खत्म हो अमानवीय सजा का चलन
१ अप्रैल २०१५मौत की सजा के खिलाफ तर्क झकझोरने वाले हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक मौत की सजा जीवन के अधिकार का हनन करती है और यह "दर्दनाक, अमानवीय और अपमानजनक सजा" है. यहां सवाल सिर्फ यह नहीं है कि सजा पाने वाले व्यक्ति की जान कैसे ली जा रही है, बल्कि वह मानसिक तकलीफ भी शामिल है जिससे वह सजा पाने से पहले गुजरता है.
कई बार मौत की सजा सिर्फ हत्या जैसे मामलों में ही नहीं बल्कि ऐसे मामलों में दी जाती है जो जघन्य अपराध की श्रेणी में आते भी नहीं, जिनके लिए अंतरराष्ट्रीय कानून के अंतर्गत मौत की सजा दी जाए. जैसे ड्रग्स संबंधी अपराध. आमतौर पर मौत की सजा देने वाले देशों में इसका मकसद या तो लोगों को डराना होता है, या बदला लेना होता है, या फिर भ्रष्ट समर्थकों को चुप कराना या विरोधियों को खामोश करना होता है. 1933 से 1945 के बीच नाजी जर्मनी में भी इसी तरह मौत की सजा का चलन था. स्पष्ट है कि जर्मनी में आज क्यों इसे मान्यता नहीं है.
वे देश जहां मौत की सजा का चलन आम है वे हैं चीन, उत्तर कोरिया, ईरान, सऊदी अरब. इनमें से कोई भी लोकतांत्रिक परंपरा के लिए नहीं जाना जाता. ईरान और सऊदी अरब में 2013 में 369 और 79 लोगों को मौत की सजा दी गई. इन देशों ने उन लोगों को भी मौत की सजा दी जो अपराध के समय नाबालिग थे. चीन दुनिया में किसी भी देश से ज्यादा मौत की सजा देता है. साल 2013 में यहां 1000 लोगों को मौत की सजा दी गई. सूडान में किसी भी अन्य अफ्रीकी देश से ज्यादा मौत की सजा दी जाती है. 2014 में इराक में 169 और यमन में एक दर्जन से ज्यादा लोगों को मौत की सजा दी गई. बांग्लादेश युद्ध अपराधियों को लगातार मौत की सजा सुना रहा है और उन्हें युद्ध अपराध ट्रिब्यूनल के सामने फांसी पर लटका रहा है. और अब पाकिस्तान ने भी पेशावर हमले के बाद मौत की सजा से पाबंदी हटा ली और एक बार फिर लोगों को फांसी पर चढ़ाया जा रहा है.
बहुत से देशों में न्याय तंत्र में इतने दोष होने की संभावना है कि आरोपी को सही न्याय मिलेगा इस बात की गारंटी भी नहीं. दुनिया के सबसे पहले लोकतंत्र अमेरिका में मौत की सजा का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है. ज्यादातर मौत की सजा पाने वाले एफ्रो-अमेरिकन हैं. वहां हम अक्सर सुनते हैं कि सबूतों के साथ छेड़छाड़ की गई. 20वीं सदी में करीब 100 लोग ऐसे माने जाते हैं जिन्हें अमेरिका में मौत की गलत सजा दी गई. ऐसे ही एक अन्य लोकतंत्र का उदाहरण जापान है जो कि चिंता पैदा करने वाला है.
मौत की सजा के समर्थन में अक्सर डर पैदा करने की दलील दी जाती है. हालांकि यह सिद्ध हो चुका है कि मौत की सजा के होने से बड़े अपराधों, ड्रग की तस्करी या किसी अन्य अपराध को होने से नहीं रोका जा सकता. हालांकि एक बार जब अपराध हो गया तो मौत की सजा के चलते अपराधी के सुधार या वापसी की संभावना खत्म हो जाती है. हो सकता है इससे पीड़ित के परिवार को राहत पहुंचे या उनके बदले की भावना पूरी हो, लेकिन अपील की लंबी चलने वाली अदालती कार्रवाइयों में सभी तकलीफ से गुजरते हैं. साथ ही कई मामलों में खासकर जहां अपराध में राजनीतिक मकसद जुड़ा होता है, मौत की सजा से मरने वाला शहीद कहलाता है और इसके बाद बदले की भावना के साथ और खून ही बहता है.
कई मामलों में अपराध करने वाले अपनी गलती मानते हैं और उसके लिए शर्मिंदा भी होते हैं. कुछ पूरी तरह बदल जाते हैं जिन्हें माफी और तवज्जो दी जानी चाहिए. कुछ अपने आपको शिक्षित करते हैं, किताबें लिखते हैं, धर्म की ओर झुकने लगते हैं या फिर अपनी गलती की सजा से निपटने के लिए कोई और रास्ता अपनाते हैं. इसके विपरीत वे जिनमें कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता, उनके लिए मौत की सजा से ज्यादा बेहतर विकल्प है कि उन्हें समाज से दूर रखने के लिए जेल में रखा जाए.
सालों तक चलने वाली अदालती कार्रवाइयों पर भारी रकम खर्च होती है. अपराधी को मौत की सजा दिलाने के लिए जो भारी रकम खर्च की जाती है उसे हिंसा के शिकार लोगों की मदद में बेहतर ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है. ये दलीलें पक्की और ठीक-ठाक लगती हैं. यहीं मामले का अंत हो जाना चाहिए, लेकिन अफसोस कि अब तक ऐसा नहीं है.