

भारत और जर्मनी के बीच 1951 में राजनयिक संबंध कायम हुए. आम तौर पर इसी को द्विपक्षीय संबंधों की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है. लेकिन बीते दशकों में दोनों देशों ने बस उस सिलसिले को आगे बढ़ाया है जिसकी शुरुआत सदियों पहले जर्मन और भारतीय लोगों के निजी संपर्क के रूप में हुई थी. इसको जानने के लिए हमें लगभग 500 साल पीछे जाना होगा. जब वास्कोडिगामा ने समंदर के रास्ते भारत की खोज की, तो दक्षिणी जर्मनी के कुछ कारोबारी घराने भी पुर्तगालियों के मसाले के कारोबार में शामिल हो गये. 1509 में जर्मन भाषा में ऐसी पहली किताब छपी जो भारत के बारे में थी. एक कारोबारी एजेंट ने इस किताब में समंदर के रास्ते मालाबार के तट तक पहुंचने की अपनी यात्रा का वृत्तांत लिखा.

अन्य यूरोपीय देश जहां भारत में ईस्ट इंडिया जैसी कंपनियां शुरू कर रहे थे, वहीं जर्मनी ऐसा करने में नाकाम रहा. इसकी वजह उस समय जर्मनी की आर्थिक कमजोरियां और राजनीतिक व्यवधान थे. जर्मनी ने उपमहाद्वीप में अपना कोई उपनिवेश नहीं बनाया.

जर्मन लोग 16/17वीं सदी में पहली बार भारत पहुंचे, पुर्तगाली और डच लोगों की मदद करने के लिए कारोबारी, नाविक या फिर मिशनरीज बन कर. एक जर्मन मिशनरी (jesuits) ने संस्कृत व्याकरण का संकलन किया. वह ऐसा करने वाला पहला यूरोपीय व्यक्ति था. डैनिश राजा के कहने पर प्रोटेस्टैंट मिशनरीज 1706 में त्रांकुएबार पहुंचे (जो अब मौजूदा तमिलनाडु में है और जिसे थरंगमबाड़ी के नाम से जाना जाता है.) कोरोमंडल तट पर एक व्यापारिक पोर्ट था.

18वीं सदी में हाले न सिर्फ जर्मनी में बल्कि पूरे यूरोप में अकेली ऐसी जगह थी जहां द्राविड़ियन भाषाओं में किताबें छपती थीं. दो जर्मनी मिशनरी बार्तोलोमैउस सीगेनबाल्ग और हाइनरिष प्लूचाऊ ने तमिल और तेलुगु में शब्दकोश और व्याकरण की किताबें लिखीं. वे इसी हाले शहर से नजदीकी तौर पर जुड़े थे. इन लोगों ने दक्षिण भारत के धर्म, रीति रिवाजों, वनस्पतियों, जीव जंतुओं और जलवायु के बारे में लिखा. उन्होंने वहां लड़कियों का स्कूल और अनाथालय खोला.

यह महज संयोग ही है कि भारत की आजादी की 70वीं वर्षगांठ से महीने भर पहले ही त्रांकुएबार में एक छोटा सा म्यूजियम खुला है जहां इन दोनों जर्मन मिशनरीज के योगदान और उनके निष्पक्ष नजरिये को संजोया गया है. सीगेनबाल्ग भारत के इस हिस्से में रहने वाले लोगों के दर्शन और धर्म को यूरोप के दर्शन और धर्म के बराबर ही मानते थे. ये ऐसी बात थी जो उस समय सुनने को नहीं मिलती थी और सीगेनबाल्ग के बहुत से समकालीन लोगों की राय इससे अलग थी. यह दोनों मिशनरी नस्ली अहंकार की संकीर्ण सोच से मुक्त थे. यहां तक कि जर्मनी में उन्हें इस संदेह की नजर से देखा जाता था कि वे उन्हें मिले मिशनरी निर्देशों की अनदेखी कर रहे हैं.

1791 में कालिदास के "शाकुंतलम" का जर्मन संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसके व्यापक परिणाम देखने को मिले. यह प्राचीन भारत के साथ जर्मन विद्वानों के व्यवस्थित और विद्वत्तापूर्ण आदान-प्रदान की शुरुआत थी. संस्कृत का अध्ययन और शिक्षण, भाषा और धर्म का तुलनात्मक अध्ययन क्लासिक जर्मन भारत विद्या यानी इंडोलोजी की पहचान बन गया, जो मैक्स म्यूलर के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है. मैक्स म्यूलर और उनके समकालीन दूसरे लोगों ने बताया कि भारतीय संस्कृति को ग्रीको-रोमन जैसी संस्कृति ही माना जा सकता है. उन्होंने कहा कि भारतीय और यूरोपीय भाषाओं का मूल एक ही है. इस ज्ञान ने "अर्ध-सभ्य" या पूरी तरह सभ्य न होने की भारत की औपनिवेशिक छवि को तार तार कर दिया और उस दौर के नये नवेले उपनिवेश विरोधी आंदोलन ने इसका स्वागत किया.

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तस्वीर: Fotolia/Dmitry Chernobrov

19वीं सदी के आखिरी दशकों में जर्मनी और भारत के संपर्क अपने उच्चतम स्तर पर थे, जब भारत विज्ञान, उद्योग, व्यापार और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय होने लगा और वहां पर्यटन की शुरुआत हुई. लेकिन संख्या के लिहाज से देखें तो भारत में जर्मन लोगों की सबसे बड़ी मौजूदगी उस वक्त एकदम खत्म हो गयी जब पहला विश्व युद्ध छिड़ गया. 1920 के दशक के मध्य से संपर्क नये सिरे से शुरू हुए, लेकिन वे उस तरह की गति नहीं पा सके. और इसके बाद फिर उनमें जबरदस्त गिरावट आयी और 1939 के बाद से तो वे ठहराव का ही शिकार हो गये.

19वीं सदी से लेकर 20सदी के आने तक भारतीय और जर्मन लोगों का आपसी संपर्क कमोबेश भारतीय सरजमीन पर ही हुआ. 20वीं सदी के पहले 50 वर्षों में भारतीय विभिन्न कारणों से जर्मनी का रुख करने लगे. कोई छात्र के तौर पर आया तो कोई स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिनिधि के रूप में या फिर वैज्ञानिक, शिक्षाशास्त्री और कलाकार के तौर पर भी बहुत से लोग जर्मनी आये और कई सालों तक यहां रहे. भारत के पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन और समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने तो जर्मनी में रह कर पढ़ाई की है. हमारे पारस्परिक संपर्कों के बहुत से अध्यायों की तरह यह भी एक ऐसा अध्याय है जिसे लिखा जाना बाकी है.

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तस्वीर: Indo German Chamber of Commerce

दूसरे विश्व युद्ध के बाद बदली अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में भारत ने दोनों जर्मन देशों के साथ अपने संबंध कायम किये. 1990 में उनके एकीकरण के बाद भारत के साथ संबंध राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक-वैज्ञानिक क्षेत्रों में मजबूत हुए. भारत की आजादी के इन 70 सालों में जर्मनी के साथ उसके रिश्ते न सिर्फ व्यापक संस्थागत आधार और सरकारी तथा सामाजिक स्तर पर हुए समझौते पर टिके हैं, बल्कि उनके पीछे दोनों देशों के लोगों के सदियों पुराने शांतिपूर्ण और पारस्परिक लाभदायक संपर्कों की बुनियाद भी है.

योआखिम ओएस्टरहेल्ड(लेखक जर्मनी के जाने माने भारतविद् हैं.)