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हर चीज पर राजनीति अच्छी नहीं

महेश झा
१ अगस्त २०१६

भारत में महिलाओं के साथ होने वाली हर ज्यादती पर आक्रोश भड़क उठता है. लेकिन सरकारें और समाज उस पर काबू पाने में पूरी तरह विफल है. महिला मुद्दों पर राजनीति करने के बदले समान अधिकारों को लागू करने की शुरुआत होनी चाहिए.

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Symbolbild Gruppenvergewaltigung in Indien
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool

राजनीतिज्ञों का काम राजनीति करना है. लेकिन उसका मकसद समाज को बेहतर बनाना और प्रशासन को चुस्त बनाना होना चाहिए. बुलंदशहर के निकट हाईवे पर एक महिला और उसकी बच्ची के साथ गैंगरेप के बाद जिस तरह की राजनीति हो रही है उसमें केंद्र में महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा तो है ही नहीं. राजनीति इस बात पर हो रही है कि कौन जिम्मेदार है, और किसे पद से हटाया जाना चाहिए, किसे अपने पद से हट जाना चाहिए. ऐसी मांगे वे करते हैं जो खुद सुशासन और शुचिता की मिसाल कायम कर चुके हों या जो अपनी पार्टी की ऐसी उपलब्धियों की ओर ध्यान दिला सकें. लेकिन भारत में केंद्र और राज्य में सत्ता में रही कोई पार्टी ऐसी नहीं है जो यह दावा कर सके. सरकारों का काम नागरिकों की नागरिकों से रक्षा है. महिलाओं के खिलाफ हिंसा में जिस तरह की बर्बरता और क्रूरता दिख रही है उसमें यह भूमिका और भी अहम दिखती है. लेकिन इस जिम्मेदारी को पूरा करने में भारत की हर सरकार नाकाम है, सरकार में आने की कोशिश कर रही किसी भी पार्टी के पास इसकी योजना भी नहीं है. राजनीति का मकसद जनहित के बदले स्वहित हो गया है.

सालों के पिछड़ेपन के बाद विकास के तेज रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे भारत में आर्थिक से ज्यादा बदलाव सामाजिक स्तर पर आ रहा है. ऐसे में प्रशासन में ऐसे लोगों की जरूरत है जो छोटे से छोटे स्तर पर आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के साथ साथ समाज में उसकी वजह से आ रहे बदलावों को भी दिशा दे सकें. लेकिन राजनीतिक पार्टियां सिर्फ सत्ता पर काबिज होने को अपना लक्ष्य मानती हैं. सामयिक और भविष्य की जरूरतों के हिसाब से प्रशासन चला पाने के लिए उनके कार्यकर्ताओं के पास न तो प्रशिक्षण है और न ही प्रेरणा. जहां पार्टियों से जुड़े संगठन सुशासन में मदद देने के बदले विरोधियों की सरकारों के लिए कानून और व्यवस्था की मुश्किलें पैदा करते रहें, जहां प्रमुख राजनीतिक नेता राजनीति के लिए और अपने समर्थकों को साथ रखने के लिए दूसरे नेताओं पर आरोप लगाकर, मुकदमे कर पुलिस का दुरुपयोग करें, वहां पुलिस से अपराध निरोध की उम्मीद करना बेमानी होगा.

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महेश झा

2012 में निर्भया कांड के बाद, जबकि राजधानी दिल्ली की सड़कों पर पुलिस एक लड़की को बर्बर अपराधियों से सुरक्षा देने में नाकाम रही थी, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानूनी सख्तियां की गई हैं. लेकिन उसके बाद भी लड़कियों से छेड़छाड़, बलात्कार और गैंग रेप की घटनाएं रुकी नहीं हैं. बुलंदशहर का गैंगरेप देश के असुरक्षित स्थानों का एक और विस्तार है. अगर सरकारें नागरिकों को सुरक्षा देने के प्रति सचमुच गंभीर हैं तो पुलिस प्रशासन का आधुनिकीकरण जरूरी है. अपराध के हिसाब से अपराध नियंत्रण व्यवस्था बनाने के लिए हर जिले में ज्यादा पुलिस बलों की भर्ती, उनका विशेष प्रशिक्षण, उन्हें आधुनिक साज सामान मुहैया कराना होगा. पुलिस बल के प्रशिक्षण के लिए पुलिस कॉलेज और पुलिस विश्वविद्यालय बनाने की जरूरत इससे ज्यादा पहले कभी नहीं थी. इसके लिए संसाधनों की जरूरत को अतिरिक्त टैक्स लगाकर पूरा किया जा सकता है. आयकर लेने का आधार पेशा न होकर वार्षिक आय होना चाहिए. देहाती इलाके के लोगों से भी टैक्स लेने से उनका ध्यान भी सरकार के बढ़ रहे खर्चों की ओर जाएगा. अधिक अपराध का मतलब अपराध नियंत्रण पर अधिक खर्च भी है.

लोगों को इस बात के प्रति आगाह करने की भी जवाबदेही राजनीतिक दलों की है. स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा हर सरकार की आधारभूत जिम्मेदारी होती है. और इन्हें लागू किया जाए तो रोजगार के अवसर भी पैदा होते हैं. लेकिन अगर समाज का एक वर्ग असुरक्षित हो तो वह न तो बेझिझक शिक्षा ले पाएगा और न ही रोजगार कर पाएगा. ऐसे में देश का विकास रुकेगा ही. अगर महिलाओं के खिलाफ अपराध कम नहीं हो रहे हैं तो उसका लेना देना लोगों की सोच से भी है. वह तभी बदलेगी जब महिलाओं को समाज के हर इलाके में बराबरी मिले. किसी भी समाज में नैतिकता के समान स्तर तभी लागू हो सकते हैं जब राजनीतिक सत्ता में महिलाओं का बराबर का हिस्सा हो. समय आ गया है कि गैंगरेप जैसे मामलों पर राजनीति के बदले महिलाओं के अधिकारों को सख्ती से लागू किया जाए.

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