क्या आउशवित्स के बारे में लिखना मुमकिन है? ये विवादास्पद सवाल न सिर्फ जर्मनी में बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में बार बार पूछा जाता रहा है. उपन्यासों और कहानियों, आत्मकथाओं, कविताओं के जरिए बहुत बार इसका जवाब दिया भी जा चुका है. इतालवी-यहूदी लेखक प्रिमो लेवी कृत "क्या ये आदमी है?” (इज़ दिस अ मैन?) या यहूदी मूल के हंगरेयिन लेखक इम्रे कैरतेश का लिखा "भाग्यहीनता” (फेटलेसनेस) ऐसे सिर्फ दो उदाहरण हैं. स्तब्धकारी और सच्ची, दोनों किताबें विश्व साहित्य की क्लासिक मानी जाती हैं.
आतंक के साए में साहित्य की रचना
दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे के बाद, कई जर्मन-भाषी लेखकों ने नाजियों के अपराधों और यहूदियों पर अत्याचार यानी हॉलोकॉस्ट के बारे में लिखा था. 1969 में प्रकाशित बेकर का उपन्यास, बिला शक 1933 से 1945 के दौर से टकराने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाओं में एक है. ये किताब एक महान साहित्य तो है ही, ऐतिहासिक अपराध का एक साहित्यिक दस्तावेज भी है.
"सैकड़ों बार मैंने इस उजड़ी हुई दास्तान को कहने की कोशिश की है, लेकिन विफल रहा,” उपन्यास का अनाम, प्रथम पुरुष सूत्रधार शुरू में ही ये बात कहता है. और इस तरह खुलने लगती है सूत्रधार की निजी दास्तान. कई साल बाद, 1967 में, सूत्रधार पोलैंड की एक यहूदी बस्ती की घटनाओं को याद करता है जहां यहूदियों को पशुओं की तरह बाड़ों में रखा गया था और जहां, कुछ हफ्तों के लिए, "झूठा याकोब” (याकोब द लायर), उस घेटो के हताश यहूदियों के लिए उम्मीद का स्रोत बन जाता है.
यूरेक बेकर
मनगढ़ंत किस्सों से जगती उम्मीद
हताशा के एक पल में, याकोब एक मित्र को बताता है कि उसके पास एक रेडियो है और उसने सुना है कि रूसी फौज बस कुछ किलोमीटर दूर हैं. क्या घेटो मुक्ति से बस कुछ क्षण ही दूर है? ये समाचार जंगल की आग की तरह फैल जाता है. लोग उम्मीद से भर उठते हैं और उनमें जीने की नई चाहत आ जाती है. जहां तक याकोब की बात है, खुश कर देने वाली सूचनाओं के वाहक के रूप में अपनी भूमिका उसे बोझ लगने लगती है. लोगों में "सिर्फ” उम्मीद बनाए रखने के लिए, क्या वो अपने दोस्तों से झूठ बोलता रहेगा और गलत खबर फैलाना जारी रखेगा?
इसका जवाब हमेशा उतना आसान नहीं होता. लेकिन एक खास दृश्य में इसका जवाब आता है. याकोब अपने दोस्त कोवाल्स्की के सामने स्वीकार करता है कि उसके पास वास्तव में कोई रेडियो नहीं है. ये सुनकर कोवाल्स्की आत्महत्या कर लेता है.
"…..संताप से घिरा एक झूठा शख्स हमेशा अनाड़ी ही रहेगा.” इस तरह की हरकत में, संयम और फर्जी शराफत नामुनासिब होती है, तुम्हें तो अपना काम हर हाल में पूरा करना होगा, तुम्हें अपना इरादा बहुत पक्का करना होगा, तुम्हें उस शख्स जैसा बर्ताव करना होगा, जो पहले से इस बात को जानता है कि लोग अगले ही पल उससे क्या सुनने वाले हैं.”
युरेक बेकर का उपन्यास अपने में कई चीजें समेटे हुए है. ये अवसाद और उदासी से भरा हुआ है. लेकिन यहूदी दास्तानगोई की शैली में एक निराश हास्य से भी ओतप्रोत है. उपन्यास पूछता है कि संकटों के दौर में क्या सही है और क्या गलत है. 1969 में जब उपन्यास प्रकाशित हुआ था तो उस समय किसी ने "फेक न्यूज” के बारे में बात करना शुरू भी नहीं किया था.
सबसे बढ़कर, "याकोब द लायर" एक ऐसी किताब है जो उपयुक्त सवाल पूछने का माद्दा रखती है और साहित्य और कविता की ताकत दिखाती हैः "हम लोग थोड़ी देर गप करेंगे, आत्म-सम्मान वाली किसी कहानी की तरह. मुझे आप मेरी थोड़ीसी खुशी प्रदान करें, बिना छोटेसे गप के हर चीज कितनी उदास और सूनी होती है.”
