सुरक्षित पर्यावरण भी मानवाधिकार
१० दिसम्बर २०१५इन दिनों पेरिस में विश्व पर्यावरण सम्मेलन में इतिहास लिखने की तैयारी हो रही है. लेकिन यह साफ नहीं है कि अच्छे या बुरे रूप में. पेरिस में ही आज से 67 साल पहले मानवाधिकारों के आम बयान की घोषणा हुई थी. तब से 10 दिसंबर मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. इस साल भी चीन, सऊदी अरब और ईरान में मौत की सजा के अत्यधिक इस्तेमाल की आलोचना करने का मौका है. या फिर यातना, पुलिस उत्पीड़न और वैचारिक स्वतंत्रता के दमन की आलोचना. इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार की तारीफ की जा सकती है जो ट्यूनीशिया के राष्ट्रीय संवाद चौकड़ी को गया है.
जलवायु परिवर्तन
पेरिस में हो रहे जलवायु सम्मेलन के वार्ताकारों से अपील की जा सकती है कि वे मानवाधिकारों की घोषणा के आर्टिकल 3 पर ध्यान दें. यह जीने के अधिकार की गारंटी करता है. लेकिन जलवायु परिवर्तन ने जान लेना शुरू कर दिया है, बड़ी तादाद में और कभी सीधे तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से. सीधे इसलिए कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आंधी तूफान और बाढ़ जैसी घटनाएं बढ़ गई हैं. 1995 से 2014 तक चक्रवाती तूफानों और बाढ़ में 500,000 लोग मारे गए हैं. जलवायु का बदलना इतनी जटिल प्रक्रिया है कि सीधे जिम्मेदारी ठहराना मुश्किल है लेकिन यह साफ है कि जलवायु की अति बढ़ रही है.
जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप में इस तरह जान ले रहा है कि वह राज्यों को अस्थिर कर रहा है. मिसाल है सीरिया, जहां लाखों की जान लेने वाला और करोड़ों को विस्थापित करने वाला गृहयुद्ध सालों के सूखे के बाद शुरू हुआ. 15 लाख किसानों को देहात छोड़कर शहरों में जाना पड़ा. ऐसे समय में जब सीरिया को इराक के लाखों शरणार्थियों का दबाव झेलना पड़ रहा था.स्थिर समाज भी ऐसी परिस्थितियों में हिल जाएंगे, सीरिया में कुशासन और बाहरी हत्सक्षेप ने हालत और खराब कर दी.
सुरक्षा को खतरा
मिसाल है बोको हराम. यह संयोग नहीं है कि आतंकी संगठन का उदय चाड झील के सूखने के साथ जुड़ा हुआ है. यदि 3 करोड़ लोगों, किसानों, पशुपालकों और मछुआरों की जिंदगी पहले के मुकाबले सिर्फ 20 प्रतिशत जमीन पर सिमट जाए तो बंटवारे का संघर्ष मुश्किल हो जाता है. और जब गरीबी और संभावनाओं का अभाव भी हो तो युवाओं की भर्ती का आतंकी ग्रुपों का काम आसान हो जाता है.
यहां तक कि अमेरिकी सेना ने भी जलवायु परिवर्तन को सुरक्षा के लिए जोखिम बताया है. यह साफ भी है. तापमान के बढ़ने से बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होगा और शरणार्थी एक जगह से दूसरी जगह जाएंगे. संसाधनों की लड़ाई, खासकर पानी के लिए सख्त हो जाएगी. और यह हमेशा शांतिपूर्ण नहीं रहेगा. यह भी साफ है कि दुनिया में भूखमरी बढ़ेगी, जबकि आज ही हमारा अत्यंत समृद्ध समाज सभी लोगों का पोषण करने की हालत में नहीं है. हर तीन सेकंड पर एक इंसान भूखमरी से मर रहा है. ज्यादतर बच्चे हैं.
क्या हमें इसे नियति मान लेना चाहते हैं? आराम की वजह से, आदत की वजह से? कल्पनाशक्ति के अभाव की वजह से कि किस तरह जिंदगी और अर्थव्यवस्था को टिकाऊ तरीके से चलाया जा सकता है? क्योंकि आर्थिक हित बहुत शक्तिशाली लगते हैं? लोग अच्छी तरह जानते हैं कि जिंदगी इस तरह से नहीं चल सकती है. पेरिस में औद्योगिक देशों को और प्रयास करने होंगे, दूसरों को साथ देना होगा. मामला हमारे ग्रह का नहीं है, वह हमारे बिना भी रह सकता है. मामला हम इंसानों का है.
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