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हाईकोर्ट के फैसले के बावजूद सियासत जारी

निर्मल यादव८ सितम्बर २०१६

केजरीवाल सरकार दिल्ली के हक हुकूक के लिए लड़ते लड़ते खुद ही कानून के फेरे में लगातार उलझती जा रही है. दिल्ली हाईकोर्ट ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के फैसले को गैरकानूनी करार दिया है.

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Indien Wahlen Arvind Kejriwal
तस्वीर: picture alliance/landov

पहले राजनिवास बनाम दिल्ली सरकार के मामले में अदालत से मुंहकी खाने के बाद अब आप के 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के मामले में केजरीवाल सरकार को अपने ही फैसले हाथ वापस खींचने पड़े. गुरुवार को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को रद्द करने से साफ जाहिर है कि केजरीवाल के लिए आगे की डगर आसान नहीं है.

रद्द हुई नियुक्ति

एक जनहित याचिका पर दिये गये फैसले का रोचक पहलू यह है कि अदालत ने केजरीवाल सरकार द्वारा अपना यह फैसला खुद ही वापस लेने का हलफनामा देने पर संसदीय सचिवों की नियुक्ति को रद्द किया है. इससे भी मजेदार बात यह है कि एक तरफ केजरीवाल सरकार ने अदालत में अपने ही फैसले से हाथ वापस खींच लिया वहीं केंद्र सरकार संसदीय सचिवों की नियुक्ति को रद्द नहीं करने की मांग कर रही थी. मामले की कानूनी पेंचीदगी दोनों सरकारों से यह सब करवा रही थी.

गुरुवार को सुनवाई के दौरान केजरीवाल और मोदी सरकार, दोनों ने 13 जुलाई के अपने रुख से पूरी तरह से पल्टी मार दी. एक तरफ केजरीवाल सरकार ने सुनवाई के दौरान 13 जुलाई को यह मामला चुनाव आयोग में भी लंबित होने के कारण हाईकोर्ट से कोई आदेश पारित नहीं करने की दलील दी थी. वही दलील आज केंद्र सरकार ने दी.

केंद्र सरकार ने 13 जुलाई को 21 विधायकों को उपराज्यपाल की मंजूरी के बिना संसदीय सचिव बनाने के केजरीवाल सरकार के फैसले को रद्द करने की मांग की थी, यह बात आज केजरीवाल सरकार ने अदालत से खुद कह दी. दोनों पक्षों का रुख पलटने के पीछे चुनाव आयोग में यह मामला लंबित होने की मजबूरी है. पिछली सुनवाई को एक तरफ केंद्र सरकार के लिए हाईकोर्ट से दिल्ली सरकार का फैसला रद्द कराने पर चुनाव आयोग में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष मजबूत हो जाता वहीं केजरीवाल सरकार ने अब अपना रुख बदल कर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की है. हालांकि दोनों तीर निशाने पर लगेंगे या नहीं यह चुनाव आयोग के फैसले पर ही निर्भर करेगा.

आप की रणनीति

दरअसल केजरीवाल सरकार ने हाईकोर्ट के माध्यम से संसदीय सचिवों की नियुक्ति को खारिज करवाकर चुनाव आयोग से संसदीय सचिवों की विधानसभा सदस्यता रद्द होने से बचाने का दांव चला है. आप सरकार ने हाईकोर्ट में पेश हलफनामे में कहा है कि 4 अगस्त के हाईकोर्ट के फैसले में उपराज्यपाल को दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख करार दिये जाने के बाद सरकार संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द करने जा रही है. क्यों कि मार्च 2016 में इनकी तैनाती से पहले उपराज्यपाल की मंजूरी नहीं ली गई थी.

कुल मिलाकर सरकार अपने फैसले को भूतलक्षी प्रभाव से वापस लेकर चुनाव आयोग में यह साबित करने का प्रयास करेगी कि दिल्ली में संसदीय सचिवों की नियुक्ति की ही नहीं गई लिहाजा यह याचिका ही अर्थहीन हो गई है. आप के रणनीतिकारों का मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों में 21 विधायकों की विधानसभा सदस्यता बचाने का यही एकमात्र कारगर तरीका है.केजरीवाल सरकार ने भले ही अपना पैंतरा बदलकर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की हो लेकिन लक्ष्यभेदन शक से परे नहीं है.

मुद्दा लाभ का पद

चुनाव आयोग में इस मामले के पक्षकार बनने की अपील करने वाले दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन की दलील को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. उनका कहना है कि नियुक्ति का फैसला सरकार द्वारा भूतलक्षी प्रभाव से रद्द करने से संसदीय सचिवों द्वारा उठाया गया लाभ कानून की नजर में निष्प्रभावी नहीं हो जाता है. ऐसे में इन विधायकों ने बतौर संसदीय सचिव जो सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाया है उसके कारण लाभ के पद का मामला खत्म नहीं किया जा सकता है.

वैसे भी चुनाव आयोग में लाभ के पद का मामला लंबित है. जिसमें संसदीय सचिवों की तैनाती को रद्द करने की नहीं बल्कि संसदीय सचिव का पद लाभ का पद होने के कारण इनकी विधायकी रद्द करने की चुनाव आयोग से मांग की गई है. चुनाव आयोग में जनप्रतिनिधित्व कानून और दिल्ली राज्य स्थापना अधिनियम के उल्लंघन का मामला लंबित है जबकि हाईकोर्ट ने दिल्ली के प्रशासनिक कामकाज संबंधी नियमों के उल्लंघन का हवाला देकर दिल्ली सरकार के फैसले को रद्द किया है. कानून की पेंचीदगी सियासत की रपटीली राहों के लिए मुश्किलें पैदा करती है. यह बात नए तरीके की सियासत शुरू करने का दावा करने वाली टीम केजरीवाल को अब धीरे धीरे ही सही मगर समझ में आने लगी है.