मोदी सरकार: उम्मीदों की दीवार से टकराती कोशिशें
राजनेताओं की छवि और राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने की क्षमता में लोगों की धारणा अहम भूमिका निभाती है. पिछले साल संसदीय चुनाव जीतने के लिए मोदी ने राजनीति, बौद्धिक और मार्केटिंग हुनर का इस्तेमाल किया था. अब एक साल बाद उनकी सरकार को उन्हीं कसौटियों पर तौला जाएगा. जब लोगों ने उच्च पदों पर व्यापक भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के आरोपों के साये में कांग्रेस पार्टी का दस साल का कार्यकाल समाप्त किया तो उनको मोदी और उनकी सरकार से बहुत उम्मीदें थीं. खासकर युवा लोगों को जिन्हें विकास में हिस्सेदारी और अच्छी कमाई वाली नौकरी की तलाश थी. उद्योग जगत को सरकार से प्रोत्साहन की उम्मीद थी तो महिलाओं को सुरक्षा की आस थी. ये सब देश में अच्छे दिन लाने के सपने का हिस्सा था.
तीन दशक के सहबंध शासन के बाद बीजेपी को मिले पूर्ण बहुमत से लोगों में यह उम्मीद जगी कि सरकार तेज फैसले लेगी, विकास की बाधाओं को दूर करेगी और देश के चेहरे को बदल देगी. प्रधानमंत्री का पहला साल और बातों के अलावा उनकी अपनी सफलता का साल रहा है. भारत के नए नेता के रूप में उनके प्रदर्शन ने ना सिर्फ विदेशी नेताओं को प्रभावित किया है बल्कि उन्हें सुपरस्टार जैसा रुतबा भी दिया है. इस सबने भारत को खबरों में तो बनाए रखा लेकिन वे नतीजे नहीं दिए हैं जिनकी भारत को और स्वयं मोदी को उम्मीद थी.
सरकार के एक साल के लेखा जोखा का आधार उसका प्रदर्शन, वायदों को पूरा करना, भविष्य की नींव रखने के फैसले करना और विकास को आत्मनिर्भर बनाना होता है. स्वच्छ भारत अभियान हो या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान, देश के लिए जरूरी कार्यक्रमों की पहल करने के मामले में मोदी चैंपियन साबित हुए हैं, लेकिन इन कार्यक्रमों को लागू करने के लिए स्वतंत्र संरचनाओं के गठन जैसा कुछ ठोस दिखाई नहीं देता. निश्चित तौर पर दिल्ली से अपरिचित रहे मोदी को पैर जमाने में कुछ वक्त लगा लेकिन शासन के उनके स्टाइल ने दोस्त से ज्यादा दुश्मन बनाए हैं. पीएमओ को ताकतवर बनाने से शासन के केंद्रीकरण का संकेत गया है और मंत्रियों की स्वतंत्र भूमिका घटी है.
मोदी सरकार ने पिछले एक साल में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई सारे महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं. मेक इन इंडिया के उनके अभियान ने विदेशी निवेशकों में भारत के लिए दिलचस्पी पैदा की है. इसी भरोसे का नतीजा है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विकास दर का अनुमान बढ़ाकर 7.5 फीसदी कर दिया है. लेकिन नए रोजगार पैदा करने के लिए भारत को इंवेस्टरफ्रेंडली होना होगा. हालांकि वे भारत आने के लिए कतरा में लगे हैं, लेकिन पैसा लगाने से पहले वे निवेश का भरोसेमंद ढांचा चाहते हैं. दूसरी ओर भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर किसानों में मोदी की लोकप्रियता घटी है. समर्थकों के बीच भी सरकार भरोसा खोती दिख रही है. मोदी स्वभाव से संघर्ष करने वाले राजनीतिज्ञ हैं. लेकिन एक साल का उनका अनुभव रहा है कि शासन करना उतना आसान नहीं.