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शरणार्थी से कुली तक

३० जुलाई २०१३

"अफ्रीकी मूल के शरणार्थियों को एक घंटे के लिए एक यूरो" अखबारों की इस हेडलाइन ने जर्मनी में हलचल मचा दी है. आम लोगों को पता चला है कि उनके देश में शरणार्थियों की क्या हालत है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मन राज्य बाडेन व्युर्टेम्बर्ग के शहर श्वेबिश ग्मुंड की सरकार को हाल में एक तरकीब सूझी. मेयर ने सोचा कि शहर में आए शरणार्थियों को कुली के काम में लगाया जा सकता है. उन्हें सामान ढोने के लिए एक यूरो पांच सेंट यानी करीब 75 रुपये दिए जाते हैं.

सोशल मीडिया और स्थानीय अखबारों में पाठकों ने मेयर पर आरोप लगाया है कि वह नस्लवादी हैं और नव उपनिवेशवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन रूढ़िवादी क्रिस्टियन डेमोक्रेटिक पार्टी सीडीयू के मेयर रिचर्ड आर्नोल्ड का कहना है कि वह इस तरकीब से दो परेशानियों को एक साथ सुलझाना चाहते थे. पहली परेशानी शहर का रेलवे स्टेशन है जहां निर्माण काम हो रहा है. इसकी वजह से यात्रियों को सीढ़ियों का इस्तेमाल करना पड़ता है और सामान भारी होने पर उनको दिक्कत होती है. आर्नोल्ड को फिर आइडिया आया कि वह शरणार्थियों को इस काम पर लगाएं जिससे वे शहर में रह रहे लोगों से भी मिल जुल सकते हैं. मेयर ने इसका एलान किया जिसके बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान से 10 शरणार्थी यह काम करने के लिए राजी हो गए. उन्हें एक यूरो पांच सेंट प्रति घंटा दिए जाने थे क्योंकि जर्मन कानून के मुताबिक उन्हें इससे ज्यादा नहीं दिया जा सकता.

Theateraufführung Staufersaga in Schwäbisch Gmünd 2012
थिएटर में दीपक सिंहतस्वीर: privat

कुली और नागरिक आए नजदीक

लोगों ने इसका विरोध किया जिसके बाद इस प्रोजेक्ट को रोक दिया गया. उन्हें इस बात का गुस्सा था कि मेयर शरणार्थियों के साथ खड़े हैं और उन्हें टोपियां दे रहे हैं. डीडब्ल्यू के साथ इंटरव्यू में मेयर ने कहा कि शायद टोपियां देने का आइडिया सही नहीं था लेकिन प्रोजेक्ट उन्हें फिर भी पसंद आया. उनका कहना है कि शरणार्थी भी उनके शहर का हिस्सा हैं. प्रोजेक्ट का विरोध होने के बाद जर्मन रेलवे डॉयचे बान ने भी इससे मुंह फेर लिया. कंपनी का कहना है कि शरणार्थियों की हालत को लेकर लोग उस पर सवाल उठा रहे हैं.

Theateraufführung Staufersaga in Schwäbisch Gmünd 2012
सिर्फ कुली ही नहीं, थिएटर में भी शरणार्थीतस्वीर: Volker Klei

इस तरह के विवादों से लेकिन दीपक सिंह का दिल भारी हो जाता है. कहते हैं कि यह सब सुनकर जो लोग शरणार्थियों की मदद करना चाहते हैं, वह भी पीछे हट जाएंगे. राजनीतिक कारणों से भारत में सिंह के पिता यातना के शिकार हुए. 2011 में सिंह ने जर्मनी में शरण ली.

सिंह को पता है कि छोटी सी जगह में कई सारे लोगों के साथ रहना कैसा होता है. सिंह सात और लोगों के साथ एक कमरे में रहे. "आसान नहीं था, कुछ लोग 2 बजे रात को सोते हैं, कुछ कमरे में सिगरेट पीते हैं, मैं नहीं करता." लेकिन दीपक का कहना है कि उनके लिए सबसे मुश्किल था बिना कुछ किए बैठे रहना. उनका घर शहर से काफी दूर था और वह शहर जा भी नहीं सकते थे. लेकिन दीपक को जल्दी ही एक स्थानीय संगठन से मदद मिली जहां वे अपाहिज लोगों की मदद कर सकते थे. असाइलम वर्क ग्रुप नाम के संगठन में उन्होंने हफ्ते में पांच दिन काम किया लेकिन उन्हें तब भी एक यूरो पांच सेंट मिलते थे. दीपक कहते हैं कि इसी वजह से उनके दोस्त बने और वह जर्मन सीख सके. अब वह एक गार्डन सेंटर में काम करते हैं. वे स्कूल की पढ़ाई पूरी करके विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहते हैं.

सिस्टम खराब है

जर्मन कानून के मुताबिक शरण मिलने के बाद शरणार्थी नौ महीनों तक सामान्य नौकरी नहीं कर सकते हैं. अगर वे करते हैं तो उन्हें घंटे का एक यूरो पांच सेंट ही मिल सकता है. मानवाधिकार संगठन प्रो आसूल के बेर्न्ड मेसोविच का मानना है कि इस तरह के कानून को खत्म करना चाहिए क्योंकि इससे समाज को नुकसान होता है. शरणार्थी अगर काम कर सकें तो समाज भी उनका फायदा उठा सकता है. मेसोविच दलील देते हैं, "आप किसी की जिंदगी को दो साल के लिए नहीं रोक सकते हैं." साथ ही, अगर शरणार्थियों को काम के लिए कम पैसे दिए जाएंगे तो उनका नुकसान होगा ही, साथ ही स्थानीय मजदूरों को भी इससे दिक्कत होगी.

उधर मेयर आर्नोल्ड चाहते हैं कि उनकी सरकार शरणार्थियों को लेकर कानून में बदलाव लाए. लेकिन ऐसा जल्दी होता नहीं दिख रहा. आर्नोल्ड कहते हैं कि अगर 70,000 लोगों के शहर में ये बहस शुरू होती है कि शरणार्थियों के साथ स्थानीय निवासी कैसे रह सकते हैं, तो इससे फायदा ही होगा.

रिपोर्टः ग्रेटा हारमान/एमजी

संपादनः आभा मोंढे

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