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हिमालय में जगह जगह गूंजती है कॉर्बेट की चेतावनी

हृदयेश जोशी
२४ जुलाई २०२०

आज पर्यावरण खतरे में है और लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं. ऐसे में शिकारी से संरक्षक बने जिम कॉर्बेट की भविष्यवाणी सिर्फ बाघ या वन्य जीवों के लिए ही नहीं पूरे हिमालय के लिए गंभीर चेतावनी लगती है.

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Sharda Fluss Indien Nepal
तस्वीर: CC BY-rajkumar1220

अपनी मशहूर किताब "मैन-ईटर्स ऑफ कुमाऊं” की शुरुआत में जिम कॉर्बेट ने बाघ को लेकर ऐसी टिप्पणी की जो अब तक हम पर किसी गंभीर चेतावनी की तरह मंडराती रही है. इस टिप्पणी का मूल सार है कि जिस दिन खूबसूरत बाघ हिन्दुस्तान की सरजमीन से खत्म हो जायेगा, वो दुनिया का सबसे गरीब और बदनसीब मुल्क होगा. कॉर्बेट ने ये टिप्पणी उस दौर में बाघों के अंधाधुंध शिकार की वजह से की होगी लेकिन आज हिन्दुस्तान में बाघ या तेंदुए ही नहीं तमाम वन्य जीव और वनस्पतियों के अस्तित्व पर खतरा है और इसके साथ ही उन आदिवासियों और समुदायों का भी जो इन जंगलों पर आश्रित हैं.

शिकारी से संरक्षक बनने का सफर

कुछ अपवादों को छोड़कर जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन में नरभक्षी बाघों और तेंदुओं का ही शिकार किया. यह दौर 1907 से लेकर 1938 तक का है जब उन्हें बार-बार आदमखोर जानवरों के पीछे जाना पड़ा. कार्बेट की कहानियों और सरकारी दस्तावेजों को पढ़ने से पता चलता है यह काम इस दक्ष शिकारी के लिये आनंददायी तो कतई नहीं रहा. उनके जीवन का करीबी अध्ययन करने वाले बताते हैं कि 1930 आते-आते कॉर्बेट के हाथ में बंदूक की जगह कैमरे ने ले ली थी. उन्हें स्थानीय और बाहरी शिकारियों का जंगल में जाना कतई पसंद नहीं था.

कॉर्बेट के जीवनी लेखक दिनेश चंद्र काला ने कई वाकयों का जिक्र किया है जो बताते हैं कि 1930 के दशक में कॉर्बेट किस तरह शिकारियों को न केवल नापसंद करने लगे बल्कि उनके खिलाफ आक्रामक हो चले थे. एक बार सेना के कुछ अधिकारियों ने पक्षियों के झुंड पर लगातार फायरिंग कर 300 से अधिक परिंदों को मार डाला. कॉर्बेट के लिए यह एक "घृणा पैदा करने वाला” एहसास था और उन्होंने तय किया कि वह सिर्फ कैमरे से ही "शूट” करेंगे.

उसके बाद करीब 10 साल तक जिम कॉर्बेट जंगल में कैमरा लिए घूमते रहे लेकिन उन्हें अपने मन मुताबिक तस्वीर नहीं मिल पाई. आखिर में 1938 में कॉर्बेट ने कालाढूंगी के पास जंगल में ही स्टूडियो बनाया जहां उनके द्वारा लिया गया सात बाघों का वीडियो विश्व विख्यात है जो ब्रिटिश नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में संरक्षित है. लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि जिम कॉर्बेट का उतना ही जुड़ाव इन कठिन इलाकों में रहने वाले इंसानों से भी था जिनके लिए जंगल और पूरे पर्यावरण का कितना महत्व है, वह कॉर्बेट जानते थे.

Indien Jim Corbetts Haus in Uttarakhand
जिन कॉर्बेट का घर अब संग्रहालय हैतस्वीर: Hridayesh Joshi

लोगों में चेतना लेकिन सुस्त रही सरकार

हिमालयी क्षेत्र में वन संपदा और पर्यावरण के लिए लोगों में जागरूकता बहुत पहले से रही है. चिपको आंदोलन का नाम तो दुनिया भर में लोग जानते हैं लेकिन वनांदोलनों का इतिहास उत्तराखंड में बहुत पुराना है. उसी तरह जैसे देश के दूसरे हिस्सों में जंगल, झरनों और नदियों को बचाने के लिये संघर्ष होते रहे, जैसे झारखंड और मध्य भारत समेत देश में कई जगह आदिवासी लड़ते रहे वही संघर्ष हिमालयी क्षेत्र में भी जिंदा था. साल 1930 में टिहरी रियासत के खिलाफ तिलाड़ी विद्रोह हुआ जिसके बाद लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा भड़का और जंगलों में अपने हक-हकूकों के लिये संघर्ष तेज हुआ. वहीं 1942 में सल्ट की क्रांति हुई जिसमें कई आंदोलनकारी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुए और महात्मा गांधी ने सल्ट को "कुमाऊं की बारदोली” कहा.

पिछले 40 सालों से उत्तराखंड के तमाम आंदोलनों को करीब से देखने वाले चारु तिवारी कहते हैं, "पर्यावरण के प्रति स्थानीय लोगों में इस जागरूकता ने सरकारों को वक्त-वक्त पर झकझोरा भले ही हो लेकिन प्रशासनिक स्तर पर स्थायी चेतना या जागरूकता का अभाव बना रहा. लोगों के बीच यह बहस तेज हुई कि जल, जंगल, वनस्पतियों और वन्य औषधियों को संसाधन की जगह प्राकृतिक धरोहर कहा जाए ताकि समाज में दोहन की जगह उन्हें बचाने का भाव पैदा हो.”

1960 में चला हिमालय बचाओ आंदोलन इसी फलसफे से जन्मा जिसमें समाजवादी विचारधारा का बड़ा रोल था. दलाई लामा ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर "हिमालय बचाओ” के नारे और संघर्ष का समर्थन किया. जनसंघ के एक बड़े नेता ऋषिबल्लभ सुंदरियाल ने 1962 में "हिमालय बसाओ” का आह्वान किया जो लोगों को पहाड़ में रोकने की दिशा में एक कदम था.

पर्यावरण और जन जीवन पर संकट

वन्य जीवों के संरक्षण के लिये कानून लाने में काफी देर हुई और जब 1972 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट आया तो वह सख्ती से लागू नहीं हुआ. तस्कर जंगल में जानवरों का अवैध शिकार करते रहे और उसी जंगल में रहने वाले आदिवासी और दूसरे लोगों को अधिकारों से वंचित रखा गया. जब सरकार ने 1980 का वन संरक्षण कानून लागू किया और नंदा देवी घाटी को "संरक्षित नेशनल पार्क” घोषित किया तो उसकी मार आम लोगों पर ही पड़ी जबकि जंगल के विनाश की वजह बड़े व्यापारियों का लालच और पर्यटकों की लापरवाही थी.

उत्तराखंड में कई आंदोलनों का हिस्सा रहे धन सिंह राणा कहते हैं, "सबको चिंता थी कि नंदा देवी में कितना कचरा फैल गया है लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि यह कचरा किसने फैलाया है. सरकार ने पूरा जंगल ही हमारे लिए बंद कर दिया. फॉरेस्ट गार्ड यहां के नये राजा बन गये और गांव वालों को धमकाने लगे.”

Indien Frauen in Uttarakhand
लोग अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैंतस्वीर: Hridayesh Joshi

अड़ियल सरकार और लोगों का संघर्ष

शनिवार, 25 जून को कॉर्बेट प्रेमी उनका 146वां जन्मदिन मना रहे हैं लेकिन जिस हिमालय से कॉर्बेट को लगाव था वह खतरे में है और पहाड़ी बाशिंदे अपने अधिकारों के लिए अभी भी लड़ रहे हैं. फिर भी सरकार पर्यावरण और लोगों के अधिकारों के लिए बने कानूनों को लगातार कमजोर कर रही है.

सरकार ने अभी पर्यावरणीय आकलन प्रभाव (ईआईए) के नए नियमों को जल्दबाजी में पास कराने की कोशिश की है. लोगों का कहना है कि बदलावों पर सुझाव देने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया जा रहा. इसे लेकर कड़ा विरोध हुआ और विरोध के बाद सरकार ने पहले पर्यावरण से जुड़ी दो वेबसाइट्स पर पाबंदी लगाई और एक अन्य वेबसाइट को तो आतंकवाद विरोधी कानून यूएपीए के तहत पुलिस ने नोटिस भेजा. जब इसका विरोध हुआ तो पुलिस ने अपनी "गलती” का हवाला देते हुए नोटिस को वापस लिया लेकिन आईटी एक्ट के तहत वेबसाइट को फिर से नोटिस भेजा गया.

उत्तराखंड के जन आंदोलनकारी पीसी तिवारी कहते हैं कि पहाड़ में कई आंदोलनकारी या तो जेल में हैं या उन पर मुकदमे चल रहे हैं. फिर भी वनांदोलनों का दौर रुका नहीं है और लोग अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं. आज राजनीतिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारियों के साथ सभी लोग 2006 में बने वन अधिकार कानून (फॉरेस्ट राइट्स एक्ट) को ईमानदारी से लागू करने की मांग कर रहे हैं.

कांग्रेस पार्टी ने नेता और सामाजिक कार्यकर्ता किशोर उपाध्याय कहते हैं कि इसी कानून के तहत वनाधिकारों के लिए उनके साथ कई लोग गांव गांव जागरूकता अभियान चला रहे हैं. उपाध्याय का कहना है, "जो भी नेशनल पार्क या संरक्षित हिस्से हैं उन्हें बचाना जरूरी है लेकिन उसके साथ वहां रहने वाले लोगों को निजी और सामुदायिक अधिकार दिया जाना भी कानूनी बाध्यता है. यही भावना वन अधिकार कानून के पीछे रही है. लेकिन जहां बांधों और माइनिंग के लिए जंगल खोले जा रहे हैं वहीं लोगों को उनके वन अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. सरकार ने लोगों का चूल्हा बुझाने का इंतजाम कर दिया है और लेकिन रोजगार और रोजी-रोटी का जरिया भी देना होगा. सरकार को समझना चाहिए कि अगर लोग जिंदा रहेंगे तो वही वन्य जीवों और पर्यावरण को भी जिंदा रखेंगे.” स्पष्ट है कि कॉर्बेट ने जो चेतावनी बाघों और तेंदुओं के भविष्य को लेकर दी थी वह आज पूरे पारिस्थितिक तंत्र के लिए अलार्म है और इसे गंभीरता से लेना बहुत जरूरी है.

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