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न्यायपालिका में टकराव, विधायिका और कार्यपालिका मूकदर्शक

प्रभाकर मणि तिवारी
९ मई २०१७

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में बेहद अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई है. मामला कलकत्ता हाई कोर्ट के जज न्यायमूर्ति टीएस. करणन और सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की एक पीठ के बीच टकराव का है.

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C S Karnana Kalkutta Highcourt Indien
तस्वीर: DW/P. Tewari

एक दिन पहले जस्टिस करणन ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर समेत पीठ के सातों जजों को पांच साल की सजा और जुर्माना देने का आदेश सुनाया तो आज सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस करणन को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए छह महीने जेल की सजा सुना दी. न्यायपालिका के इस टकराव के बीच सरकार और संसद मूकदर्शक बनी हुई है. अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करना भी बंगाल पुलिस के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है. न्यायपालिका का यह टकराव बीते लगभग तीन महीनों से लगातार सुर्खियां बटोर रहा है. इस मुद्दे के बहाने जजों के चयन की कॉलेजियम प्रक्रिया एक बार फिर कटघरे में है. जजों के चयन की कॉलेजियम प्रक्रिया पर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच लंबे समय से टकराव चल रहा है.

विवाद

कोलकाता हाई कोर्ट में नियुक्त जस्टिस करणन को मार्च 2009 में मद्रास हाई कोर्ट का एडिशनल जज नियुक्त किया गया था. इसके बाद जजों और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अपने विवादास्पद बयानों की वजह से वह लगातार सुर्खियों में बने रहे हैं. वह 2011 से ही आरोप लगाते रहे हैं कि दलित होने की वजह से ही उनको प्रताड़ित किया जा रहा है. उन्होंने उसी साल अनुसूचित जाति राष्ट्रीय आयोग को पत्र लिख कर भी इस आरोप को दोहराया था. बीते साल अपने ट्रांसफर आर्डर के बाद जस्टिस करणन ने कहा था कि उनको दुख है कि वह भारत में पैदा हुए हैं और किसी ऐसे देश में जाना चाहते हैं जहां जातिवाद न हो.

न्यायमूर्ति करणन शुरू से ही कॉलेजियम पर दलित विरोधी नीति अपनाने के आरोप लगाते रहे हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट के 20 जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को उन्हें नोटिस जारी करते हुए पूछा कि क्यों न इसे कोर्ट की अवमानना माना जाए. बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस करणन का तबादला मद्रास से कलकत्ता हाई कोर्ट में किया था. तब उन्होंने खुद ही इस आदेश पर रोक लगा दी थी और देश के मुख्‍य न्‍यायाधीश से स्थानांतरण पर सफाई भी मांगी थी. हालांकि बाद में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश टीएस ठाकुर के साथ बंद कमरे में हुई एक बैठक के बाद न्यायमूर्ति करणन कलकत्ता हाई कोर्ट जाने पर सहमत हो गए थे.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने करणन की गिरफ्तारी का भी वारंट जारी किया था और बंगाल के पुलिस महानिदेशक को उसकी तामील करने का निर्देश दिया था. न्यायमूर्ति करणन ने वारंट तो ले लिया लेकिन उसे कोई तवज्जो देने से इंकार कर दिया. न्यायपालिका से जुड़ा मामला होने की वजह से पुलिस ने भी कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की. उसके बाद भी न्यायमूर्ति करणन लगातार सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ जहर उगलते रहे. उनकी दलील है कि हाई कोर्ट के किसी पीठासीन जज के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को कार्रवाई का अधिकार नहीं है. ऐसी कोई कार्रवाई संसद ही कर सकती है.

अवमानना

अवमानना के इस मामले में न्यायमूर्ति करणन बीते 31 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए थे. लेकिन वहां अपनी सफाई देने की बजाय वह लगातार अपने न्यायिक व प्रशासनिक अधिकार बहाल करने की मांग करते रहे. सुप्रीम कोर्ट में पेश होने वाले वह किसी हाईकोर्ट के पहले पीठासीन न्यायाधीश थे. उसके बाद बीते अप्रैल में न्यायमूर्ति करणन ने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ सीबीआई जांच का आदेश दिया था और 114 करोड़ का जुर्माना लगाया था. अब सोमवार को उन्होंने भारत के मुख्य न्यायधीश जेएस खेहर और सुप्रीम कोर्ट के छह अन्य न्यायाधीशों को पांच साल के सश्रम कारावास की सजा सुना दी. दरअसल उनको पता था कि अवमानना के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसी हफ्ते आना है. इसलिए शीर्ष अदालत पर दबाव बढ़ाने के मकसद से उन्होंने अचानक ऐसा आदेश सुना दिया.

अपने आवास पर लगी अस्थायी अदालत में न्यायमूर्ति करणन ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाते हुए उनको सजा सुनाई. उन्होंने मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर, न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ का भी नाम लिया. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने चार मई को उनके मानसिक स्वास्थ्य की जांच का आदेश दिया था. लेकिन खुद को पूरी तरह स्वस्थ और दिमागी तौर पर स्थिर बताते हुए न्यायमूर्ति करणन ने ऐसी कोई जांच कराने से इंकार कर दिया था. उन्होंने मेडिकल टीम को यह बात लिखित रूप से भी दे दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने उस जांच की रिपोर्ट आठ मई को अदालत में पेश करने का निर्देश दिया था. लेकिन उसकी बजाय न्यायमूर्ति करणन ने उल्टे पीठ के तमाम जजों को ही सजा सुना दी. अवमानना का मामला शुरू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने बीती आठ फरवरी को हाईकोर्ट के जज के तौर पर उनके तमाम अधिकारों पर रोक लगा दी थी. उसके बाद वह लगातार अपने आवास पर ही अदालत लगा कर सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ फैसले सुनाते रहे हैं.

असमंजस

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के इस टकराव से बंगाल सरकार और पुलिस के सामने भारी असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तामील करते हुए न्यायमूर्ति करणन को गिरफ्तार कर जेल भेजने की जिम्मेदारी उसी पर है. लेकिन न्यायमूर्ति करणन के रवैये की वजह से इस आदेश की तामील होने पर संशय है. कानून के जानकारों को कहना है कि कॉलेजियम प्रणाली के तहत चुने गए जजों को संसद में महाभियोग प्रस्ताव के जरिये ही उनके पद से हटाया जा सकता है. उसके बाद इसे राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी है. शायद इसी वजह से न्यायमूर्ति करणन ने जिद्दी रवैया अपना रखा है.

अब इस टकराव के बाद केंद्र सरकार को कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठाने का मौका मिल गया है. केन्द्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीते सप्ताह कॉलेजियम प्रणाली पर निशाना साधते हुए कहा कि इस न्यायाधीश को भी इसी प्रक्रिया के जरिये चुना गया है. प्रसाद ने न्यायमूर्ति करणन के परोक्ष संदर्भ में कहा था कि एक सज्जन व्यक्ति गलत वजहों से खबरों में हैं. उनका कहना था, "सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मेडिकल जांच का आदेश दिया गया है. वह भी कॉलेजियम व्यवस्था का हिस्सा थे." प्रसाद ने कहा कि कालेजियम प्रणाली शुरू होने से पहले कार्यपालिका ने न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मंत्री का सवाल है कि एक न्यायाधीश की नियुक्ति में आखिर प्रधानमंत्री पर भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता?

अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तमाम निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि उस पर अमल कैसे किया जाएगा. आगे नतीजा चाहे जो हो, इस टकराव ने भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक काला अध्याय तो जोड़ ही दिया है.