युरेक बेकरः "याकोब द लायर” प्लूम पेंग्विन बुक्स (जर्मन शीर्षकः याकोब डेयर ल्युगनर), 1969
युरेक बेकर का जन्म 1937 में पोलैंड के लोज शहर में यहूदी परिवार में येरजी बेकर के रूप में हुआ था. वो शहर की गंदी बस्तियों में पले बढ़े और बाद में यातना शिविरों में. उनकी मां की मौत हो गई लेकिन पिता ने उन्हें युद्ध के बाद ढूंढ निकाला और अपने साथ पूर्वी बर्लिन ले गए, जहां युवा बेकेर ने जर्मन भाषा सीखी. उनके शुरुआती काम फिल्म और टेलीविजन के लिए थे. 1969 में उन्हें पहली बड़ी सफलता हासिल हुई जब उनका उपन्यास "याकोब द लायर” प्रकाशित हुआ. 1977 में बेकेर जर्मन संघीय गणतंत्र (पश्चिम जर्मनी) चले गए जहां उन्होंने और भी उपन्यास और कहानियां लिखीं. उनकी एक रचना "मेरा प्रिय क्रॉएत्सबर्ग (लीबलिंग क्रॉएत्सबर्ग) पर एक टीवी धारावाहिक भी बना जो काफी लोकप्रिय हुआ. बेकर का 1997 में निधन हो गया.
अनुवादः शिवप्रसाद जोशी
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नाजी दमन के दौर में कला
यहूदी बस्ती के रंग
क्या खौफनाक चीज खूबसूरत भी हो सकती है? बर्लिन में लगी प्रदर्शनी 'आर्ट फ्रॉम दि होलोकास्ट': 100 वर्क्स फ्रॉम दि याद वाशेम कलेक्शन'' में दिखाई देता है कि नाजी यातना शिविरों और यहूदी बस्तियों में रह रहे कई कलाकार मानव इतिहास के सबसे त्रासद दौर में भी अपने अनुभवों को उकेरने में किसी तरह कामयाब हो गए. कलाकार योसेफ कोनर नाजी दमन के इस दौर से बच निकले. उनकी यह कलाकृति 'यहूदी बस्ती में एक सड़क'.
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नाजी दमन के दौर में कला
'शरणार्थी'
इजराएल के याद वाशेम मेमोरियल सेंटर की ओर से पहली बार बर्लिन के जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजिम में इन 100 कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाई गई है. इसमें शामिल 50 चित्रकारों में से 24 की नाजियों द्वारा हत्या कर दी गई थी. इनमें उस दौर के मशहूर चित्रकार फेलिक्स नुसबाउम भी थे. उनकी हत्या 1944 में आउश्वित्स में की गई. उनकी यह मशहूर कलाकृति 'शरणार्थी' भी प्रदर्शनी में शामिल है.
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नाजी दमन के दौर में कला
'दुख का आत्म चित्र'
शार्लोटे सालोमोन की कलाकृतियां पहले भी जर्मनी में दूसरी जगहों पर दिखाई गई हैं. उनकी 700 कलाकृतियों में से 'जिंदगी या रंगमंच? एक नृत्यनाटिका' नाम से उनका खुद का बनाया यह पोट्रेट भी इस प्रदर्शनी में शामिल है. चित्र में सालोमोन ने एक यहूदी के बतौर अपनी दुखभरी जिंदगी को बयान किया है. 1943 में दक्षिणी फ्रांस से निर्वासित कर दी गई गर्भवती सालोमन जब आउश्वित्स पहुंची वहां उनकी हत्या कर दी गई.
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नाजी दमन के दौर में कला
छिपी लड़की के चित्र
नेली टॉल की कहानी कम ही लोग जानते हैं. वह और उनकी मां इस दौर में इसलिए बच गए क्योंकि उन्हें उनके ईसाई दोस्तों ने छिपाकर पोलिश शहर लुवोफ पहुंचा दिया. कमरे में बंद टॉल ने कई चित्र बनाए जिनमें यह चित्र 'खेत में लड़कियां' भी शामिल है. अब 81 साल की हो चलीं टॉल इस प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए अमेरिका में अपने घर से बर्लिन पहुंचीं.
