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ताइवान के विश्व स्वास्थ्य संगठन में शिरकत पर बवाल क्यों

राहुल मिश्र
१८ मई २०२०

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एसेंबली में कोविड-19 और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर गहन चर्चा हो रही है. ये बहस ताइवान की भागीदारी पर विवाद के साए में हो रही है, इसलिए भी कि कोविड-19 पर काबू पाने में वह कामयाब रहा है.

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China WHO-Generaldirektor Tedros Adhanom Ghebreyesus in Pekin
तस्वीर: Reuters/H. Hwee Young

विश्व स्वास्थ्य असेम्बली डब्ल्यूएचओ और संयुक्त राष्ट्र का ही  हिस्सा है.  कोविड-19 पर होने वाली इस बैठक  की प्रासंगिकता इस बात से ही स्पष्ट है कि कोविड महामारी ने अब तक दुनिया के 213 देशों और टेरिटरीज को अपना शिकार बनाया है, 45 लाख संक्रमित लोगों के अलावा 3 लाख से अधिक लोगों की अब तक इसकी वजह से मौत हो चुकी है.

हालांकि डबल्यूएचओ का काम विश्व समुदाय और उनके प्रतिनिधि देशों की स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याओं से जूझना है, लेकिन कई देशों ने आरोप लगाया है की डबल्यूएचओ ने चीन के दबाव में आकर (या उसके साथ मिलकर) अपनी गलतियों को छुपाया और साथ ही ताइवान और उसके कोविड-19 से लड़ने में साझा की गयी जानकारी को नजरंदाज किया. नतीजतन दुनिया को जरूरी जानकारी समय पर नहीं मिल सकी. ध्यान रहे कि ताइवान डबल्यूएचओ का ऑब्जर्वर देश रहा है लेकिन आलोचकों का आरोप है कि नए डबल्यूएचओ प्रमुख डॉक्टर टेड्रोस की चीन से नजदीकियों के चलते ताइवान को 2016 के बाद से ऑब्जर्वर के तौर पर नहीं बुलाया जा रहा. ताइवान की स्वतंत्रता की पक्षधर राष्ट्रपति साई इंग-वेन के उसी साल सत्ता में आने और इस साल पुनर्निर्वाचित होने से भी इसे जोड़ कर देखा जाना चाहिए. डबल्यूएचओ की टेक्निकल मीटिंग में ताइवान को कभी-कभी मौका मिलता है. चीन से डबल्यूएचओ प्रमुख डॉक्टर टेड्रोस की नजदीकियों के चलते डबल्यूएचओ इस अनावश्यक विवाद में बेवजह ही पड़ गया है.

विश्व समुदाय में वापसी की चाहत

पिछले कुछ दिनों में ताइवान ने डब्ल्यूएचए की बैठक में शामिल होने की पुरजोर कोशिश की है. ताइवान का मानना है कि क्योंकि एक नॉन-वोटिंग ऑब्जर्वर के तौर पर 2009 से 2016 तक वह विश्व स्वास्थ्य असेम्बली की बैठकों में हिस्सा लेता रहा है इसलिये उसे इस असाधारण मौके पर अपनी बात रखने का अवसर दिया जाना चाहिए.

Taipeh Kinder mit Atemschutzmasken Kindergarten
मास्क पहने किंडरगार्टन जाते बच्चेतस्वीर: Taipeh , Taiwan, Coronavirus,Kinder , Mundschutz, Atemschutzmasken, Coronakrise

यहां दो बातें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. पहली यह कि चीन से इतनी ज्यादा आर्थिक और लोगों के बीच मजबूत पारस्परिक नजदीकियां और पर्यटन होने के बावजूद ताइवान ने कोविड से लड़ने में प्रशंसनीय सफलता पाई है. इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जहां दुनिया के तमाम देशों में कोविड के आंकड़े हजारों की संख्या में हैं तो वहीं 2.4 करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या वाले ताइवान में अब तक संक्रमण के 440 केस रहे हैं और सिर्फ 7 लोगों की मौत हुई है. लगभग सारी जनता ने क्वारंटीन नियमों और सरकार के निर्देशों का पालन किया है, कांटैक्ट ट्रेसिंग और टेक्नोलोजी के व्यापक स्तर पर उपयोग से ताइवान ने कोविड और उससे जुड़ी अफवाहों दोनों को क़ाबू में रखा है. राष्ट्रपति साई ने खुद जगह-जगह जा कर लोगों में कोविड से लड़ने का विश्वास दिलाया है और ये सभी प्रयास कारगर सिद्ध हुए हैं.

