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सिरदर्द का इलाज

१२ अप्रैल २०१३

करीब 30 साल पहले शुरू हुआ बस रैपिड ट्रांजिट यानी बीआरटी. 2008 में यह सिस्टम दिल्ली पहुंचा, जहां गलत मैनजमेंट की वजह से इसकी आलोचना हुई. लेकिन कोलंबिया जैसे देशों का उदाहरण देखें तो पता चलता है कि यह एक अच्छा समाधान है.

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तस्वीर: CDURP

ट्रैफिक जाम का जिक्र आते ही आंखों में निराशा और जेहन में पल पल चुभता इंतजार छाने लगता है. सार्वजनिक परिवहन की अच्छी व्यवस्था से इसे टाला जा सकता है. कोलंबिया की राजधानी बोगोटा में बसों के लिए बनाए गए खास गलियारे की मदद से यात्री बिना जाम के झंझट में फंसे आगे बढ़ते हैं. बगोटा के आस पास रहने वाले अधिकतर लोग बीआरटी कॉरिडोर में बसों में सफर करना पसंद करते हैं. बीआरटी योजना के तहत यहां ट्रांसमिलेनियो कंपनी की 1,400 बसें चलती हैं. बसों की औसत रफ्तार 70 से 80 किलोमीटर प्रतिघंटा रहती है. खास गलियारे की वजह से वे कभी जाम में भी नहीं फंसती.

बगोटा बना आदर्श

इसका मकसद सड़कों से भीड़ कम के साथ पर्यावरण की रक्षा भी है. बीआरटी कॉरिडोर पर बस चलाने वाले खोर्खे गचार्ना कहते हैं, "हम यूरो टू और यूरो थ्री स्टैंडर्ड का खास डीजल इस्तेमाल करते हैं. ऐसा करने से पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचता है. ट्रांसमिलेनियो की वजह से सड़कों पर गाड़ियां कम हुई हैं और प्रदूषण भी घटा है."

बगोटा में हर दिन पंद्रह लाख लोग इन बसों का इस्तेमाल कर रहे हैं. नेटवर्क 100 किलोमीटर से ज्यादा के दायरे में फैला है. भीड़ और ट्रैफिक की समस्या से जूझ रहे शहरों के लिए बगोटा आदर्श मॉडल बन चुका है. दुनिया भर के करीब 100 शहर इस मॉडल को अपने यहां शुरू करना चाहते हैं. इसके लिए ढांचा बनाना मेट्रो ट्रेन सिस्टम खड़ा करने के मुकाबले सस्ता है.

Guangzhou Bus System Titelbild
बस रैपिड ट्रांजिट यानी बीआरटी ट्रैफिक का समाधान हो सकता है.तस्वीर: CC/Karl Fjellstorm, itdp-china

परिवहन पर ध्यान देते हुए मंथन में इस बार जर्मनी में तैयार हो रही भविष्य की ट्रेनों पर चर्चा हो रही है. ऐसी डबल डेकर ट्रेने बनाने की तैयारी हो रही है जिनमें एक साथ 1,600 लोग यात्रा कर सकेंगे. 400 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार वाली यह गाड़ियां बहुत कम शोर करेंगी. इसमें बोगियों को खींचने के लिए इंजन की जरूरत नहीं पड़ेगी. हर बोगी अपने आप में इंजन होगी. पहिये मुड़ भी सकेंगे. रिसर्चर चाहते हैं कि ये ट्रेने खुद की बोगियां तोड़े या जोड़े, ताकि समय बचे और ट्रेनों को कम रोकना पड़े. लेकिन दिक्कत यह है कि एक साथ इतने यात्रियों को आसानी से एक ही प्लेटफॉर्म पर चढ़ाना या उतरना कैसे संभव होगा. रिसर्चर ऐसी ही चुनौतियों को हल करने में जुटे हैं.

मसालों की दुनिया

Milchreisbällchen mit Zimt und Apfelmus
पश्चिमी देशों में दालचीनी का इस्तेमाल मीठे व्यंजनों में किया जाता है.तस्वीर: Fotolia/J. Sommer

रसोई में मसालों की अमह भूमिका है. खास तौर से भारतीय रसोई तो गरम मसाले के बिना अधूरी है. गरम मसाले का एक जरूरी हिस्सा है दालचीनी. एशिया में जहां इसे नमकीन पकवानों में इस्तेमाल किया जाता है,  तो वहीं पश्चिमी देशों में यह मीठे व्यंजनों में पड़ती है. दुनिया में दालचीनी का 90 फीसदी उत्पादन श्रीलंका में होता है. आज भी देश में सदियों पुराने तरीके से इसे तैयार किया जाता है. असल में दालचीनी पेड़ की छाल से निकलती है. मसाले के लिए उन्हीं पेड़ों को छांटा जाता है जो रसदार हों. पारंपरिक तरीके से कैसे तैयार होती है जायकेदार दालचीनी, मंथन में इस बार यह भी पता चलेगा.

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जर्मनी में वनीला की एक फली करीब 200 रुपये की मिलती है.तस्वीर: Fotolia/Inga Nielsen

साथ ही बात होगी खुशबूदार वनीला की. वनीला का नाम सुनते ही एक मीठा जायका याद आता है. जर्मनी में वनीला की एक फली करीब 200 रुपये की मिलती है. आइसक्रीम, केक, चॉकलेट और न जाने कितनी चीजों में यह वनीला अपना अनोखा स्वाद घोलता है. यह इतना तेज होता है कि बस एक चुटकी ही काफी है. लेकिन वनीला की ये फलियां बहुत मेहनत के बाद बाजार तक पहुंचती है. असल में वनीला एक बेल वाला पौधा है, जिसके फूलों में हाथ से परागण कराया जाता है. परागण सफल रहा तो फली लगेगी. और यही फली बाद में स्वादिष्ट वनीला कहलाती है. मैडागास्कर के खूबसूरत बागानों में कैसे होती है इनकी खेती यह जानने के लिए देखिए मंथन शनिवार सुबह 10.30 बजे डीडी-1 पर.

इन सब दिलचस्प जानकारियों के साथ साथ चलेंगे जर्मनी के एक ऐसे कारखाने में जहां आज भी हाथ से बुनाई की मशीनें चलाई जाती हैं. कई महीनों तक हाथ से एक एक पत्थर का टुकड़ा चुन कैसे उकेरी जाती है मोजेइक कला, मंथन में इस पर सुबह साढ़े दस बजे.

रिपोर्ट: ईशा भाटिया

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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