1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाजएशिया

फिल्म ‘कागज’ के किरदार लाल बिहारी की असल कहानी

समीरात्मज मिश्र
१ जनवरी २०२१

किन्हीं वजहों से अपनी पहचान छिपाने वालों के किस्से आपने जरूर सुने होंगे लेकिन खुद के अस्तित्व को साबित करने में किसी को अगर 18 साल लग जाएं, तो हैरान होना लाजिमी है.

https://p.dw.com/p/3nPYR
Indien | Lebensgeschichte von Lal Bihari Mritak
लाल बिहारी 'मृतक'तस्वीर: Privat

आजमगढ़ के लाल बिहारी को सरकारी दस्तावेजों में मृत घोषित कर दिया गया था और फिर खुद को जिंदा साबित करने में वो इतने पापड़ बेल चुके थे कि अब उन्होंने खुद ही अपना उपनाम ‘मृतक' रख लिया है.

लाल बहादुर मृतक की इस सुखांत कहानी पर बनी फिल्म आगामी सात जनवरी को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने वाली है जिसमें उनका किरदार अभिनेता पंकज त्रिपाठी निभा रहे हैं. फिल्म के निर्माता सतीश कौशिक हैं.

आजमगढ़ के अमिलो गांव के रहने वाले लाल बिहारी के पिता का देहांत तभी हो गया था जब वो एक साल के भी नहीं थे. उनकी मां उन्हें लेकर अपने घर बस्ती चली आईं. लाल बिहारी पढ़ाई लिखाई तो नहीं कर सके लेकिन साड़ी बुनाई का काम सीखकर जीवन-यापन करने लायक बन गए थे.

कैसे 'मृतक' हो गए लाल बिहारी

खुद के मृतक होने की कहानी वो यूं सुनाते हैं, "मैं जब 20-21 साल का था, तो मैंने सोचा कि क्यों ना बनारसी साड़ी का कारखाना लगाया जाए. गांव में मेरे पिता के नाम से एक एकड़ जमीन थी जिसका वारिस मैं था. जब हम लोन लेने के लिए कागज जुटाने लगे तो पता चला कि 30 जुलाई 1976 को नायब तहसीलदार सदर, आजमगढ़ ने मुझे कागजों में मृत घोषित करके सारी जमीन मेरे चचेरे भाइयों के नाम कर दी है. बस, यहीं से मेरा संघर्ष शुरू हो गया.”

Indien Filmplakat Schauspieler Pankaj Tripathi im Film Kaagaz
लाल बिहारी की कहानी पर बनी है फिल्म कागजतस्वीर: IANS

लाल बिहारी बताते हैं कि ऐसा नहीं था कि लोग जानते नहीं थे कि वो जिंदा हैं, लेकिन कागजी कार्रवाई में कोई पड़ना नहीं चाहता था. वो बताते हैं कि सब कुछ जानते हुए भी शुरू में रिश्तेदारों ने भी साथ नहीं दिया और उनकी लड़ाई लंबी होती गई.

लाल बिहारी कहते हैं कि जब लोगों ने समझने की बजाय मेरा मजाक उड़ाना शुरू कर दिया तो मैंने ठान लिया कि अब खुद को जिंदा साबित करके ही रहूंगा. वो कहते हैं, "लोगों ने कोर्ट जाने की सलाह दी. वकीलों से बात की तो पता चला कि जमीन का मामला है, मुकदमा लंबा चलेगा. पहले तो सोचा कि छोड़ दूं, कानूनी पचड़े में कौन पड़े. इसलिए मैंने सरकारी अफसरों से मदद मांगी. आजमगढ़ जिले का ऐसा कोई अफसर नहीं बचा होगा जिसके दरवाजे पर मैंने दस्तक ना दी हो, न्याय की भीख ना मांगी हो, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.”

18 साल का संघर्ष

दस साल तक कागजों पर जिंदा होने की लड़ाई लड़ते हुए लाल बिहारी जब थक गए तो स्थानीय विधायक श्याम लाल कनौजिया ने उन्हें एक तरीका सुझाया. लाल बिहारी बताते हैं, "ये बात साल 1986 की है. अफसरों के चक्कर काटते-काटते मैं थक गया था. पैसे भी खूब खर्च किए. तभी हमारे विधायक जी ने कहा कि ऐसे नहीं होगा. कुछ हंगामा करो, तब सुनवाई होगी. उनकी बात मानकर मैं विधानसभा पहुंचा और दर्शक दीर्घा में बैठे हुए उस वक्त वहां एक पर्चा फेंक दिया जब सदन में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही थी.”

