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सीबीआई जांच का मामला है व्यापमं

६ जुलाई २०१५

जिस तेजी के साथ व्यापमं से जुड़े आरोपियों और गवाहों की संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत्यु हो रही है, उसे देखते हुए यह आश्चर्यजनक लगता है कि अभी तक राज्य की बीजेपी सरकार इसकी जांच सीबीआई से न कराने पर अड़ी हुई है.

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तस्वीर: AP

पिछले दो दिनों के भीतर इस मामले की छानबीन करने दिल्ली से मध्यप्रदेश गए एक टीवी पत्रकार और एक मेडिकल कॉलेज के डीन की संदिग्ध मृत्यु ने इस घोटाले को और भी अधिक रहस्यमय बना दिया है. पिछले दिनों इस मामले की जांच कर रहे पुलिस के विशेष जांच दल के दो वरिष्ठ अफसरों ने भी अपनी जान को खतरा होने आशंका व्यक्त की थी. अभी तक इस मामले से जुड़े 46 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है और यह संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इस घोटाले का रहस्य उजागर करने में सक्षम सभी आरोपियों और गवाहों को सुनियोजित तरीके से एक-एक करके रास्ते से हटाया जा रहा है. राज्य और केंद्र में भाजपा की सरकारें हैं जो भ्रष्टाचार, भय और भूख से मुक्त समाज के निर्माण का नारा देकर सत्ता में आयी हैं. लेकिन जहां राज्य सरकार इस मामले से जुड़ी हर मौत को स्वाभाविक बताने पर तुली है, वहीं केंद्र सरकार अंधी, बहरी और गूंगी बनी हुई है.

"ग्रेट कम्युनिकेटर" कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी जनता के साथ संवाद स्थापित करने की क्षमता को असाधारण माना जाता है, इस विषय पर पूरी तरह से मौन साधे हुए हैं. लोगों के गले से यह बात नहीं उतर रही कि गुजरात के दंगापीड़ितों के लिए काम करने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड का कथित घोटाला इतना गंभीर है कि उसकी सीबीआई द्वारा सघन जांच कराई जा रही है, और व्यापमं घोटाला इतना सामान्य-सा घोटाला है जिसकी जांच राज्य की पुलिस कर रही है. मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस जांच की देखरेख के लिए एक विशेष दल का गठन किया है लेकिन उसकी हालत का पता इसी बात से चल जाता है कि उसके अफसर ही अपनी जान को खतरा बता रहे हैं.

व्यापमं घोटाले में राज्यपाल रामनरेश यादव का नाम भी उछला था. आज सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ याचिका विचारार्थ स्वीकार की है. कोशिश की जा रही है कि इस घोटाले की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई द्वारा हो. यह भी आश्चर्यजनक है कि अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वतः ही संज्ञान नहीं लिया जबकि वह पहले इससे भी बहुत कम गंभीर मामलों में सीधे-सीधे हस्तक्षेप कर चुका है. इस घोटाले से पता चलता है कि राजनीतिक नेताओं, नौकरशाहों और दलालों के बीच कितनी घिनौनी सांठ-गांठ है और समाज में किस हद तक नैतिक मूल्यों का क्षरण हो चुका है. संक्षेप में घोटाला यह है कि नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं में असली परीक्षार्थी की जगह किसी और व्यक्ति को बिठा कर परीक्षा दिलाई जाती थी. फिर नौकरी मिलने तक की प्रक्रिया में हर स्तर पर घूस दी जाती थी. इस समय इस मामले से जुड़े लगभग दो हजार लोग जेल में हैं. इसीलिए जेल के भीतर और बाहर इससे संबंधित लोगों की मौतें हो रही हैं. लोगों को शक है कि एक सुनियोजित साजिश के तहत सुनिश्चित किया जा रहा है कि इस घोटाले के रहस्य पर से पर्दा न उठे.

कुछ वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में भी दवाओं की खरीद के ऐसे ही एक घोटाले में एक-के-बाद-एक मौतें हुई थीं. उस समय भाजपा ने बहुत शोरशराबा किया था. लेकिन अब उसके प्रवक्ता बगले झांकते दीख रहे हैं. इस घोटाले के कारण पार्टी के समर्थक भी झेंप रहे हैं क्योंकि उन्हें लोगों को यह समझाने में मुश्किल हो रही है कि इतने बड़े घोटाले की सीबीआई जांच क्यों नहीं कराई जा रही. बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. कहीं मध्यप्रदेश के घोटाले की कीमत भाजपा को बिहार में न चुकानी पड़ जाए.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार