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इंडो-पैसिफिक के रंग में रंगता यूरोपीय संघ

राहुल मिश्र
२७ अप्रैल २०२१

गहन चिंतन-मनन और आपसी बहस मुबाहिसे के बाद आखिरकार यूरोपीय संघ ने एक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर इंडो-पैसिफिक पर अपना रुख और रणनीति उजागर कर दी.

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Guam | US Flugzeugträger
तस्वीर: Conner D. Blake/AFP

19 अप्रैल को औपचारिक तौर पर लांच की गयी इस रणनीति ने सामरिक और कूटनीतिक स्तर पर कई महत्वपूर्ण बातों को उजागर किया है जिनका सीधा और दूरगामी नाता इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों की भूमिकाओं के साथ है और आगे भी रहेगा. आसियान (एसोसिएशन आफ साउथ ईस्ट एशियन नेशंस) के बाद यूरोपीय संघ मात्र दूसरा क्षेत्रीय संगठन है जिसने इंडो-पैसिफिक को अपनी संस्तुति दी है. यूरोपीय संघ की इंडो-पैसिफिक रणनीति इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि हिंद-प्रशांत महासागर से कहीं दूर बसे यूरोपीय संघ के सभी देशों के लिए अब तक इंडो-पैसिफिक दूर की कौड़ी ही था. यही वजह है कि जिस इंडो-पैसिफिक पर अमेरिका, जापान, भारत, आस्ट्रेलिया, और आसियान के सदस्य देश पिछले चार सालों से काम कर रहे थे उस पर अब जाकर यूरोपीय संघ ने अपना रुख साफ किया है और इंडो-पैसिफिक में नियम-परक व्यवस्था के सुचारु संचालन को सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका निभाने की घोषणा की है.

यूरोपीय संघ के इस निर्णय से पहले इस संगठन के अगुआ देशों- जर्मनी, फ्रांस, और नीदरलैंड ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अपनी नीतियों की घोषणा कर दी थी. गौरतलब है कि ये तीनों ही देश इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में आर्थिक और राजनयिक स्तर पर खासा दखल रखते हैं. जहां तक फ्रांस का सवाल है तो वह इंडो-पैसिफिक का हिस्सा भी है क्योंकि फ्रांस के अधीन कई क्षेत्र हिंद महासागर और इंडो-पैसिफिक के अंतर्गत आते हैं. इंडो-पैसिफिक की तेजी से बदलती सामरिक व्यवस्था और संरचना फ्रांस के लिए सीधे और तात्कालिक महत्व की है.

फ्रांस से उलट, जर्मनी के लिए यह क्षेत्र रणनीतिक से ज्यादा बड़े आर्थिक सहयोग और निवेश का क्षेत्र रहा है. आसियान क्षेत्र में जर्मनी सबसे बड़े निवेशकों में आता है. मलयेशिया जैसे आर्थिक तौर पर सम्पन्न और वाणिज्य के मामले में अगड़े दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के लिए जर्मन निवेश और व्यापार सहयोग के अहम आयाम रहे हैं. नीदरलैंड का भी इस क्षेत्र से औपनिवेशिक काल से ही राबता रहा है. आज भी दक्षिणपूर्व एशिया में इसकी अच्छी पहुंच है. साफ है कि इन तीनों देशों का यूरोपीय संघ में इंडो-पैसिफिक को लेकर आम-राय बनाने में योगदान है.

यह कहना सही नहीं होगा कि इस स्ट्रैटिजी से पहले यूरोपीय संघ ने कुछ किया ही नहीं था. यूरोपीय संघ पिछले कुछ सालों से इंडो-पैसिफिक की सामरिक और आर्थिक-वाणिज्यिक संरचना में बदलाव को गहनता से समझने की कोशिश कर रहा है, और धीरे-धीरे ही सही एक के बाद एक महत्वपूर्ण कदम उसने उठाए हैं. मिसाल के तौर पर 2018 में यूरोपीय संघ की कनेक्टिविटी स्ट्रैटिजी कई मायनों में चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजना का ही जवाब थी जिसके तहत उसने चीन को नियम-बद्ध कनेक्टिविटी और निवेश-आचरण की ओर ध्यान दिलाया. चीनी बेल्ट एंड रोड परियोजना से हलकान भारत और जापान जैसे देशों ने इसकी जमकर सराहना भी की.

