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गायों की वजह से मिली थी दुनिया को चेचक से मुक्ति!

फ्रेड श्वालर
८ जुलाई २०२२

विज्ञान की सबसे महान उपलब्धियों में से एक 8 मई 1980 को हासिल हुई थी को जिस दिन चेचक के वायरस का खात्मा हुआ था. उससे पहले, चेचक ने मानव इतिहास की एक अलग ही शक्ल बना दी थी. दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए थे.

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गायों ने दिखाया था पहले टीके का रास्ता
गायों ने दिखाया था पहले टीके का रास्तातस्वीर: Himanshu Sharma/NurPhoto/picture alliance

अकेले 20वीं सदी में चेचक वायरस से कोई 30 करोड़ लोगों की जान गई थी. वैज्ञानिकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य का ख्याल रखने वालों की लंबी और कठिन कोशिशों के सैकड़ों साल बाद 1970 के दशक मे विश्वव्यापी टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किए गये जिसने चेचक का अंत किया. एक सवाल सवाल यह भी है कि दुनिया का पहला टीका कैसे बनाया गया था?  इन टीके को बड़ी मात्रा में बचाए रखना और मंकीपॉक्स जैसी बीमारियों में इस्तेमाल करना क्यों जरूरी है?

काउपॉक्स- लोक कथाओं के सबक

टीकों का वैज्ञानिक आधार वास्तव में लोककथाओं से आता है. 18वीं सदी में यह अफवाह थी कि इंग्लैंड में ग्वालिनों को अक्सर काउपॉक्स हो जाता है लेकिन चेचक उनसे दूर रहता है.  काउपॉक्स यानी गोशीतला, चेचक जैसी ही बीमारी है लेकिन उससे हल्की है और मौत की आशंका भी कम रहती है. अब माना जाता है कि चेचक के वायरस जैसे ही एक वायरस से यह भी फैलती है.

जब एडवर्ड जेनर नाम के एक डॉक्टर को इन कहानियों का पता चला तो उन्होंने टीकाकरण पर अपने काम के लिए काउपॉक्स पर प्रयोग करना शुरू किया. 1790 के दशक में जेनर ने एक नौ साल के बच्चे की त्वचा में काउपॉक्स के पस की एक खुराक को पहुंचाने में सुई का इस्तेमाल किया. आगे चलकर बच्चे को चेचक हुआ तो उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता मौजूद थी. 

संक्रमण से बचाव के खिलाफ पस का इस्तेमाल करने वाले जेनर पहले व्यक्ति नहीं थे. तुर्की, चीन, अफ्रीका और भारत में 10वी सदी के दौरान ही ऐसी विधियां अलग अलग ढंग से ईजाद की जा चुकी थीं. चीन के डॉक्टर नाक तक सूखी हुई चेचक सामग्री फूंक मार कर उड़ाते थे, तुर्की और अफ्रीकी डॉक्टर, जेनर की तरह त्वचा के भीतर पस को पहुंचाते थे. ये तरीके बेशक जोखिम भरे थे लेकिन लोगों ने चेचक से बचाव के बदले, हल्की बीमारी और मौत की कम आशंका को स्वीकार किया.

अपने स्रोत के बावजूद, जेनर के शोध के बाद ही वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत ने चेचक को रोकने में पस की संभावित भूमिका पर गौर किया. जेनर के कार्य ने चेचक से बचाव का एक प्रमाणित और कम जोखिम भरा तरीका विकसित किया जो बीमारी के इलाज में एक मील का पत्थर बना.

काउपॉक्स वायरस स्मॉलपॉक्स से काफी मिलता जुलता है लेकिन उतना खतरनाक नहीं
काउपॉक्स वायरस स्मॉलपॉक्स से काफी मिलता जुलता है लेकिन उतना खतरनाक नहींतस्वीर: Science Photo Library/IMAGO

टीकाकरण का विस्तार

19वीं सदी के मध्य और आखिरी दिनों में टीकाकरण की मांग पूरी दुनिया में फैल गई. इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में तमाम जनता के लिए टीकाकरण मुफ्त था और बाद में इसे अनिवार्य कर दिया गया. समाज के उच्च वर्ग की औरतों में चेहरे को दागों के बचने के लिए टीकाकरण को लेकर काफी तत्परता थी. दूसरी तरफ टीका लगा चुके लोगों या चेचक से छुटकारा पा चुके लोगों को बच्चो के साथ सुरक्षित ढंग से काम करने की इजाजत मिल गई थी.

टीकाकरण कार्यक्रम आर्थिक कारणों से भी संचालित थे. अभिजात तबके जानते थे कि गरीबों मे चेचक फैलने का मतलब मजदूरों की कमी होना था. निजी सेहत की सुरक्षा के साथ साथ सामाजिक संपदा की हिफाजत के कारण से भी सबके लिए टीकाकरण लक्ष्य बना. 

