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स्वास्थ्य पर पड़ोसियों से कम खर्च करता है भारत

प्रभाकर मणि तिवारी
२२ जून २०१८

सरकार के तमाम दावों के बावजूद भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर बदहाल नजर आती है. साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है.

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Indien tödliches Nipah-Virus
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इस बदहाली पर मुहर लगा दी है. इसमें कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर महज एक एलौपैथिक डाक्टर है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में यहां जीडीपी का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है जो पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम है. देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन महज तीन रुपए खर्च किए जाते हैं.

क्या कहती है रिपोर्ट

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि  वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच से मधुमेह और हाइपरटेंशन की मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी होने का खुलासा हुआ है. एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी बढ़ गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, देश डाक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है. फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डाक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक प्रति एक हजार (1:1000) होना चाहिए. यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है. बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भयावह है. वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डाक्टर है. उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है.

मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया  के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डाक्टर पंजीकृत थे. इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डाक्टर हैं. बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डाक्टर व मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है. लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले कम ही है. इसका मतलब है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए देश को फिलहाल और पांच लाख डाक्टरों की जरूरत है.  लगातार बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए यह खाई हर साल तेजी से बढ़ रही है. 

 गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत काफी बदहाल है. वहां डाक्टरों की भारी कमी है. इस कमी का फायदा उठाते हुए उन इलाकों में झोला छाप डाक्टरों की तादाद तेजी से बढ़ी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में एलोपैथिक डाक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है.  देश में फिलहाल मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की 67 हजार सीटें हैं. इनमें से भी 13 हजार सीटें पिछले चार सालों में बढ़ी हैं. बावजूद इसके डाक्टरों की तादाद पर्याप्त नहीं है. सामाजिक संगठन मेडिकल एड के प्रवक्ता आशीष नंदी कहते हैं, "केंद्र की आयुष्मान भारत योजना ने कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं. लेकिन डाक्टरों की कमी दूर नहीं होने तक खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसका खास फायदा मिलने की उम्मीद कम ही है."

पड़ोसियों से पीछे                                                                                                                                           

स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है. यहां इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है.  इस मामले में यह मालदीव (9.4 फीसदी, भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) और नेपाल (1.1 फीसदी) से भी पीछे है. दक्षिण एशिया क्षेत्र के दस देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले नीचे से दूसरे स्थान पर है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य के मद में खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है. लेकिन भारत अब तक वर्ष 2010 में तय लक्ष्य के मुताबिक यह खर्च दो फीसदी करने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सका है. ऐसे में ढाई फीसदी का लक्ष्य हासिल करना बेमानी ही लगता है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि मौजूदा हालात में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय लक्ष्यों को समयसीमा के भीतर हासिल करना असंभव है. इनमें नवजात शिशुओं की मृत्यदर घटाने और वर्ष 2025 तक तपेदिक यानी टीबी को पूरी तरह खत्म करने जैसे लक्ष्य शामिल हैं. उक्त रिपोर्ट में इस बात का खुलासा नहीं किया गया है कि स्वास्थ्य के मद में आम लोग अपनी जेब से कितनी रकम खर्च करते हैं. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में स्वास्थ्य के मद में होने वाले कुल खर्च का 67.78 फीसदी लोगों की जेब से निकलता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 18.2 फीसदी है. गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि  स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं.

भावी तस्वीर

वैसे, इस बदहाली के बावजूद केंद्र सरकार ने हालात में सुधार का भरोसा जताया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा कहते हैं, "राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना आयुष्मान भारत शुरू होने के बाद लोगों की जेब से होने वाले खर्चों में कमी आएगी." इसके तहत दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख का सालाना स्वास्थ्य बीमा मिलेगा. वर्ष 2016-17 के दौरान देश में महज 43 करोड़ लोगों ने किसी न किसी तरह का स्वास्थ्य बीमा कराया था.  यह कुल आबादी का 34 फीसदी है. 

मेडिकल एड के आशीष नंदी कहते हैं, "सरकारी दावों के बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में तस्वीर निकट भविष्य में सुधरने की खास उम्मीद नहीं है. स्वास्थ्य क्षेत्र को सुधारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को साझा प्रयास करने होंगे." पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, "स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवंटन नहीं बढ़ाने की वजह से ही निजी क्षेत्र मरीजों को मनमाने तरीके से लूट रहे हैं." उनका कहना है कि मौजूदा हालात की वजह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वह भारी-भरकम रकम चुकाकर बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जा रहे हैं. इन संगठनों का कहना है कि सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके.

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