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दबाव नहीं दलील पर टिकी सजा

१७ सितम्बर २०१३

16 दिसंबर के दिल्ली बलात्कार कांड की भयावहता को अदालत के फैसले में भी साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है. संदेश बिल्कुल साफ है कि कानून में ऐसे जघन्य अपराधियों के लिए दया का कोई भाव नहीं है.

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तस्वीर: Reuters

इतना ही नहीं भारत में महिलाओं के खिलाफ तेजी से बढ़ते यौन हिंसा के मामलों पर नकेल कसने के लिए गठित फास्ट ट्रैक कोर्ट ने महज नौ महीने के भीतर इस मामले को अंजाम तक पहुंचाकर त्वरित न्याय की आस को मजबूत भी किया है. वरना लचर कानूनों के कारण देश में इस तरह के न जाने कितने मामले दशकों तक न्याय की देहरी पर भी नहीं पहुंच पाते हैं.

दलीलों पर टिका फैसला

निर्भया मामले का फैसला आने पर भारतीय मीडिया और अन्य तबकों में एक बात चर्चा में रही कि यह फैसला कोर्ट पर राजनीतिक दबाव का परिणाम है. वरना कानून के मामले में लकीर की फकीर भारतीय अदालतें इससे भी भयानक मामलों में सख्त फैसले क्यों नहीं कर पा रही है. बेशक इस दलील में दम है कि अदालतों के लचर रवैये का खामियाजा पीड़ित पक्षों को भुगतना पड़ रहा है, लेकिन खासकर इस मामले को जिस तरह से अदालत ने सुनवाई के दौरान अत्याधुनिक तकनीक और दलीलों की कसौटी पर कसते हुए फैसला सुनाया है उससे इस फैसले में दबाव की परछाईं दिखती नहीं है.

मसलन बचाव पक्ष ने दलील दी कि सभी आरोपियों की उम्र कम है और उनका यह पहला अपराध है. इसलिए इन्हें मौत की सजा न दी जाए. जिससे ये समाज में ही रहकर सामाजिक मूल्यों को सीख सकें. इससे एक सकारात्मक संदेश जाएगा. अदालत ने इसे ठुकराते हुए इनकी तुलना मुंबई आतंकी हमले में पकड़े गए एकमात्र आतंकवादी कसाब से कर दी. अदालत ने कहा कि कसाब की उम्र भी बहुत कम थी और उसका यह पहला फिदायीन हमला था. उसकी आपराधिक सोच की वजह से वह जिस तरह से समाज और सामाजिक मूल्यों के लिए खतरा बन गया था उसे देखते हुए वह माफी का हकदार नहीं माना गया. उसी तरह इनके अपराध की गंभीरता को देखते हुए अदालत इन सब को भी फांसी की सजा सुनाती है. इस तरह निर्भया मामले में सजा को लेकर बचाव पक्ष की कसाब के हिसाब की दलील नहीं चली. शायद भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में यह पहला मामला है जिसमें बलात्कार के मामले को दुर्लभ से दुर्लभतम साबित करने के लिए आतंकवाद के सबसे भयंकर मामले से तुलना की गई. अदालत ने अपने फैसले में लिखा है कि जिस तरह से आतंकी वारदातों से समाज में भय फैलता है उसी तरह यौन हिंसा भी भौतिक रुप से भले ही सिर्फ एक महिला को अपना शिकार बनाती है लेकिन इसके भय का असर हर महिला के दिल दिमाग पर पड़ता है.

