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सुनने की सस्ती मशीन बनाएगा भारत

मुरली कृष्णन/एए२३ नवम्बर २०१४

सुनने की इन मशीनों को बायोनिक कान कहा जा रहा है. ये कृत्रिम कान हैं जो जल्द ही काफी सस्ते दामों पर बाजार में उपलब्ध होंगे. इसके साथ ही भारत इम्प्लांट विकसित करने वाले चुनिंदा देशों के समूह में शामिल हो जाएगा.

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Bionic Ear
तस्वीर: Defence Research Development Organisation (DRDO), 2014

भारत में कम लागत वाले कॉक्लिर इम्प्लांट पर काम कर रहे शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि वह जल्द ही इसका क्लिनिकल परीक्षण शुरू करेंगे और बायोनिक कान को अगले साल तक बाजार में पेश करेंगे. भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने दो साल तक चले परीक्षणों को पूरा कर लिया है और उम्मीद है कि पूरी तरह से स्वदेशी डिजाइन बहुत ही जल्द व्यावसायिक रूप से उत्पादन के लिए तैयार होगा. उनका कहना है कि कॉक्लियर इम्प्लांट लागत में कमी ला सकता है और हजारों लोगों को इसका लाभ मिल सकता है.

बायोनिक कान का डिजाइन इस तरह से तैयार किया गया है जिसमें आंतरिक कान में स्थित तंत्रिका में विद्युत उत्तेजना की मदद से सुनाई भावना पैदा की जा सके. ऑपरेशन की मदद से मरीज के कान के पीछे वाले हिस्से में एक उपकरण इम्प्लांट किया जाता है. उपकरण एक बाहरी ध्वनि प्रोसेसर का इस्तेमाल करता है जो कान के पीछे फिट किया जाता है और इसे बाहरी तरफ पहना जाता है. ध्वनि प्रोसेसर आवाज को पकड़ता है और उसे डिजिटल कोड में तब्दील कर देता है. फिर ध्वनि प्रोसेसर डिजिटली कोडिड आवाज को कॉयल के जरिए ट्रांसिमट करता है, जिसे त्वचा के नीचे लगे इम्प्लांट तक पहुंचाया जाता है.

Indien Dr Bhujanga Rao
वैज्ञानिक डॉ. भुजंग राव को साल भर में इन कानों के प्रत्यारोपण की उम्मीदतस्वीर: DW/M. Krishnan

जब इस इम्प्लांट का उत्पादन व्यावसायिक रूप से होने लगेगा तो इसकी कीमत एक लाख रुपये से लेकर डेढ़ लाख तक होगी. आयातित उपकरणों की कीमत सात लाख के करीब होती है. डीआरडीओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक भुजंग राव के मुताबिक, "भारत में कानों की दिक्कत एक मुख्य समस्या है. हमारे यहां करीब दस लाख लोग बहरेपन का शिकार हैं और उन्हें इस कॉक्लियर इम्प्लांट की जरूरत है. अत्यधिक लागत को देखते बहुत लोग सुनने के उपकरण को खरीद नहीं पाते हैं और इसी वजह से मैंने स्वदेशी, कम लागत और आसानी से खरीदने वाला सामान बनाया है." बायोनिक ईयर प्रोजेक्ट के मुख्य डिजाइनर और प्रमुख जांचकर्ता राव का कहना है कि स्वदेशी इम्प्लांट का देश के कई प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया जा चुका है.

टीम के सदस्य डॉक्टर जितेंदर मोहन हंस कहते हैं कि कम लागत वाला इम्प्लांट गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करेगा, "यह सब ध्वनि तकनीक है. अगर ध्वनि उत्पादन की गुणवत्ता और स्पष्टता बेहतर है तो जाहिर तौर पर इम्प्लांट की लागत ऊंची होगी." लेकिन वह कहते हैं कि इस इम्प्लांट में सिर्फ आठ चैनल होंगे, जबकि अन्य प्रणालियों में 24 चैनल होते हैं.

शोध का काम अब क्लिनिकल परीक्षणों पर केंद्रित है और इस प्रक्रिया के लिए 50 लोगों का चयन किया गया है. देश भर के कई केंद्रों में परीक्षण किए जाएंगे. कॉक्लियर इम्प्लांट का 90 फीसदी बाजार ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया और अमेरिका की तीन कंपनियों के कब्जे में है. अगर यह परीक्षण सफल साबित होते हैं तो भारत इम्प्लांट विकसित करने वाले चुनिंदा देशों के समूह में शामिल हो जाएगा.