1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

सरकार है कि मानती नहीं...

३० अप्रैल २०१३

अमरुद के लिए मशहूर इलाहाबाद की पहचान अब माफिया डॉन अतीक अहमद बन गए है, प्रतापगढ़ राजा भैया के नाम से जाना जाने लगा है, लखनऊ बाहुबलियों का गढ़ बन गया है और इसी तरह दिलवालों की दिल्ली अब बलात्कारियों की दिल्ली कही जा रही है.

https://p.dw.com/p/18PfP
तस्वीर: DW

खासकर 16 दिसम्बर के बाद तो लगता है मानो इस शहर में बलात्कार के हैरतंगेज कारनामों को अंजाम देने की होड़ लग गयी हो. अपने सपनों की उड़ान को ऊंचाई देने में लगी युवतिओं को निशाना बनाने के बीच ही अचानक मासूम बच्चियों के साथ दरिंदगी की हद तक जाने के मामले, आये दिन सामने आ रहे है. इसके साथ ही सवाल अब सरकार की नीयत पर खड़े होने लगे है.

दिल्ली के साथ सबसे बड़ी विडंबना इस शहर की शासन प्रणाली है. कहने को तो दिल्ली में अन्य राज्यों की तरह ही एक चुनी हुई सरकार है लेकिन इसके पास सीमित अधिकार हैं. इनमें से एक है कानून व्यवस्था का अधिकार जो दिल्ली सरकार के पास नहीं है और महिलाओं की संकट में पड़ती अस्मत के मामलों पर दिल्ली सरकार गेंद को केंद्र सरकार के पाले में डालकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है. कानून की रखवाली और अपराधियों पर नकेल कसने के लिए जिम्मेदार दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और पहले से ही तमाम बड़ी समस्याओं से जूझ रही केंद्र सरकार के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि दिल्ली पुलिस पर पैनी नजर रखे.

Indien Proteste in Delhi
तस्वीर: DW

अब तक तो समय जैसे तैसे बीत रहा था, लेकिन लगता है की अपराधियों को भी सरकार और पुलिस के बीच इस कमजोर कड़ी का एहसास हो गया है और वे सब बेखौफ होकर अपनी हसरतें अपने अपने तरीके से पूरी करने लग गए है. सही मायने में हालात 16 दिसम्बर के बाद हालात बेकाबू होने पर दिल्ली पुलिस के मुखिया को हटाने की मांग मुखर होने लगी. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी इस शानदार शहर की पहचान को मिट्टी में मिलाने वाले शर्मनाक हादसों का हवाला देकर दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार को हटाने और दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अधीन देने की पुरजोर मांग लगातार कर रही है.

चार महीने पहले केंद्र सरकार नीरज कुमार को हटाने की तमाम मांगों को दबाने में कामयाब रही लेकिन बीते 18 अप्रैल को 5 साल की एक मासूम बच्ची के साथ हैवानियत का जो कहर बरपा, उसके बाद तो लगा कि नीरज कुमार को अब सरकार को हटाने की जरुरत नहीं पड़ेगी बल्कि यह शर्मनाक वारदात उनकी आत्मा को इस पद से खुद को हटा लेने के लिए मजबूर कर देगी. लेकिन इंसानियत में किंचित मात्र भरोसा रखने वालों को भी एक बार फिर निराश होना पड़ा. अलबत्ता उन्होंने रिपोर्टर की गलती के लिए संपादक का इस्तीफा नहीं होने की जो दलील दी उसने साबित कर दिया कि अपराधी और दिल्ली पुलिस दोनों ही बेकाबू हैं.

Indien Proteste in Delhi
तस्वीर: DW

अब इस बहस में अदालत भी शामिल हो गयी है. अदालत में बलात्कार के मामलों की सुनवाई में दिल्ली पुलिस अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए दो दलीलें देती है. या तो पीड़ित महिला को चरित्रहीन साबित किया जाता है या बलात्कारी को पीड़ित का जानकार बता कर पुलिस पल्ला झाड़ लेती है. पुलिस के आंकड़ों की मानें तो 90 फीसदी मामलों में आरोपी पीड़ित महिला के जानकार होते है. लेकिन पिछले एक सप्ताह में 3-6 साल तक की बच्चियों के बलात्कार के मामलों में पीड़ित को चरित्रहीन साबित करने का पुलिस का सबसे कारगर हथियार फेल हो गया. अदालत में जज ने दिल्ली पुलिस से पूछा कि क्या अब भी पुलिस आयुक्त अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहेंगे.

सवाल दिल्ली पुलिस को कोसने का नहीं है. यह भी सही है कि अकेले नीरज कुमार के हटा देने से समस्या खत्म नहीं हो जाएगी. सवाल सरकार की नियत पर भी  है. आखिर सरकार का काम पुलिस और अन्य महकमों की निगरानी करना है. सरकार की यह रवायत बन चुकी है कि पुलिस या अन्य विभागों के अधिकारियों की लापरवाही साबित होते देख उन्हें निलंबित कर दिया जाता है. सरकार जानती है कि रोजमर्रा की जिंदगी की जद्दोजहद में जूझते लोग जल्द ही ऐसी बातों को भूल जाते हैं और मामला ठंडा होने पर सरकार निलंबित अधिकारियों को बहाल कर देती है. इसकी ताजा मिसाल 16 दिसम्बर के मामले में देखने को मिली. इस मामले में गठित वर्मा आयोग सहित 4 जांच समितियों ने दिल्ली पुलिस के 4 आइपीएस अधिकारीयों को लापरवाही बरतने का जिम्मेदार पाया था. वारदात के बाद ट्रैफिक पुलिस के दो अधिकारियों को निलंबित किया गया जबकि दो के खिलाफ विभागीय जांच की बात कही गयी. गृह मंत्रालय ने दोनों निलंबित अधिकारियों को महज 15 दिन में बहाल कर दिया जबकि दो अन्य अधिकारियों को 15 अप्रैल को पदोन्नत कर डीआईजी रैंक से नवाजा गया.

सवाल यह है कि क्या कानून इस बारे में मौन है? नहीं, ऐसा नहीं है. दिल्ली हाईकोर्ट पूर्व न्यायाधीश एस एन धींगरा का कहना है कि बेलगाम होते अधिकारी, सरकार की हेकड़ी का नतीजा है. सरकार इन पर कार्रवाई कर विपक्ष को जनता की नज़र में बढ़त लेने का कोई मौका नहीं देना चाहती है. जबकि कानून के मुताबिक ऐसे अधिकारियों के खिलाफ आईपीसी के तहत आपराधिक मुकदमा चलाने का प्रावधान है. जस्टिस धींगरा कहते हैं कि सरकार सिर्फ अदालत के आदेश पर ही लापरवाह अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलती है और ऐसे मामले महज 2 फीसदी तक ही होते है. असल में अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर करने पर बाजी सरकार के हाथ से निकल कर कोर्ट के पाले में आ जाती है. सरकार यह बिलकुल नहीं चाहेगी कि अदालती जाँच में फसते अधिकारी कोर्ट में सरकार की पोल खोल दे.

आरटीआई और सूचना क्रांति के इस दौर में सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. कम से कम सुनहरे भविष्य की आस में पलते बचपन को रौंदने की खुली छूट तो नहीं दी जानी चाहिए. खासकर तब जबकि हुक्मरानों की हेकड़ी शहरों की सदियों पुरानी पहचान को धूमिल कर दे, तब तो कहना ही पड़ेगा, सरकार है कि मानती नहीं....

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः निखिल रंजन