सास को समझने वाली किताब
२१ जुलाई २०१४अब एक किताब इस महिला यानि सास को समझने की कोशिश कर रही है.
यूं तो पूरी दुनिया में सास पर खूब मजाक किया जाता है. लेकिन भारत में वे खास तौर पर "डरावनी" बना दी गई हैं, जहां बहुओं के साथ उनके रिश्ते कभी अच्छे नहीं होते. एक नई किताब का दावा है कि सास और बहुओं के बीच रिश्ते हाल के दिनों में जितने खराब हुए, उतने पहले कभी नहीं थे. इसका दावा है कि तेज आधुनिकीकरण पारिवारिक परंपराओं से टकरा गया है.
द मदर इन लॉः दी अदर वूमन इन योर मैरेज (सासः आपकी शादी में दूसरी औरत) नाम की किताब लिखने वाली वीणा वेणुगोपाल का कहना है, "यह ऐसी चीज है, जो साल 2000 के आस पास शुरू हुई और लगातार बढ़ रही है. सास और बहू के बीच रिश्तों के लिहाज से यह सबसे खराब पीढ़ी है."
सौ दिन सास के
खास तौर पर ग्रामीण भारत में महिलाएं शादी करके अपने पति के घर चली जाती हैं और पूरा परिवार एक ही घर में रहता है. वहां आम तौर पर बहुओं को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है और उनसे सिर्फ घर का काम कराया जाता है. हालांकि दो दशक पहले आर्थिक उदारीकरण की वजह से महिलाएं घरों और गांवों से निकलीं और अब बहुत सी औरतें शहरों में भी काम कर रही हैं.
पश्चिमी देशों की तरह मध्यम वर्ग की ये भारतीय महिलाएं भी देर से शादी कर रही हैं और उनके कम बच्चे पैदा हो रहे हैं. वेणुगोपाल का कहना है कि आम तौर पर सासें पिछली पीढ़ी पर ही टिकी हुई हैं और उन्हें ये बदलाव बर्दाश्त नहीं हो पाता, "बहुएं ज्यादा पढ़ी लिखी हैं और उनके पास कई विकल्प हैं. वे अपने लिए ज्यादा फैसले करना चाहती हैं, फिर भी वे इस तरह की शादियों में फंसी हैं."
पेशे से पत्रकार वेणुगोपाल की इस किताब में 11 घटनाओं का जिक्र है. भारत के अलग अलग हिस्सों की इन घटनाओं में पत्नी और पति के परिवार वालों के रिश्ते बताए गए हैं. ऐसी ही एक घटना एक महिला टीवी पत्रकार की है, जिसे हर महीने अपनी तनख्वाह अपनी सास की हथेली पर रख देनी पड़ती है. यह सास उसके बच्चों का पालन पोषण भी अपने तरीके से करना चाहती है.
उस पत्रकार को कभी भी सोफे, बिस्तर या कुर्सी पर बैठने की इजाजत नहीं, उसे सिर्फ जमीन पर ही बैठना है. काम सिर्फ खाना पकाना और पति के घर की साफ सफाई. वेणुगोपाल कहती हैं, "आप अपने पेशेवर जीवन में इस तरह के लोगों से टकरा जाते हैं और आपको विश्वास ही नहीं होता कि वे इतना मुश्किल जीवन जी रहे हैं."
सास भी कभी बहू थी
वेणुगोपाल इस भेदभाव पर राष्ट्रीय बहस चाहती हैं. भारतीय रूढ़ीवादी समाज में पुरुषों को महिलाओं से बेहतर माना जाता है और लड़कों को हमेशा लड़कियों पर तरजीह दी जाती है. समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन का कहना है, "आम तौर पर बेटियां घर का हिस्सा नहीं होतीं क्योंकि उन्हें तो एक दिन घर छोड़ना होता है. हम अजीब किस्म के पितृसत्तात्मक समाज में हैं." विश्वनाथन दर्जनों टीवी धारावाहिकों की बात करते हैं, जो सास बहू रिश्तों पर बन रहे हैं और खूब हिट हो रहे हैं. वे बताते हैं कि ये सीरियल महिलाओं में लोकप्रिय हैं क्योंकि उन्हें महिलाओं के साथ सहानुभूति है.
विश्वनाथन का कहना है कि यह अजीब रिश्ता पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है और आम तौर पर सास बहू को अपने बेटे की पत्नी की बजाए कब्जा कर लेने वाली वस्तु समझ बैठती हैं, "आज की सास कल खुद एक बहू थी. उसने आज के मौके का फायदा उठाने के लिए 20 साल का इंतजार किया है."
सताई गई सास
लेकिन भारतीय सासें इन बातों को यूं ही मानने को तैयार नहीं. नीना धूलिया बैंगलोर और कई दूसरे शहरों में प्रताड़ित की गई सासों के लिए एक संस्था चलाती हैं. उनका कहना है कि दहेज कानून जैसे मामलों का बहुएं गलत इस्तेमाल कर रही हैं, "आज कल की महिलाएं ज्यादा पढ़ी लिखी हैं. उन्हें पता है कि इन कानूनों को कैसे तोड़ना मरोड़ना है."
धूलिया की संस्था में हर हफ्ते 15-20 सताई हुई सासों का फोन आता है. उनका कहना है, "हमने 30-35 साल तक अपने बच्चों को पाला है. क्या हम डायन चुड़ैल लगती हैं."
एजेए/एएम (एएफपी)