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नाजी दमन के दौर में कला
'बैरेकों के बीच का रास्ता'
बॉन शहर के लियो ब्रॉअर ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के लिए लड़ाई लड़ी. हिटलर के सत्ता में आने के एक साल बाद 1934 में उन्हें हेग जाना पड़ा और फिर वहां से ब्रसेल्स. वहां उन्हें चित्र बनाने के मौके मिल पाए. 1940 में उन्हें फ्रांस में सेंट सिप्रियेन नजरबंदी शिविर के बाद गुर्स के कैंप में ले जाया गया जहां उन्होंने जल रंगों में अपने अनुभवों को उकेरा. 1975 में लियो की मौत बॉन में हुई.
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नाजी दमन के दौर में कला
कलात्मक साझेदारी
गुर्स में लियो ब्रॉअर ने फोटोग्राफर और चित्रकार कार्ल रॉबर्ट बोडेक के साथ मिलकर एक कैंप कैबरे के लिए स्टेज का डिजाइन किया. इन दोनों ने 1941 तक ग्रीटिंग कार्ड्स और इस तरह की कई कलाओं में साझा काम किया. इसके बाद बोडेक को एइक्स ऑन प्रॉवॉन्स के नजदीक ले मील कैंप में भेज दिया गया. इसके बाद अंत में उन्हें आउश्वित्स भेजा गया जहां 1942 में उनकी हत्या कर दी गई.
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नाजी दमन के दौर में कला
कलाकार का खूफिया जीवन
बेडरिष फ्रिटा थेरेसियनस्टाट यातना शिविर में थे जहां से प्रोपागांडा समग्री का उत्पादन होता था. लेकिन फ्रिटा और उनके सहयोगियों ने खूफिया तरीके से नाजी यातना शिविरों की दहशत को अपने चित्रों में उकेरा. कुछ समय बाद उनका यह भेद खुल गया. फ्रिटा की मृत्यु आउश्वित्स में ही हुई. जब थेरेसियनस्टाट आजाद हुआ तो उनकी 200 कलाकृतियां दिवारों और जमीन के भीतर गाड़ी हुई पाई गईं.
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नाजी दमन के दौर में कला
मौत के परे दोस्ती
यातना शिविर के भयानक जीवन को उकेरने में बेडरिष फ्रिटा को लियो हास ने बेहद मदद की. साखसेनहाउसेन में उन्हें मित्र राष्ट्रों की नकली मुद्रा के नोट बनाने का का आदेश दिया गया था. वे दमन के इस दौर से जिंदा बचने में कामयाब रहे और उन्होंने फ्रिटा के बेटे टोमास को गोद लिया. युद्ध के बाद हास को थेरेसियनस्टाट में उनकी छिपाई 400 के करीब कलाकृतियां मिलीं.
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नाजी दमन के दौर में कला
खूफिया डॉक्टर
पावेल फांटल भी थेरेसियनस्टाट के चित्रकारों के समूह से ही थे. एक डॉक्टर होने के नाते वे शिविर में एक गुप्त टाइफस क्लिनिक भी चलाया करते थे. लेकिन फ्रिटा की तरह ही उनका भेद भी खुल गया और उन्हें यातनाएं देकर आउश्वित्स भेज दिया गया. जनवरी 1945 में एक डैथ मार्च के दौरान उन्हें गोली मार दी गई. उनकी 80 कलाकृतियों को खूफिया तरीके से थेरेसियनस्टाट से बाहर भेजा गया था.
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नाजी दमन के दौर में कला
कला अध्यापक
याकोब लिपशित्स विलनियस के आर्ट इंस्टीट्यूट में पढ़ाया करते थे. 1941 में उन्हें काउनुस की एक यहूदी बस्ती में जबरदस्ती ले आया गया. यहां वे कलाकारों के एक खूफिया संगठन में शामिल हो गए और अपने चित्रों में दमन के दौर को दर्शाने लगे. लिपशित्स की मौत 1945 में काउफरिंग यातना शिविर में हुई. युद्ध के बाद उनकी पत्नी और बेटी यातना शिविर के कब्रगाह से उनकी कई कलाकृतियों को तलाशने में कामयाब हुए.
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नाजी दमन के दौर में कला
त्रासद दौर में उम्मीद के चित्र
इस प्रदर्शनी में शामिल चित्र नाजी शिविरों की क्रूरता और अमानवीयता का दस्तावेज हैं. साथ ही ये यह भी दिखाते हैं कि इन चित्रकारों ने खुद को कैद करने वालों के खतरनाक इरादों के इतर जाकर अपनी किस्म की दुनिया रचने की कोशिश की. ये चित्र मोरित्स मुलर की कलाकृति ''सर्दियों में छत'' है. बर्लिन के जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजियम में यह प्रदर्शनी 3 अप्रैल तक चलनी है.
रिपोर्ट: एसजेएच / आरजे