जर्मन संसद में पहला अश्वेत अफ्रीकी
२४ सितम्बर २०१३सेनेगल में जन्मे 51 साल के कराम्बा दियाबी पिछले तीन दशक से जर्मनी में हैं. 12 साल पहले उन्हें जर्मनी की नागरिकता मिली. 2008 में मध्य वामपंथी दल एसपीडी से जुड़ने वाले दियाबी इसके एक साल बाद ही पूर्वी जर्मन शहर हाले से काउंसिलर चुने गए. रविवार को हुए संसदीय चुनाव में जिस सीट के लिए वो लड़े थे वहां तो उन्हें हार मिली लेकिन एसपीडी के समानुपातिक प्रतिनिधित्व गुट में उन्हें एक जगह मिल गई है. उन्होंने कहा कि वो संसद में इस बात के लिए काम करेंगे कि घंटे के हिसाब से एक न्यूनतम मजदूरी सभी कामगारों को दी जाए. इसके साथ ही प्रवासियों को जर्मनी में आसानी से जुड़ने का मौका मिले यह भी उनके काम की प्राथमिकताओं में है. अश्वेत अफ्रीकियों में दियाबी जर्मन संसद तक पहुंचने वाले पहले सदस्य हैं. हालांकि उनसे पहले अफ्रीका में जन्मे लेकिन जर्मन मूल के एक और शख्स 1949 में बर्लिन की संसद में पहुंच चुके हैं.
रसायन विज्ञान में डॉक्टरेट हासिल करने वाले दियाबी को सेनेगल में उनकी बड़ी बहन ने पाला. 24 साल की उम्र में वह साम्यावादी पूर्वी जर्मनी में आ गए और 1985 में जर्मनी में बस गए. जर्मन लड़की से शादी की और उनके दो बच्चे हैं.
वैसे इस बार चुनाव में तीन भारतीय भी अपनी किस्मत आजमा रहे थे इनमें सिर्फ सेबास्टियन एडाथी को ही सफलता हाथ लगी. एसपीडी के सदस्य एडाथी एक दशक से लोअर सैक्सनी के लोगों का संसद में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. इस बार की जीत ने उनका कद और बढ़ा दिया है.
स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे ठोस बुनियादी मसलों को उठाने वाले एडाथी आम लोगों में तो काफी लोकप्रिय हैं लेकिन वे कट्टरपंथियों के निशाने पर भी हैं. एडाथी नवनाजियों के संगठन एनएसयू की जांच कर रहे आयोग के अध्यक्ष हैं और शायद इसी वजह से उन्हें अतिदक्षिणपंथियों की नापसंदगी झेली है. बहरहाल चुनावों में जीत ने उन पर भरोसा कर रहे लोगों की उनके प्रति वफादारी साबित कर दी है. एडाथी के पिता भारतीय राज्य केरल के हैं. वो बहुत पहले जर्मनी आए और यहीं बस गए. भारत और भारतीय लोगों में एडाथी का नाता प्रमुख रूप से केरल और केरल के भोजन के साथ ही प्रवासी भारतीय से रहा है. वो मानते हैं कि आम जर्मनों की तुलना में उनका संबंध भारत से ज्यादा है, यह बात और है कि जर्मन उन्हें भारतीय नहीं मानते.
भारत के दूसरे उम्मीदवारों में राजू शर्मा और योसेफ विंकलर थे. राजू लेफ्ट पार्टी डी लिंके तो योसेफ विंकलर ग्रीन पार्टी के हैं. ये दोनों इससे पहले जर्मन संसद में रहे हैं पर इस बार का चुनाव इन्हें बाहर का रास्ता दिखा गया है. इनके अलावा फ्री डेमोक्रैट पार्टी के नेता और आर्थिक मामलों के मंत्री फिलिप रोएसलर ने भी अपनी सीट गंवाई है. रोएसलर वियतनाम में पैदा हुए और जर्मनों ने उन्हें गोद लिया.
जर्मनी में कुल वोटों के 10 फीसदी पर विदेशी मूल के जर्मन नागरिकों का नाम है, लेकिन इनमें ज्यादातर तुर्क मूल के हैं. इस बार के चुनाव में कुल 81 उम्मीदवार ऐसे थे जो विदेशी मूल के जर्मन नागरिक हैं. कुल उम्मीदवारों में यह हिस्सेदारी करीब चार फीसदी है. सांस्कृतिक रूप से अलग होने के बावजूद लंबे समय से यहां रहे तुर्क अब मेहमान की तरह नहीं बल्कि आम लोगों की तरह ही यहां रच बस गए हैं. माना जाता है कि तुर्कों में ज्यादातर एसपीडी और ग्रीन पार्टी के साथ हैं. हाल के एक सर्वे में तो 42 फीसदी तुर्क वोटों के एसपीडी की तरफ जाने की बात कही गई थी. हालांकि इस बार के चुनाव में एसपीडी की हालत नाजुक ही रही. ग्रीन पार्टी इस मामले में दूसरे नंबर पर हैं जिन्हें सर्वे के मुताबिक 21.6 फीसदी तुर्क वोट मिलने के आसार थे. चुनाव के नतीजे उनके लिए भी बेहतर नहीं. इसके अलावा तुर्कों की एक अपनी पार्टी भी है, द बिग पार्टी. हालांकि इसे बहुत कम ही तुर्कों का समर्थन है. यह पार्टी अभी तुर्क समुदाय के बीच ही पैठ बनाने के लिए संघर्ष कर रही है.
रिपोर्टः एन रंजन (डीपीए)
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी