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असली सूत्रधार अब भी आज़ाद

७ मई २०१०

नवंबर 2008 में मुंबई में हुए हमलों के एकमात्र जीवित आतंकवादी मुहम्मद अजमल कसाब पर चले मुकदमे के फ़ैसले और उसे सुनाई गई फांसी की सज़ा का समाचार जर्मन मडिया ने भी दिया, पर टीका-टिप्णी नहीं के बराबर की.

https://p.dw.com/p/NIr9
तस्वीर: AP

केवल जर्मन प्रेस एजेंसी डीपीए ने कसाब को सुनाई गई सज़ा के विस्तृत समाचार के साथ-साथ उस पर टिप्पणी भी की. एजेंसी ने लिखाः

"भारत तीन दिनों तक चले उस आतंक के आघात से अभी तक उबर नहीं पाया है. 26/11 का सारे देश के लिए वही अर्थ बन गया है, जो पश्चिमी दुनिया के लिए 9/11 का है.... आतंकवादी हमलों की उस कड़ी ने भारत को न केवल पोर-पोर तक झकझोर दिया, पाकिस्तान के साथ शांति वार्ताओं की प्रक्रिया को भी पटरी पर से उतार दिया.... पाकिस्तान भी विदेशों में होने वाले आतंकवादी हमलों के कारण सब की आंखों में चढ़ता जा रहा है. सबसे नया उदाहरण है न्यू यॉर्क के टाइम्स स्क्वायर पर हुए विफल हमले के लिए एक जन्मजात पाकिस्तानी की गिरफ्तारी."

केस अभी ख़त्म नहीं

प्रमुख दैनिक पत्रों में ज्यूरिच, स्विट्ज़रलैंड के नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग ने कसाब को सुनाई गई सज़ा पर लिखाः

"मौत की सज़ा सुना देने भर से कसाब का केस समाप्त नहीं हो गया. सबसे पहले तो अगली ऊँची अदालत-- मुंबई का उच्च न्यायालय-- उसकी जांच-परख करेगा. उसके बाद अभियुक्त सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है और अंत में भारत के राष्ट्रपति से क्षमादान की याचना कर सकता है. इस तरह के आवेदनों का उत्तर देने के लिए समय की कोई सीमा नहीं है. अधिकतर मृत्युदंड आजीवन कारावास में बदल दिये जाते हैं, लेकिन जनता का इस समय जैसा मूड है, उसे देखते हुए कसाब के मामले में यह असंभव ही लगता है."

इसी पत्र यानी नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग ने कसाब को दोषी ठहराये जाने के बाद सप्ताह के शुरू में लिखा थाः

लश्कर-ए-तोईबा का कुछ नहीं बिगड़ा

"2008 वाले आतंकवादी हमले के बाद से पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तोइबा के ख़िलाफ़ शायद ही कुछ किया है. उसका मुखिया हाफ़िज़ मुहम्मद सईद अब भी आज़ाद है और पंजाब में जड़ वाले इस संगठन का सारा तानाबाना भी बना हुआ है. सेना और गुप्तचर सेवा के साथ उसके घनिष्ठ रिश्तों पर भी शायद ही कोई आंच आयी है. वह अब भी धड़ल्ले से नौजवानों को भर्ती कर रहा है और उन्हें आतंकवाद का प्रशिक्षण दे रहा है."

Hafiz Mohammed Sayeed Gründer und Führer der extremistischen Moslemorganisation Lashkar-e-Toiba in Pakistan
लश्कर के मुखियातस्वीर: dpa

एक अन्य दैनिक फ़्रांकफ़ुर्टर रुंडशाऊ ने कसाब को सुनाई गई सज़ा के बारे में लिखाः

"असली सूत्रधार तो अदालत में थे ही नहीं. वे सीमा के पार पाकिस्तान में और संभवतः दूसरे देशों में सुरक्षित दूरी पर बैठे हुए हैं."

असली दुश्मान अब भी भारत

बहुत संभव है कि न्यू यॉर्क के टाइम्स स्कवायर पर बम हमले के विफल प्रयास की गहमागहमी के कारण जर्मन मीडिया कसाब वाले मामले पर अधिक ध्यान नहीं दे पाये. वहां जिस पाकिस्तानी को पकड़ा गया है, उसे पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान इलाके में आतंकवाद की ट्रेनिंग मिली है. इस पर म्यूनिक के ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग का मत थाः

"आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में पाकिस्तानी नेताओं ने हाल ही में अपने आप को पश्चिम का भरोसेमंद साथी दिखाने की कोशिश की थी. तब भी इस्लामाबाद और वॉशिगटन के हित एक जैसे नहीं हैं. न्यू यॉर्क वाले हमले की विफलता एक बार फिर इस गठजोड़ के विरोधाभासों को उजागर कर देती है... पाकिस्तानी राजनीति और सेना का नेतृत्वकारी वर्ग अब भी यही माने बैठा लगता है कि उसे अपने असली दुश्मान भारत पर ध्यान केंद्रित करना है, इस्लामवादी भूत को तो वह किसी भी समय बोतल में बंद कर सकता है. इसीलिए वह वज़ीरिस्तान में आतंकवादियों और उनके प्रशिक्षण शिविरों के विरुद्ध पूरे मन से कार्रवाई नहीं कर रहा है."

गिलानी का आत्मविश्वास

पाकिस्तान में संविधान संशोधन के बाद प्रधानमंत्री का पद अब राष्ट्रपति से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. दैनिक ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग का कहना है कि भूटान में हुए दक्षिण एशियाई शिखर सम्मेलन के समय प्रधानमंत्री गिलानी एक नये आत्मविश्वास से भरे लग रहे थे. पत्र का कहना हैः

"पाकिस्तान लंबे समय तक अपने यहां आतंकवाद की समस्या को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था, बल्कि अपने आप को अमेरिका द्वारा चलाये जा रहे संघर्ष का शिकार मान रहा था. गिलानी ने ही अपने एक भाषण में जनता को उग्रवादियों से लड़ने की क़सम दिलाई. वे अब एक ऐसे देश की सरकार चला रहे हैं जिस की समस्याएं आतंकवाद की अपेक्षा कहीं दूर तक जाती हैं."

लोकसभा की दुर्दशा

साप्ताहिक पत्र दी त्साइट के एक प्रतिनिधि ने भारत के संसद भवन को देखा. उसने पाया कि संसद भवन की बाहरी दीवार की बहुत-सी खिड़कियां टूटी हुई हैं और स्वातकक्ष की मेज़ों के नीचे कचरे के ढेर जमा हैं. पत्र ने एक निर्दलीय सांसद से पूछा, देश के सबसे सम्मानित भवन की यह हालत क्यों है, जबकि दिल्ली में एक से एक आलीशान बिल्डिंगें बन रही हैं. जवाब थाः

"इस समय संसद में बहुत-सी विषमताएं हैं और वह कमज़ोर है. केंद्रीय सत्ता की प्रभुसत्ता जब अक्षुण बन जायेगी, तभी संसदीय प्रणाली भी पूरी तरह फलफूल पायेगी... दो दशकों से निचली जातियों के सांसदों की संख्या बढ़ रही है. उन के पास पैसा है, पर सामाजिक दर्जा नहीं. उन के तौरतरीके ज़रा रूखे-सूखे हैं."

संकलन- अना लेमान / राम यादव