अपील में भी नहीं होगी देर

जहां तक इस मामले में सुनाई गई सजा को उच्च अदालतों में चुनौती देने से सजा के टलने का सवाल है तो इस पर भी चिंता करने की जरुरत नहीं है. दरअसल परीक्षण अदालत ने इस मामले में जांच के दौरान अत्याधुनिक तकनीक और चिकित्सकीय जांच के हर बारीक पहलू का इस्तेमाल किया है. उदाहरण के तौर पर न सिर्फ आरोपियों के बाल और नाखून से लेकर कपड़ों तक की फोरेन्सिक जांच कराई गई बल्कि पीड़िता के शरीर पर दोषियों के दांतों से काटे गए निशान का भी डीएनए परीक्षण करा कर यह पुख्ता कर दिया गया कि किसने अपराध में कितनी भागीदारी निभाई है. आपराधिक मामलों के वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी कहते हैं कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील के निस्तारण में बिल्कुल देर नहीं लगेगी. वजह यह है कि माकूल जांच प्रक्रिया के आधार पर जुटाए गए सबूतों के कारण उच्च अदालतों को दोबारा जांच कराने की जरुरत नहीं पड़ेगी. दिल्ली पुलिस ने इस मामले में सबूतों की इतनी सटीक कडि़यां जुटाई हैं कि इन्हें दोबारा जांच की कसौटी पर खरा उतारने की कहीं भी जरुरत महसूस नहीं होगी. ऐसे में उच्च अदालतों में अपील को सिर्फ मेरिट के आधार पर निस्तारित किया जाएगा. मेरिट के मामले में सबूतों से लैस अभियोजन पक्ष बेहद मजबूत है. ऐसे में बचाव पक्ष के लिए अपील में जाना महज एक औपचारिकता मात्र होगी.

क्या औरों को मिलेगा ऐसा न्याय

देश दुनिया में हर आम और खास को झझकोर कर रख देने वाले निर्भया केस का फैसला तो आ गया लेकिन इस फैसले के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इस तरह के अन्य मामलों में भी अदालतें त्वरित देने में कामयाब हो पाएंगी. अब तक का अनुभव बताता है कि यह आस पूरी हो पाना अगर असंभव नहीं तो आसान भी नहीं हागी. याद कीजिये 16 दिसंबर के बाद 15 अप्रैल को गांधीनगर बलात्कार कांड पिछली घटना से कम वीभत्स नहीं था. महज पांच साल की बच्ची के साथ दरिंदों ने न सिर्फ बलात्कार किया बल्कि उसकी हत्या का नाकाम प्रयास भी कर उसे मरा हुआ समझ कर बंद कमरे में छोड़ गए. बच्ची 40 घंटे तक मौत से जूझती रही तब जाकर उसे अस्पताल पहुंचाया गया. निर्भया तो जिंदगी की जंग हारकर अपनी पीड़ा को इस दुनिया में छोड़ गई मगर गांधीनगर की गुड़िया को इस पाशविक अनुभव के साथ ही पूरा जीवन जीना है.

हैरत की बात तो यह है कि गुडि़या का मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट में नहीं दिया गया है. अगर मामले के महत्व के लिए हो हल्ला ही जरुरी है तो गांधीनगर बलात्कार कांड में भी लोगों का गुस्सा सड़कों पर खूब फूटा था. इसके बावजूद इस मामले की सुनवाई सामान्य परीक्षण अदालत में पारंपरिक सुस्त गति से चल रही है. यह इस देश की व्यवस्था से जुड़ी विडंबना ही है कि इस तरह के मामलों के लिए ही फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई गई हैं और नया कानून भी प्रभावी हो गया है लेकिन इसका इस्तेमाल चुनिंदा मामलों में ही हो रहा है.

आंकड़े बताते हैं कि 16 दिसंबर के बाद दिल्ली सहित देश भर में यौन हिंसा के मामले बढ़े है. हालत तो यह है कि अकेले दिल्ली में ही 16 दिसंबर के बाद यौन हिंसा की शिकार हुई गुड़िया सहित दर्जनों महिलाएं न्याय के लिए दर दर की ठोकरें खा रही हैं. मीडिया सिर्फ इन मामलों को उठाकर अपने दायित्व की पूर्ति कर देता है लेकिन सिस्टम को चला रहे जिम्मेदार लोग इनसे बेपरवाह होकर निर्भया के फैसले को ही अपने दायित्व की इतिश्री समझ कर पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

ब्लॉगः निर्मल यादव, दिल्ली

संपादनः एन रंजन

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