Indien | Lebensgeschichte von Lal Bihari Mritak
लाल बिहारी अब अपने जैसों की मदद कर रहे हैं.तस्वीर: Privat

दुर्भाग्य ने लाल बिहारी का पीछा यहां भी नहीं छोड़ा. उनसे घंटों पूछताछ हुई और बाद में उन्हें छोड़ दिया गया. अखबारों में भी यह खबर छपी कि ‘सदन में पर्चा फेंकने वाला युवक गिरफ्तार' हो गया. हां, ड्यूटी में लापरवाही के चलते विधानसभा के कुछ गार्ड भले ही सस्पेंड कर दिए गए.

लाल बिहारी बताते हैं कि खुद को जिंदा साबित करने के लिए उन्होंने आजमगढ़, लखनऊ और दिल्ली में सौ से ज्यादा बार धरना दिया. दिल्ली में तो एक बार लगातार 56 घंटे तक अनशन भी किया लेकिन राजस्व विभाग उन्होंने जिंदा मानने को तैयार ना हुआ. वो बताते हैं, "मैंने पत्नी के नाम से विधवा पेंशन का फॉर्म भी भरा, लेकिन वह भी रिजेक्ट हो गया. लेकिन मैं तय कर चुका था कि हार नहीं मानूंगा. साल 1988 में इलाहाबाद से पूर्व पीएम वीपी सिंह और कांशीराम के खिलाफ चुनाव लड़ा. कुल छह बार चुनाव लड़ चुका हूं.”

साल 1994 में लाल बिहारी को आजमगढ़ के मुख्य विकास अधिकारी ने अपने दफ्तर बुलाया और उनकी समस्या सुनी. लाल बिहारी बताते हैं कि पहली बार गंभीरता से किसी ने उनकी बात सुनी थी. सीडीओ ने दो हफ्ते के भीतर उन्हें दस्तावेजों में जीवित कर दिया, जो कि वो वास्तव में थे ही.

Indien Schauspieler Pankaj Tripathi
पंकज त्रिपाठी ने कागज फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है. तस्वीर: IANS

धोखेबाज रिश्तेदारों को दे दी जमीन

लेकिन उनकी यह यात्रा अभी भी समाप्त नहीं हुई थी. वो कहते हैं, "जब सीडीओ साहब ने मेरे जिंदा होने की रिपोर्ट दी तो वो रिपोर्ट तहसील से ही गायब हो गई. लेकिन रिपोर्ट फिर ढूंढ़ी गई और आखिरकार 30 जून 1994 को कागजों पर मैं जिंदा घोषित कर दिया गया. मैं कागजों पर भले ही जिंदा हो गया लेकिन मृतक के तौर पर मैंने इतना लंबा संघर्ष किया कि अब वही मेरी पहचान बन गई और उसके बाद से मैंने अपना यही नाम ही रख लिया.”

लाल बिहारी बताते हैं कि इस लड़ाई में जो कुछ भी उनके पास था, वह सब बिक गया. यही नहीं, दस्तावेजों में जिंदा साबित होने के बाद उन्होंने वह जमीन भी उन्हीं चचेरे भाइयों को वापस कर दी जिन्होंने उस जमीन के लिए लाल बिहारी को मृत बना दिया था.

लाल बिहारी बताते हैं कि यह समस्या सिर्फ उन्हीं की नहीं थी बल्कि उस इलाके में ऐसे हजारों लोग हैं जिन्हें जमीन हड़पने के मकसद से उनके सगे-संबंधियों ने सरकारी दस्तावेजों में मृत घोषित करा रखा है. 64 वर्षीय लाल बिहारी अब उन्हीं लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसके लिए उन्होंने साल 1980 में मृतक संघ बनाया और अपने साथ सैकड़ों अन्य लोगों को भी न्याय दिला चुके हैं.

फिल्म निर्माता सतीश कौशिक ने लालबिहारी मृतक की कहानी अखबारों में पढ़ने के बाद उन पर फिल्म बनाने का फैसला किया. पिछले दिनों सतीश कौशिक जब लखनऊ आए थे तो मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था कि फिल्म बनाने का फैसला उन्होंने साल 2003 में ही कर लिया था लेकिन उस पर अमल अब हो पाया है.

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी