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इतिहास का हिस्सा बना सिंगुर आंदोलन

प्रभाकर मणि तिवारी
२१ फ़रवरी २०१७

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जीते-जी ही इतिहास बन गई हैं. राज्य के हुगली जिले में एक दशक पहले हुआ सिंगुर आंदोलन अब पश्चिम बंगाल में सरकारी स्कूलों में इतिहास की पुस्तक का हिस्सा बन गया है. विपक्ष नाराज है.

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तस्वीर: P. Tewari

पश्चिम बंगाल में आठवीं कक्षा के छात्र अब स्कूलों में सिंगुर आंदोलन के पाठ पढ़ेंगे. राज्य सरकार के निर्देश पर पाठ्यक्रम तय करने वाली एक एक्सपर्ट कमिटी ने सिंगुर को पाठ्यक्रम में शामिल किया है. विपक्षी राजनीतिक दलों ने सत्तारुढ़ पार्टी के इस महिमामंडन के लिए उसकी खिंचाई की है.

सरकारी निर्देश

दरअसल, राज्य सरकार के निर्देश पर आठवीं कक्षा की इतिहास की संशोधित पुस्तक में सिंगुर आंदोलन और ममता की भूमिका को शामिल किया गया है. इसका औचित्य ठहराने के लिए वेस्ट बंगाल बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेशन ने "अतीत व विरासत" शीर्षक वाले नए अध्याय में सिंगुर के अलावा तेलंगाना, तेभागा और नर्मदा बचाओ समेत कई मशहूर आंदोलनों को शामिल किया है. लेकिन तेलंगाना आंदोलन को दो पेज में और बाकी तमाम आंदोलनों को जहां पांच-पांच लाइनों में निपटा दिया गया है वहीं सिंगुर आंदोलन पर पूरे सात पेज हैं. इस आंदोलन से संबधित अध्याय के आखिर में सिलसिलेवार तरीके से तारीख के साथ बताया गया है कि किस तरह ममता और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के दूसरे नेताओं ने वर्ष 2006 में यह आंदोलन शुरू किया था और बीते साल सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने इस आंदोलन को जायज ठहराया है.

शिक्षाविदों ने किसी सत्तारुढ़ पार्टी को इतिहास की पुस्तकों में इतनी प्रमुखता देने पर चिंता जताई है. पाठ्यक्रम तय करने वाली एक्सपर्ट कमिटी के अध्यक्ष अवीक मजुमदार स्वीकार करते हैं कि राज्य सरकार की ओर से भेजे एक प्रस्ताव के बाद ही सिंगुर आंदोलन को इतिहास की पुस्तक में शामिल करने का फैसला किया गया. लेकिन उनकी दलील है कि यह आंदोलन इतिहास की पुस्तकों में जगह पाने का हकदार है. वह कहते हैं, "राज्य सरकार ने इस आशय का एक प्रस्ताव जरूर भेजा था. लेकिन यह बीती एक सदी के दौरान देश के सबसे बड़े व अहम किसान आंदोलनों में शुमार है. इस नाते इतिहास में इसकी जगह तो बनती ही है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी इस आंदोलन की अहमियत बढ़ गई है."

दावे पर सवाल

लेकिन आखिर इस अध्याय में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को इतनी प्रमुखता क्यों दी गई है ? इस सवाल पर मजुमदार कहते हैं, "अगर उनलोगों ने आंदोलन का नेतृत्व किया है तो उनकी अनदेखी कैसे की जा सकती है ?" इस अध्याय में विस्तार से यह बताया गया है कि ममता ने इस आंदोलन का कैसे नेतृत्व किया. इसमें पार्थ चटर्जी, शोभन चटर्जी, फिरहाद हकीम और मुकुल राय समेत आंदोलन का समर्थन करने वाले कम से कम 20 बुद्धिजीवियों का भी जिक्र किया गया है. हालांकि इसमें तृणमूल कांग्रेस का नाम नहीं लिया गया है. इसमें सिंगुर के कुछ स्थानीय नेताओं के भी नाम हैं जो बाद में ममता के सत्ता में आने पर मंत्री बने थे.

इस पुस्तक में कहा गया है कि ममता बनर्जी ने ही खेतों में धान के पौधे लगा कर सिंगुर आंदोलन की शुरूआत की थी. लेकिन आंदोलन में शामिल कम से कम दो स्थानीय नेताओं ने इस दावे पर सवाल खड़ा कर दिया है. सिंगुर आंदोलन में शामिल भाकपा-माले (लिबरेशन) के नेता सजल अधिकारी कहते हैं, "आंदोलन के लिए कृषि जमीन रक्षा समिति का गठन चार जून को हुआ था जबकि ममता ने 18 जुलाई को धान के पौधे लगाए थे." वामपंथी दल एसयूसीआई के नेता संतोष भट्टाचार्य कहते हैं, "सिंगुर आंदोलन की शुरूआत स्थानीय किसान व मानवाधिकार संगठनों ने की थी. लेकिन पुस्तक में उनकी भूमिका पर कुछ नहीं कहा गया है."

Nepal Atemschutzmasken in Kathmandu
तस्वीर: Imago/Xinhua

विपक्ष ने की आलोचना

इतिहास की पुस्तक में जल्दबाजी में इस अध्याय को शामिल करने की वजह से अबकी पुस्तकों की छपाई में काफी देरी हुई है. बांग्ला में छपी पुस्तक का वितरण तो सोमवार से शुरू हुआ. लेकिन इसका अंग्रेजी संस्करण अब तक नहीं छप सका है. विपक्षी राजनीतिक दलों ने सरकार पर अपनी पीठ थपथपाने का आरोप लगाते हुए उसकी आलोचना की है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सांसद अधीर चौधरी कहते हैं, "यह शिक्षा के तृणमूलीकरण की मिसाल है. ममता सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सेहरा जबरन अपने सिर पर बांध रही हैं." सीपीएम के प्रदेश सचिव सूर्यकांत मिश्र ने सरकार के इस कदम का विरोध करने का एलान किया है.

बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, "तृणमूल कांग्रेस नेता इतिहास में जबरन अपने नाम घुसाने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस प्रक्रिया में वह लोग भी शीघ्र इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे." उन्होंने कहा कि आंदोलन में जिन नेताओं के नाम का जिक्र है उनमें से कुछ लोग जल्दी ही घोटालों के सिलसिले में जेल जा सकते हैं. वैसी हालत में शिक्षक छात्रों को क्या बताएंगे? पुस्तक में जिन बुद्धिजीवियों का जिक्र है उनमें मानवाधिकार कार्यकर्ता सुजातो भद्र भी शामिल हैं. महानगर के एक कालेज में इतिहास पढ़ाने वाले सुजातो कहते है, "यह इतिहास लिखने का सही तरीका नहीं है. यह महज सत्तारुढ़ पार्टी का महिमामंडन है. इसका मकसद तृणमूल कांग्रेस नेताओं की छवि चमकाना है."