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आतंकवाद विरोधी कानूनों की समीक्षा

२८ जनवरी २०१३

सुरक्षा या निजता. इस सवाल से हर आतंकवाद विरोधी कानून का सामना होता है. जर्मनी में एक आयोग बनाया गया है जो संसदीय चुनाव से पहले, अगले छह महीनों में आतंकवाद विरोधी कानूनों की समीक्षा करेगा.

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तस्वीर: dapd

नागरिक अधिकारों के वकील और उदारवादी पार्टी एफडीपी के सदस्य बुर्कहार्ड हिर्श कहते हैं, "11 सितंबर के बाद पूरी दुनिया में और जर्मनी में भी कई नए कानून बहुत जल्दबाजी में बनाए गए. इसने जिसे अब सुरक्षा संरचना कहा जा रहा है, उसे बदल दिया है."

ये कानून उस विशेषज्ञ आयोग की वजह हैं जो सोमवार से कानून मंत्री सबीने लौएटहौएजर-श्नारेनबर्गर के नेतृत्व में काम शुरू कर रहा है. वह 11 सितंबर 2001 के बाद से पास कानूनों की समीक्षा करेगा और देश में 10 हत्याओं के लिए जिम्मेदार भूमिगत नवनाजी गुट के हत्यारों को पकड़ने में विफलता के नतीजे तय करेगा.

हिर्श कहते हैं कि आतंकवादी और कट्टरपंथी खतरे का समय रहते पता करने के लिए नियंत्रण और हस्तक्षेप के विकल्पों का बड़ा सामाजिक राजनीतिक महत्व है. "इसने पुलिस और खुफिया कार्रवाई को प्रभावित किया है. इसलिए अब स्थिति की समीक्षा करने और यह पूछने का समय आ गया है कि क्या सब कुछ कानून के शासन के आधार पर किया गया है या फिर हम निगरानी वाले राज्य की ओर बढ़ रहे हैं."

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चिंता का कारण बने नियो नाजीतस्वीर: privat

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हालांकि पिछले दशक के कानूनों की न्यायिक समीक्षा हुई है, लेकिन किसी ने अब तक व्यापक समीक्षा नहीं की है. खास तौर पर संवेदनशील मुद्दा डाटा की रक्षा और आतंकवाद से सुरक्षा का है. इस मामले में आयोग को स्पष्ट रुख अपनाना होगा. खासकर आतंकी हमलों की तैयारी में इस्तेमाल हो सकने वाले टेलीफोन और कंप्यूटर से संबंधित डाटा को लंबे समय तक जमा रखने पर भी लंबे समय से विवाद है.

आयोग कुछ अन्य संवेदनशील मुद्दों पर भी विचार करेगा. उनमें जर्मनी की घरेलू खुफिया सेवा को अतिरिक्त अधिकार देना शामिल है. 9/11 के हमलों के बाद खुफिया सेवा को संदिग्धों पर नजर रखने के लिए विमान कंपनी, पोस्ट और दूर संचार कंपनियों के डाटा को देखने का अधिकार दिया गया है. संदिग्धों के वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण के लिए भी नए कानून बनाए गए हैं. लेकिन आयोग का ध्यान आतंकवाद का सामना करने के लिए खुफिया गतिविधियों और पुलिस कार्रवाई से संबंधित कानूनों पर केंद्रित होगा.

आयोग में संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल हैं. उनमें से एक राजनीतिशास्त्री प्रोफेसर हाइनरिष अमाडेओस वोल्फ हैं. उनका कहना है कि इस मुद्दे की संवेदनशीलता नाजी काल के ऐतिहासिक बोझ से जुड़ी है, जब सुरक्षा संरचना निरंकुश शासन के नियंत्रण में थी. "हम केंद्रीय स्तर पर कार्यकारी अधिकारों वाला कोई खुफिया पुलिस, शक्तिशाली संघीय पुलिस या खुफिया एजेंसियां नहीं चाहते." वोल्फ कहते हैं कि राज्यों के अधिकार को देखते हुए जिम्मेदारी का बंटवारा अक्सर अत्यंत समस्याजनक होता है.

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जांच के तरीकों पर बहस जरूरीतस्वीर: picture alliance/dpa

चुनावी दबाव और सुरक्षा

इस साल संसद के चुनाव होने वाले हैं. इसकी वजह से विशेषज्ञों पर खासा दबाव होगा. कैबिनेट ने अगस्त 2012 में सुरक्षा कानूनों की समीक्षा के लिए एक अस्थायी समिति बनाने का फैसला किया था. उस समय समझा गया था कि समिति के पास एक साल का समय होगा. अब विशेषज्ञों के पास कुछ ही महीनों का समय है. फरवरी से पतझड़ में चुनाव होने तक. हकीकत में समय और कम है. साल के बीच में ही चुनाव प्रचार शुरू हो जाएगा और वह सुरक्षा के मुद्दों पर उद्देश्य परक बहस को मुश्किल बना देगा.

वोल्फ कहते हैं, "यह कोई खास सौभाग्यशाली स्थिति नहीं है विशेषज्ञों की समिति संसदीय अवधि के छह महीने पहले गठित हो रही है." वे कहते हैं कि उन्हें इस बात का खतरा लगता है कि आयोग नौकरशाही का औजार बन सकता है. दक्षिणपंथी आतंकवाद की विशेषज्ञ अनेटा काहाने इससे सहमत हैं, "जर्मनी आयोग बनाने में माहिर है, लेकिन आम तौर वे बहुत कम नतीजे देते हैं." काहाने का कहना है कि यदि आम लोगों के संकेतों पर ध्यान दिया गया होता तो स्विकाऊ के आतंकी सेल को बहुत पहले पकड़ा जा सकता था.

अनेटा काहाने जांच के दौरान हुई गलतियों की ओर ध्यान दिलाती हैं, जिन्हें कड़े सुरक्षा कानून भी नहीं रोक सकते हैं. "1990 के दशक के अंत में यह बताने पर जोर था कि थ्युरिंजिया प्रांत में अत्यंत आक्रमक नवनाजीवादी गुट हैं जो घरेलू खुफिया सेवा के साथ सहयोग कर रहे हैं." वे कहती हैं कि उनके साथियों का भी यही अनुभव था. "हमने उग्र दक्षिणपंथियों और खुफिया एजेंसी की निकटता के बारे में राजनीतिक हल्कों को बताने की कोशिश की. हमें बताया गया कि यदि हमारी जानकारी सही भी हो तो हर चीज के लिए अच्छे कारण हैं.

अनेटा काहाने राजकीय संस्थानों और नागरिक संगठनों के बीच सहयोग को बेहतर बनाने की मांग करती हैं. उनका कहना है कि यह सहयोग बराबरी के आधार पर होना चाहिए.

रिपोर्ट: योहान्ना श्मेलर/एमजे

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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