यह भी पढ़ेंः टीके के खिलाफ यूरोप में आजादी का काफिला

लेकिन आज की तरह, उस दौरान टीकाकरण अभियानों को लेकर समाज में मोटे तौर पर प्रशंसा का अभाव था. कई लोगों को लगता था कि वह बहुत जोखिम भरा था जबकि धार्मिक आलोचक टीकाकरण को ईश्वरीय योजनाओं में दखल मानते थे.  

19वीं सदी में जर्मनी के यहूदी विरोधी नस्ली समूहों ने भी दावा किया कि टीके, जर्मन लोगों को खत्म करने की एक वैश्विक यहूदी साजिश का हिस्सा थे. हाल में कोविड 19 के टीकाकरण विरोधी अभियानों में भी उसी किस्म की नस्ली भावनाएं और साजिशें देखी गई थीं. 

एक आधुनिक टीका

चेचक का आधुनिक टीका 1950 के दशक में आया था. ज्यादा विकसित वैज्ञानिक तरीकों का मतलब था कि उसे अलग करने और फ्रीज कर सुखाने से लंबे समय तक संभाल कर रखा जा सकता था और दुनिया भर में उसका एक समान वितरण किया जा सकता था.

चेचक के नये टीके में दरअसल चेचक का वायरस नहीं बल्कि उसके जैसा लेकिन उसके कम नुकसानदेह पॉक्सवायरस, वैक्सीनिया था. काउपॉक्स के टीकों की तरह वैक्सीनिया से त्वचा मे एक छोटा सा दाना उभर आता है जहां वायरस अपनी प्रतिकृति बनाता है. शरीर की रक्षा प्रणाली फिर उसे पहचान कर नष्ट करना सीख जाती है.

टीके के विकास ने दुनिया को वायरसों से सुरक्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई है
टीके के विकास ने दुनिया को वायरसों से सुरक्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई हैतस्वीर: Jens Schlueter/Getty Images

चेचक से लड़ने के इस असरदार, सुरक्षित तरीके की मदद से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1950 के दशक में अपना पहला चेचक उन्मूलन अभियान शुरू किया था. उसे उम्मीद थी कि हर देश में 80 फीसदी वैक्सीन कवरेज हो पाएगी.

टीके की आपूर्ति और अल्पविकसित देशों में खासतौर पर स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में कमी को देखते हुए ये लक्ष्य मुश्किल साबित हुआ. फिर भी, कार्यक्रम काफी सफल रहा. 1966 में महज 33 देशों में चेचक एक स्थानीय बीमारी के रूप में सीमित हो गई. चेचक से होने वाली आखिरी बीमारी सोमालिया में 1977 में उभरी थी. तीन साल बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक के पूरी तरह खत्म हो जाने का एलान कर दिया. 

चेचक उन्मूलन संभवतः मानवता की सबसे महान उपलब्धियों मे से है. चेचक खासतौर पर एक जानलेवा बीमारी थी. मृत्यु दर करीब 30 फीसदी थी. जो बच गए थे उन्हें स्थायी रूप से दाग मिल गए थे और बुखार, दर्द, थकान और उल्टी जैसे लक्षणों से भी जूझना पड़ा था.

चेचक के टीके ने दिखाया रास्ता

चेचक के खात्मे का मतलब दुनिया खुली हवा में सांस ले सकती थी. लेकिन उस कामयाबी से दुनिया क्या सबक ले सकती है?

चेचक के टीकाकरण की कोशिशों ने पोलियो और कोविड 19 जैसे बहुत सारे वैश्विक टीकाकरण अभियानों का रास्ता खोला है. चेचक से छुटकारे की पुरानी कोशिशों के दम पर ही आज हम कोविड 19 के टीकाकरण की रफ्तार और असर को बढ़ा पाए हैं. 

दिसंबर 2019 में सार्स कोविड 2 की पहली बार पहचान हुई थी और पहला टीका एक साल बाद दिसंबर 2020 में इस्तेमाल के लिए मंजूर किया गया था. तब से, वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम वायरस के खिलाफ दुनिया में बचाव मुहैया कराने के लिए टीका लगाने में असमानता जैसे मुद्दों से जूझते आ रहे हैं.

आखिर में, चेचक भले ही खत्म हो चुका है लेकिन उसके टीके आज मंकीपॉक्स जैसे वायरसों से बचाव के खिलाफ हमारे काम आ रहे हैं.

फिलहाल, जर्मनी में मंकीपॉक्स की चपेट में आने की आशंका वाले लोगों के लिए चेचक के टीके इम्वानेक्स को मंजूरी दे दी गई है. हालांकि आम आबादी पर इसके इस्तेमाल की अभी सिफारिश नहीं की गई है. क्योंकि जानकारों के मुताबिक मंकीपॉक्स वैश्विक महामारी नहीं बनेगी.