कामयाब कोरोना विरोधी रणनीति

ताइवान की कोविड से लड़ने की रणनीति शायद दुनिया में सबसे ज्यादा कामयाब रही है. कोविड संक्रमण की शुरुआत होते ही दिसंबर 2019 में ताइवान सरकार ने अपने वैज्ञानिकों को कोविड पर रिसर्च के लिए चीन भेजा. इन वैज्ञानिकों के वापस आने के बाद ताइवान सरकार ने चीन से जोड़ने वाली सारी हवाई उड़ानों को बंद कर दिया. तकदीर ने भी ताइवान का साथ दिया क्योंकि जनवरी-फरवरी के महीनों में चीनी नववर्ष की वजह से स्कूल-कालेज और तमाम दफ्तर बंद रहे. ताइवान की सरकार ने इसका फायदा उठाते हुए छुट्टियों को कुछ हफ्तों के लिए आगे बढ़ा दिया. यह रणनीति काम कर गयी और अन्य देशों की तरह ताइवान को कभी लॉकडाउन लागू नहीं करना पड़ा.

चीन को ताइवान के बैठक में शामिल होने पर आपत्ति है. अपनी "वन चाइना पॉलिसी” के तहत चीन का मानना रहा है कि ताइवान एक स्वतंत्र देश नहीं बल्कि चीन का एक प्रदेश मात्र है और ताइवान की अपनी कोई संप्रभुता नहीं है. 1970 के दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ताइवान के बदले पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (कम्युनिस्ट चीन) को मान्यता मिल गयी, हालांकि पहले लगभग ढाई दशक तक ताइवान को ही अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली हुई थी. लेकिन 1972 की निक्सन की चीन यात्रा के बाद तो मानो इस पर मुहर सी लग गयी. यही आज ताइवान के डबल्यूएचओ  बैठक में शिरकत करने के सामने सबसे बड़ी अड़चन है.

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ताइवान में किताब की दुकानतस्वीर: DW/J. Lee

ताइवान पर चीन का लगातार दबाव

कोविड संकट से पहले से ही चीन ने ताइवान पर कूटनीतिक, आर्थिक, और सामरिक दबाव बनाना शुरू कर दिया था. 2016 के बाद से डबल्यूएचओ  की तमाम बैठकों में ताइवान को शिरकत ना करने देना इसका एक उदाहरण है. पिछले साल चीन ने दुनिया की तमाम एयरलाइंस पर सफलतापूर्वक दबाव डाल कर ताइवान का नाम बदल कर "चीन का ताइवान प्रदेश” कराया. ऐसा करने वालों में भारत की एयर-इंडिया भी थी. कोविड की शुरुआत से ही चीन की चिन्ताएं बढ़ गयी हैं कि इस महामारी के बहाने ताइवान दुनिया के तमाम देशों का समर्थन और प्रशंसा हासिल कर लेगा. चीन की यह आशंका आज उसके लिए सिर्फ एक बुरा सपना नहीं बल्कि एक हकीकत बन रही है उसे लग रहा है कि वन चाइना पॉलिसी का उसका तिलिस्म टूट रहा है और 70 से अधिक सालों से अपनी स्वतंत्र पहचान और लोकतंत्र, मुक्त व्यापार, और मानवाधिकारों के पालक देश के रूप में ताइवान अपनी पहचान बना रहा है. कोविड ने ताइवान और खास तौर पर राष्ट्रपति साई की साख को निस्संदेह मजबूत किया है.

जहां एक ओर चीन ने ताइवान को रोकने की पुरजोर कोशिश की है तो वहीं ताइवान और अमेरिका, जापान, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे उसके समर्थक देश भी ताइवान को बैठक में आने के प्रस्ताव को समर्थन दे रहे हैं. इस बात पर दो राय नहीं होनी चाहिए कि कोविड पर अगर ताइवान अपने कुछ अनुभव साझा करना चाहता है तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, और यह भी कि डबल्यूएचओ  वैश्विक स्वास्थ्य संगठन का एक मंच है जिसे अनावश्यक राजनीति से दूर रहना चाहिए.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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