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हिंदूवाद के जमाने में अंबेडकर के मायने

कुलदीप कुमार१३ अप्रैल २०१६

अचानक ही बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए अहम बन गए हैं. अंबेडकर की 125वीं जयंती पर जानिए क्या हैं आज के युग में उनके सिद्धांतों के मायने.

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Shankar Cartoon Jawaharlal Nehru und Dr BR Ambedkar
अंबेडकर और नेहरू के इस कार्टून पर कुछ साल पहला इतना बवाल हुआ कि इसे स्कूली किताबों से हटाना पड़ा.तस्वीर: Shankar

आज भारत के सभी प्रमुख अखबारों में भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय की ओर से पूरे एक पृष्ठ का विज्ञापन निकला है और इसके जरिये लोगों को कल संसद भवन परिसर में संविधाननिर्माता बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती पर होने वाले समारोह में शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया गया है. आज ही संयुक्त राष्ट्र भी भारत सरकार द्वारा प्रायोजित करने के कारण पहली बार अंबेडकर की 125वीं जयंती मना रहा है.

मोदी का अंबेडकर प्रेम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कल अंबेडकर के जन्मस्थान मऊ में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करेंगे और 'ग्राम उदय से भारत उदय' कार्यक्रम का उदघाटन करेंगे. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने इस अवसर पर सफाई कर्मचारियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है. पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉ. भीमराव अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर का शिलान्यास करते हुए कहा था कि वे अक्सर यह सोचते हैं कि यदि अंबेडकर न होते तो नरेंद्र मोदी कहां होता.

पिछले माह अंबेडकर स्मृति व्याख्यान देते हुए उन्होंने अंबेडकर को मार्टिन लूथर किंग की तरह 'विश्वमानव' बताते हुए आश्वस्त किया था कि आरक्षण एक ऐसा अधिकार है जिसे कोई छीन नहीं सकता और उनकी सरकार के खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप निराधार है कि वह 'दलित-विरोधी' हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा को जानने वाले लोग उनके इस अंबेडकर प्रेम को देखकर दांतों तले उंगली दबा रहे हैं. हिंदुत्ववादी संगठनों की विचारधारा के केंद्र में हिंदू समाज का संगठन और उसके आधार पर भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलने का स्वप्न है. भारत के गौरवशाली अतीत का गुणगान करना और उसकी सभी विकृतियों और समस्याओं के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों को दोष देना उसकी प्रकृति की विशिष्टता है. संघ के तो अधिकांश प्रमुख भी अभी तक ब्राह्मण ही हुए हैं और उसे एवं उसके आनुषंगिक संगठनों को ब्राह्मणवादी मूल्यों का समर्थक माना जाता है.

इसके विपरीत भीमराव अंबेडकर का समूचा जीवन ब्राह्मणवाद और उस पर आधारित जातिव्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हुए बीता. इस संघर्ष के दौरान हुए अनुभवों ने उन्हें इतना कटु बना दिया कि 1935 में ही उन्होंने घोषणा कर दी कि वे पैदा तो जरूर हि़दू हुए हैं, लेकिन हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं. अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले 1956 में अंबेडकर अपने हजारों अनुयायियों के साथ सार्वजनिक रूप से उसी नागपुर में, जहां संघ का केंद्रीय कार्यालय है, बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए थे.

फिर उठा जय भीम का नारा

1980 के दशक में जहां एक ओर हिंदुत्ववादी राजनीति का प्रभाव बढ़ा, तो वहीं दूसरी ओर कांशीराम के नेतृत्व में दलित राजनीति में उभार आया और 1990 तक आते-आते वह अन्य दलों को चुनौती देने की हालत में आ गई. आज भी मायावती दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं और दलित अस्मिता भारतीय राजनीति की चर्चा के केंद्र में आ गई है. 1960 के दशक से ही मुस्लिम-दलित राजनीतिक गठजोड़ की बातें की जाती रही हैं और विश्व हिंदू परिषद ने सामाजिक सुधार कार्यक्रम चलाकर इस चुनौती का सामना करने की कोशिश भी की है लेकिन उसे इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली क्योंकि लोग शब्द पर नहीं, कर्म पर विश्वास करते हैं.

पिछले कुछ महीनों के दौरान एक नई बात देखने में आई है और वह यह कि देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षा संस्थानों में एक सशक्त छात्र आंदोलन उठ खड़ा हुआ है और 'जय भीम-लाल सलाम' इसका प्रमुख नारा है. यानि वामपंथी ताकतों और दलितों के राजनीतिक गठजोड़ की सफल कोशिश की जा रही है. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह खतरे की घंटी है. आश्चर्य नहीं कि आरएसएस के 'पांचजन्य' और 'ऑर्गनाइजर' जैसे मुखपत्र मार्क्स और अंबेडकर को जोड़ने को 'कुत्सित कृत्य' बताकर उसकी कड़ी आलोचना कर रहे हैं.

अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, जहां दलित नेता मायावती चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उनके जीतने की काफी संभावना लग रही है. ऐसे में भाजपा के लिए दलित वोट बैंक में सेंध लगाना अनिवार्य हो गया है. वैचारिक रूप से दो विपरीत ध्रुवों पर होने के बावजूद अंबेडकर का महिमामंडन करना उसकी राजनीतिक मजबूरी है. लेकिन सवाल यह है कि क्या उसकी ये चालें दलितों को प्रभावित कर पाएंगीं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार