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समाज

तालाबंदी के पहले दौर का सबक

चारु कार्तिकेय
१७ जुलाई २०२०

महामारी ने सामान बटोरने और पैसे खर्च करने की संस्कृति के बारे में सोचने का एक मौका दिया. जब कहीं जाना ही नहीं तो ये लाखों की गाड़ियां किस काम की? नए कपड़े किस काम के? बटुए में संजो कर रखे क्रेडिट कार्ड किस काम के?

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तस्वीर: DW/C. Kartikeya

चारों तरफ शांति, खाली सड़कें, दूध की दुकान पर अकेला बैठा दुकानदार और पतझड़ की वजह से गिरते हुए पत्तों से ढकी जा रही कतार में लगीं गाड़ियां. कोरोना महामारी से लड़ने के लिए लगाई गई तालाबंदी मुझे सबसे ज्यादा अपनी सोसाइटी के पार्किंग लॉट में महसूस होती थी. बड़े अरमानों से खरीदी हुई लेकिन अब धूल फांकती हुई अपनी हैचबैक को और उसके अगल-बगल खड़ी सभी मॉडलों की महंगी सेडान और एसयूवीयों को देखता हुआ मैं खड़ा रह जाता था.

ये तालाबंदी के शुरुआती दिन थे जब प्रतिबंध कड़ाई से लागू थे. लोगों को घरों से बाहर सिर्फ अति-आवश्यक काम के लिए निकलना था. सोसाइटी में सभी तरह के हेल्परों का आने पर रोक थी, लिहाजा गाड़ियों की सफाई करने वाले भी नहीं आते थे. मैं खुद कुछ दिनों के बाद पार्किंग में जा कर अपनी गाड़ी पर इकठ्ठा हो गए पत्तों को गिरा देता था और एक कपड़े से धूल झाड़ देता था.

इन गाड़ियों को देखकर मैं सोचता था कि लाखों रुपये खर्च कर इन्हें खरीदते समय क्या किसी ने सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब अच्छी खासी चलती हुई गाड़ी को हमें यूं अचानक छोड़ देना पड़ेगा? कि छोड़ दिए गए फर्नीचर के एक टुकड़े की तरह यूं इन्हें एक कोने में छोड़ कर इन पर चढ़ती हुई धूल और गिरते हुए पत्तों को देखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा?

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गाड़ियों पर जमा होते पत्तेतस्वीर: DW/C. Kartikeya

सामान बटोरने की संस्कृति

सिर्फ गाड़ियां ही नहीं, महामारी ने सामान बटोरने और पैसे खर्च करने की पूरी संस्कृति के बारे में सोचने का एक मौका दिया. जब कहीं जाना ही नहीं तो ये लाखों की गाड़ियां किस काम की? हर कुछ दिनों पर खरीदे जाने वाले नए कपड़े और नए जूते किस काम के? दूसरों से प्रशंसा लेने के काम आने वाले सोने के और हीरे-मोतियों के आभूषण किस काम के? बटुए में संजो कर रखे क्रेडिट कार्ड किस काम के?

जब किसी को आपके घर आना नहीं तो घर की महंगी सजावटें किस काम की? जब सबसे जरूरी लक्ष्य स्वस्थ रहना और अपनी और अपनों की जिंदगी बचाए रखना ही है तो फिर घर पर बटोर कर रखा सारा अनावश्यक सामान किस काम का? या फिर करोड़ों की संपत्ति भी किस काम की? मैंने पढ़ा था जापान के मिनिमलिस्टों के बारे में जिनमें से कइयों के तो बेडरूम तक इतने नंगे होते हैं कि उनमें एक पलंग तक नहीं होता. मैं इन पर अचरज करता था, लेकिन इनको समझ नहीं पाता था.

तालाबंदी के दौरान मैं कुछ हद तक मिनिमलिस्ट संस्कृति के संदेश को समझ सका. उपभोक्तावाद हमें सामान बटोरने पर मजबूर करता है. लेकिन अगर हम अपनी जीवन शैली की समीक्षा करते रहें तो परिग्रह से बच सकते हैं. मेरे लिए शायद यही महामारी का सबसे बड़ा संदेश है.

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लॉकडाउन में खाली सड़केंतस्वीर: DW/P. Samanta

क्या पुरानी जीवन-शैली फिर लौटेगी?

पार्किंग लॉट की गाड़ियों को देख कर जो सवाल मन में आते थे, उनमें एक यह सवाल भी था कि महामारी के बाद का जीवन कैसा होगा? क्या हम सब फिर अपनी अपनी पुरानी जीवन-शैलियों की ओर लौट जाएंगे? पार्किंग में खड़ी ये गाड़ियां क्या फिर सड़कों पर दौड़ेंगी? ऑटो कंपनियां क्या फिर नई नई गाड़ियां बाजार में उतारने के क्रम में लग जाएंगी? क्या लोग फिर से लाखों रूपए खर्च कर गाड़ियां खरीदने लग जाएंगे?

जवाब कुछ हद तक सामने आना शुरू हो गया है. दिल्ली में मई में 8,455 और जून में 23,000 नई गाड़ियों का पंजीकरण हुआ. ये कोरोना काल के पहले के समय जैसे आंकड़े नहीं हैं. उस समय दिल्ली में हर महीने 40 से 45,000 नई गाड़ियों का पंजीकरण होता था. लेकिन ये आंकड़े पहले की स्थिति की तरफ लौटने की शुरुआत के संकेत जरूर हैं. जानकार कह रहे हैं कि थोड़ा वक्त लगेगा लेकिन गाड़ियों की बिक्री फिर से पुराने स्तर पर पहुंच जाएगी.

लेकिन महामारी अभी गई नहीं है. यूरोप में संक्रमण के दूसरी लहर के आने की संभावना पर चर्चा चल रही है. भारत में तो पहली लहर का भी अभी अंत नहीं हुआ. कई राज्य फिर से तालाबंदी की और लौट रहे हैं. ऐसे में महामारी के बाद के समय की अभी ठीक से कल्पना करना शायद मूर्खता हो. लेकिन उस सबक को जरूर याद रखने की कोशिश करूंगा जो तालाबंदी का पहला दौर दे गया - हमें जीवन की आपाधापी में बीच बीच में रुकना भी चाहिए और अपने आप को और अपने इर्द गिर्द देख कर सोचना चाहिए.

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