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एफआईआर पर अदालती सख्ती

२८ नवम्बर २०१३

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत की जनता ने ब्रिटिश शासन का कुछ स्वागत किया क्योंकि पहली बार सबके लिए एक कानून स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी. इसके पहले शासक का हुक्म ही कानून था.

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तस्वीर: Reuters

इसकी वजह से कुलीन वर्ग के लिए न्याय व्यवस्था काफी कुछ अलग थी. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में भी शासक अंग्रेजों के प्रति भी न्याय व्यवस्था का रवैया अलग था, लेकिन भारतीयों पर कानून समान ढंग से ही लागू किए जाते थे. इसके साथ ही यह भी सही है कि औपनिवेशिक शासन तंत्र में पुलिस की भूमिका मुख्य रूप से दमनकारी मशीनरी की ही थी, जिसकी सहानुभूति जनता के साथ न होकर शासक वर्ग के साथ थी.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था तो लागू कर दी गई, किन्तु नौकरशाही या पुलिस के स्वरूप और उनकी भूमिका को लोकतांत्रिक बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई. पिछले 67 वर्षों के दौरान कई पुलिस सुधार आयोग गठित किए गए लेकिन उन सभी की सिफारिशें धूल ही फांकती रहीं. इसलिए आज भी स्थिति यह है कि आम नागरिक थाने जाने से डरता है क्योंकि उसे इस बात का कतई भरोसा नहीं है कि वहां उसकी सुनवाई होगी. फरियाद लेकर जाने वाले का वहां अक्सर उत्पीड़न ही होता है. यदि कोई पुलिस के पास रपट यानी एफआईआर लिखाने जाता है तो अधिक संभावना होती है कि उसकी रपट नहीं लिखी जाएगी. इसके पीछे अक्सर दो कारण होते हैं. एक तो यह कि पुलिस का जनता की शिकायतों के प्रति रवैया लापरवाही का होता है और दूसरा यह कि रपट लिखने से उस थाने के अधिकार क्षेत्र में आने वाले इलाके में होने वाले अपराधों की संख्या बढ़ जाती है और इसे थानाध्यक्ष के रिकॉर्ड के लिए ठीक नहीं समझा जाता.

सुप्रीम कोर्ट का दखल

समस्या की गंभीरता का पता इस बात से चल जाता है कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ को यह निर्देश जारी करना पड़ा है कि संज्ञेय अपराधों के मामलों में पुलिस को एफआइआर दर्ज करनी ही पड़ेगी. संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में हत्या, चोरी, डकैती, बलात्कार और अपहरण जैसी वारदात आती हैं, जिनमें आरोपी पर मुकदमा राज्य द्वारा दायर किया जाता है. 12 नवंबर को फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि उसके अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष देश में संज्ञेय अपराधों के 60 लाख मामलों में पुलिस रपट दर्ज नहीं करती जो नागरिकों के अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है. गंभीर अपराधों में पुलिस यह नहीं कह सकती कि वह पहले जांच पड़ताल करेगी और उसके बाद रपट दर्ज करेगी.

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पुलिस पर एफआईआर दर्ज करने का दबावतस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस पी सदाशिवम ने फैसले में लिखा है कि इस मामले में पुलिस को विवेकाधिकार, विकल्प या ढील की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि रपट दर्ज न करने से नागरिकों का कानून के शासन के प्रति भरोसा कम होता है और दीर्घकालिक दृष्टि से कानून व्यवस्था की स्थिति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. लोकतंत्र और स्वाधीनता के सिद्धांतों की मांग है कि पुलिस के अधिकारों पर नियमित एवं प्रभावी अंकुश लगाया जाए और ऐसा करने का एक तरीका यह है कि उसकी हर कारगुजारी का बाकायदा लिखित रिकॉर्ड रखा जाए. अपराधों की जांच करना और अपराधियों को दंड देना राज्य का कर्तव्य है और इसके लिए संज्ञेय अपराधों की रपट लिखना पुलिस के लिए अनिवार्य है.

सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य के मुकदमे में सुनाया. ललिता कुमारी के पिता ने अपनी नाबालिग लड़की के अपहरण की रपट लिखाने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने इनकार कर दिया. पुलिस का तर्क था कि शिकायत की जांच के बाद यदि उसमें सचाई पाई जाएगी, तभी रपट लिखना जरूरी होगा और इस संबंध में निर्णय लेने का उसे अधिकार है. उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त अन्य राज्यों ने भी यही विचार व्यक्त किया, इसलिए इस मसले पर पांच सदस्यीय संविधान पीठ का गठन किया गया. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को कानून का दर्जा प्राप्त है, इसलिए अब से देश में यही कानून लागू होगा कि गंभीर संज्ञेय अपराधों की रपट लिखना पुलिस के लिए अनिवार्य है.

व्यवस्था में भ्रष्टाचार

पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है. अक्सर संगीन अपराध करने वाले प्रभावशाली और अमीर लोगों पर पुलिस हाथ नहीं डालती क्योंकि ऐसे लोगों से उसे कई किस्म के लाभ होते हैं. जब से राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है और राजनीति में अपराधियों का दखल बढ़ा है, पुलिस यूं भी उनसे टकराव मोल लेते हुए हिचकिचाती है. ऐसे लोग उसे राजनीतिक संरक्षण भी दे सकते हैं और उसकी मुट्ठी भी गरम कर सकते हैं. इसलिए उसे अपनी शिकायत लेकर आए गरीब आदमी की रपट लिखने की जरूरत महसूस नहीं होती. नतीजतन आम आदमी इंसाफ की तलाश में धक्के खाता है और अपराधी चैन की बंसी बजाते हैं.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सब कुछ ठीक हो जाएगा, ऐसी उम्मीद करना व्यर्थ होगा. लेकिन इसके कारण पुलिस की कार्यप्रणाली के बेहतर होने की संभावना जरूर बनेगी क्योंकि वह रपट दर्ज करने के बाद हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठ सकती. उसे मामले की जांच करनी ही होगी ताकि दोषियों को सजा मिल सके. इससे लोकतांत्रिक अधिकारों का दायरा फैलेगा और आम आदमी को कुछ राहत जरूर मिलेगी.

ब्लॉगः कुलदीप कुमार

संपादनः अनवर जे अशरफ