इंडो-पैसिफिक क्षेत्रीय व्यवस्था के समर्थकों के लिए भी यह बड़ी बात है कि दुनिया के सबसे सफल क्षेत्रीय संगठन - यूरोपीय संघ ने इंडो-पैसिफिक को अपनी नीतियों में बड़ा स्थान दिया है. यूरोपीय संघ के इंडो-पैसिफिक से जुड़े दस्तावेजों के अनुसार अप्रैल 2021 में लॉन्च इस नई रणनीति से नियमबद्ध आचरण व्यवस्था ही नहीं, लोकतंत्र, मानवाधिकारों की रक्षा और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के पालन को सुनिश्चित कराने का भी यूरोपीय संघ प्रयास करेगा. साफ है, यूरोपीय संघ का दखल इंडो-पैसिफिक व्यवस्था में एक बड़ा नॉर्मटिव आयाम जोड़ता है.

अमेरिका और चीन की बढ़ती प्रतिद्वंदिता के बीच इस क्षेत्र के तमाम देशों के बीच यह आशंका घर करती जा रही थी कि दुनिया के इन दो सबसे ताकतवर देशों के पाटों के बीच शांति-व्यवस्था के सुरक्षित रहने के आसार क्षीण हो रहे हैं. शीत युद्ध के तनाव भरे दिनों की ओर वापस जाने की बात भी इंडो-पैसिफिक की मझोली और छोटी ताकतों के लिए एक बुरे सपने जैसी है. यूरोपीय संघ और आसियान के इंडो-पैसिफिक में जुड़ने और जिम्मेदार भूमिका निभाने के आह्वाहन से इंडो-पैसिफिक के शक्ति प्रदर्शन और सैन्य जोर आजमाइश का अखाड़ा बनने के आसार निश्चित रूप से कम हुए हैं.

ऐसा नहीं है कि यूरोपीय संघ या चीन और अमेरिका की तनातनी से परेशान नहीं हैं. लेकिन आसियान की तर्ज पर ही यूरोपीय संघ ने भी इस चुनौती से भागने या ढुलमुल रवैया अपनाने के बजाय यही निर्णय लिया कि इंडो-पैसिफिक में उनकी भूमिका क्षेत्र और इसके देशों के साथ साथ उनके अपने हितों को भी साधने में मदद करेगी.

इंडो-पैसिफिक की इस नीति के पदार्पण से ठीक पहले चले घटनाक्रम का भी इसमें महत्वपूर्ण स्थान है. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के कार्यकाल के दौरान ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अमेरिका और यूरोपीय संघ की चीन को लेकर नीतियों में दूरियां बढ़ रही हैं. माना जा रहा था कि जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका-चीन सम्बंधों में व्यापक बदलाव आएगा और दोनों देश फिर से अपने सम्बंधों के अच्छे दिनों की ओर लौटेंगे. तमाम अटकलों को फिलहाल मुंह चिढ़ाते हुए जो बाइडेन प्रशासन ने चीन को लेकर ट्रम्प काल जैसा ही आक्रामक रूख अपना रखा है. इस बात से यूरोपीय संघ को भी अहसास हुआ है कि चीन को लेकर अमेरिका की नीतियों पर उसे भी पुनर्विचार करना चाहिए.

इसके साथ ही यूरोपीय संघ के हाल में चीन के साथ दांत खट्टे करने वाली घटनाओं ने यूरोपीय संघ को इस जमीनी सच्चाई से भी रूबरू कर दिया कि आर्थिक और सामरिक दोनों ही क्षेत्रों में तेजी से उभर रहे चीन पर नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था के मूलभूत पहलुओं सम्बंधी दबाव बनाना जरूरी हो गया है. यह किसी एक देश की जिम्मेदारी नहीं हो सकती और न ही यह किसी एक देश के बस का काम ही है.

इस बात ने भी यूरोपीय संघ के नीति निर्धारकों पर कहीं न कहीं बड़ा असर डाला है. इसके बावजूद अपने आधिकारिक वक्तव्यों में संघ ने चीन पर कोई निशाना साधने के बजाय यह कहा है कि उसकी इंडो-पैसिफिक नीति चीन या किसी भी देश के खिलाफ नहीं है. यूरोपीय संघ की यही बात उसे आसियान के नजदीक लाती है. इंडो-पैसिफिक के पूरे विचार-विमर्श के केंद्र में स्थित आसियान के लिए भी चीन और अमेरिका के बीच में पड़ना या इनमें से किसी एक देश को चुनना यक्ष प्रश्न से कम नहीं रहा है.

लब्बोलुबाब यह कि यूरोपीय संघ के इंडो-पैसिफिक में उतरने से इस क्षेत्र के समर्थक देशों में उत्साह है. यह भी अब तय हो चला है कि इंडो-पैसिफिक का रंग अब जम रहा है. और यह ऐसा रंग है जिसमें रंजिशन ही सही, इंडो-पैसिफिक की महफिल बिगाड़ने के लिए ही सही, किसी न किसी रूप में इसके विरोधियों रूस और चीन को भी शरीक होना ही पड़ेगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.) ट्विटर @rahulmishr_

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