कृष्णा सोबती को आखिरकार मिला ज्ञानपीठ
३ नवम्बर २०१७पाकिस्तान में चिनाब नदी के किनारे छोटे से पहाड़ी कस्बे में 18 फरवरी 1925 को कृष्णा सोबती का जन्म हुआ था. वो इस समय हिंदी में जीवित सबसे वयोवृद्ध महिला रचनाकार हैं और शायद सबसे बूढ़ी उपन्यासकार भी. पिछले कुछ समय से बीमार कृष्णा सोबती उम्र के इस पड़ाव में भी अपनी अदम्य जिजीविषा और रचना जीवट के लिए जानी जाती हैं. हाल में उनका एक आत्मकथात्मक उपन्यास आया था, "गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दोस्तान तक.” इस उपन्यास में सोबती ने विभाजन की यातना और जमीन से अलग होने की त्रासदियों के बीच अपने युवा दिनों के संघर्ष की दास्तान सुनाई है. तत्कालीन राजनीतिक हालात, रियासतों के विलय को लेकर उधेड़बुन, रियासतों के आंतरिक संघर्ष और दिल्ली की नई सरकार की पेचीदगियों का बड़े ही रोचक अंदाज में सोबती ने इस किताब में जिक्र किया है. राजस्थान की एक रियासत की ये दास्तान अपनी भाषाई मिठास और एक करुण थ्रिल में गुंथी हुई है.
लेखन के जरिए खुद से संवाद को महत्त्व देने वालीं सोबती हिंदी लेखन मे जाने माने उपन्यासकारों, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदैव वैद की समकालीन रही हैं. उपन्यास मित्रो मरजानी में संयुक्त परिवार में ब्याही एक औरत अपनी यौनिकता का पुरजोर और खुलेआम इजहार करती है और अपनी यौन इच्छाओं को तृप्त न कर पाने के लिए अपने पति को फटकार देने से भी गुरेज नहीं करती है. साठ के दशक में आए इस उपन्यास ने हिंदी जगत में उस समय तहलका ही मचा दिया था. "जिंदगीनामा” उनका एक महाकाव्यात्मक नॉवल माना जाता है. पंजाब के एक गांव की कहानी का आख्यान दशकों की दास्तानों में गुंथा हुआ है और भाषा बोलियों का तो ये अद्भुत संसार है ही. इसी उपन्यास की बदौलत सोबती हिंदी में साहित्य अकादमी पाने वाली पहली महिला लेखिका बनीं. इस उपन्यास से जुड़ा ऐतिहासिक कॉपीराइट विवाद, उस दौर की नामचीन और वरिष्ठ लेखिका अमृता प्रीतम के खिलाफ अदालत तक खिंच गया था. स्त्री और पुरुष की बराबर निगाह से अपनी रचनाओं में जीवन अनुभवों का वर्णन करने वाली सोबती ने "हम हशमत” पुरुष छद्मनाम से लिखा था जो अपने समकालीनों पर एक जीवंत और रोचक डॉक्यूमेंटेशन है. डार से बिछुड़ी, सूरजमुखी अंधेरे के, समय सरगम उनके अन्य उपन्यास हैं. "सिक्का बदल गया” जैसी कालजयी कहानी लिखकर सोबती भारतीय साहित्य में अमिट हस्ताक्षर बनीं. अनायास नहीं है कि कृष्णा सोबती, साहित्य के नोबेल पुरस्कार की दक्षिण एशिया और एशियाई महाद्वीप से एक प्रमुख हकदार रही हैं.
सोबती ने एक ऐसी विलक्षण गद्य भाषा हिंदी को दी है जो अपने आंतरिक सौंदर्य में तो पाठक को चमत्कृत करती ही है, अपनी साहसिक सामाजिक नैतिक दृष्टि की वजह से भी अभिभूत करती है. उनकी रचनाएं एक ऐसे आधुनिक समय की वेदना और यथार्थ को सामने लाती हैं जिन्हें विकास और अन्य चहलपहल में अनदेखा ही किया जाता रहा है. वे समकालीन समय की सच्चाईयों को कहने वाली सूत्रधार हैं. और इस समकालीनता में सबसे उत्पीड़ित वर्गों में से एक स्त्री के जीवन और विडंबना को रेखांकित करती हैं. इसके बावजूद वो स्त्रीवादी होना का दंभ नहीं भरती हैं. वो कह चुकी हैं कि स्त्री या पुरुष लेखन कोई अलग अलग चीज नहीं है. अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने अपना किस्सा बताया था- किसी ने उनसे पूछा कि औरत होना क्या होता है तो उनका जवाब थाः औरत होने का अर्थ ये है कि उन्हें संविधान में पुरुषों जैसे ही अधिकार प्राप्त हैं.
दक्षिण एशियाई फलक पर अगर साहित्य में देखें तो कुरर्तुलएनहैदर, इस्मत चुगताई, अमृता प्रीतम जैसी दिग्गज पूर्ववर्ती लेखिकाओं से अलग, कृष्णा सोबती अपनी रचनाओं में एक विशिष्ट संवेदना, मुहावरे और बहुत स्थानिक पर्यावरण की खुशबू संजोए, हमें उद्वेलित, विचलित और रोमांचित करती हैं. लेखन से इतर सामाजिक जीवन में भी कृष्णा सोबती सक्रिय और मुखर रही हैं. 90 पार की उम्र में अस्वस्थता के बावजूद 2015 में कृष्णा सोबती ही थी जिन्होंने हिंदी साहित्यिक बिरादरी की ओर से देश में असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठायी थी और कड़े शब्दों में धार्मिक कट्टरपंथ और हिंसाओं का विरोध करते हुए अपना साहित्य अकादमी अवार्ड वापस कर दिया था.
शिवप्रसाद जोशी