सरकारी तंत्र को मोतियाबिंद
५ दिसम्बर २०१४अब इस मामले की जांच होगी, डॉक्टरों के खिलाफ मुकदमे चलेंगे, उनकी डॉक्टरी डिग्रियों की पड़ताल होगी. भारत के किसी दूसरे गांव में तब तक कोई नया मेडिकल कैंप लग चुका होगा और कोई ताज्जुब नहीं कि तब तक इसी तरह का दूसरा मामला नई जांच का इंतजार करने लगे. भारत की ज्यादातर आबादी अपने दम पर मामूली इलाज तक कराने की हैसियत नहीं रखती और इस तरह के समाजसेवी कैंपों में उसका बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना कोई आश्चर्य नहीं.
ऐसे कैंपों में शामिल डॉक्टरों को कोसने और गैर सरकारी संगठनों को मानवता की दुहाई देने से पहले एक बार अंदर की तरफ देखना बेहतर होगा. इसे देखने के लिए भारत के किसी भी कस्बे के किसी भी सरकारी अस्पताल में जाना भर काफी है. गांवों में मत जाइएगा क्योंकि वहां अस्पताल नाम की चीज नहीं मिलेगी. आम तौर पर गंदगी और सड़ांध का आलम ऐसा होता है कि भला चंगा शख्स बीमार पड़ जाए. कमरों में या तो बिस्तर नहीं होंगे या फिर गंदी चादर वाले एक एक बिस्तर पर दो दो, तीन तीन मरीज होंगे. फर्शों पर भी चादरें बिछाए बीमार बारी का इंतजार करते नजर आएंगे. किसी कोने में महंगी विदेशी मशीनें भी दिख जाएंगी, जो या तो जंग खा रही होंगी या फिर उसके पुर्जे गायब हो चुके होंगे.
अस्पताल की दवा दुकान भले बंद मिले या वहां दवाइयों की कमी हो, लेकिन उसके आस पास दर्जनों निजी दुकानें फैली होंगी, जहां हर दवा मिलेगी. हां, मरीज को इसके लिए जेब ढीली करनी होगी, जबकि सरकारी अस्तपाल में उसे वही दवा मुफ्त मिल गई होती.
भारतीय डॉक्टरों में कोई खोट नहीं. वे तो आला दर्जे के पेशेवर हैं. दुनिया भर के मरीज इलाज के लिए कभी बैंगलोर तो कभी दिल्ली के अस्पतालों में पहुंचते हैं. उन्हें पक्के इलाज की गारंटी मिली होती है. दिल्ली में ही अपोलो जैसा अस्पताल भी दिखता है, जिसकी तस्वीर कस्बे वाले उस अस्पताल से बिलकुल अलग अमेरिका या यूरोप के सुविधासंपन्न अस्पताल की तरह होती है. इतना ही नहीं, विदेशों में भी भारतीय डॉक्टरों की धाक है. ब्रिटेन का तो पूरा मेडिकल सिस्टम ही भारतीय मूल के डॉक्टरों से चल रहा है. फिर भारत में ही ऐसा हाल क्यों?
भारत का औसत नागरिक हर रोज दो डॉलर भी नहीं कमा पाता और उसे पहली फिक्र पेट भरने की होती है, इलाज की नहीं. इलाज का तो नंबर तब आता है, जब पेट भर जाए. जर्मनी की तरह भारत में नागरिकों के लिए मेडिकल बीमा जरूरी नहीं है. जबकि जर्मनी जैसे देशों में लोगों को अपना मेडिकल बीमा खुद कराना होता है और अगर उनके पास सामर्थ्य न हो, तो सरकार कराती है. हर हाल में इलाज मुफ्त होता है. कहने को भारत में भी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज है, बशर्ते डॉक्टर हों, बशर्ते दवाइयां मिलें, बशर्ते एक्सरे की मशीनें काम कर रही हों.
दूसरी तरफ निजी अस्पतालों के पास सभी सुविधाएं हैं, वे काम भी करती हैं - बड़ी कीमत देने पर. इस भारी विषमता को दूर करने के लिए भारत में पश्चिमी देशों जैसा कोई कदम नहीं उठाया गया है. उल्टे कई बार इन निजी मेडिकल संस्थानों को सरकारी अनुदान दिया जाता है और सरकारी अस्पतालों में हो रहे भ्रष्टाचार को लेकर आंखें बंद रखी जाती हैं. सरकार लोगों के टैक्स से जमा खजाने से सरकारी अस्पतालों का गठन करती है, उनके डॉक्टरों को तनख्वाह देती है, वहां महंगी मशीनें लगाती है. लेकिन ये पूरा तंत्र दशकों से भ्रष्टचार की वजह से खोखला है.
सुविधाओं की कमी से जूझ रही जनता हार कर फिर ऐसे मुफ्त कैंपों में जाती है, जिन्हें कई बार सरकारी मंजूरी भी नहीं मिली होती. वहां एक बार फिर कोई डॉक्टर तीन घंटे में 80 से ज्यादा महिलाओं की नसबंदी कर देगा, जिनमें कइयों की मौत हो जाएगी, कहीं साइकिल के पंप से ब्लैडर को पंप किया जाएगा या आंखों के किसी मुफ्त कैंप में लोगों के सपने खो जाएंगे. मरीज की आंखों से झिल्ली हटाने के पहले प्रशासन को खुद से इस कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार की झिल्ली हटानी होगी.
ब्लॉगः अनवर जे अशरफ