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समान आचार संहिता या हिंदुत्व-प्रधान व्यवस्था?

ऋतिका राय१३ अक्टूबर २०१५

भारतीय संविधान में कहा गया है: "राज्य को समूचे भारत में सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता लाने का प्रयास करना चाहिए." दशकों बाद इसी प्रयास के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से 3 हफ्तों में जवाब मांगा है.

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तस्वीर: Reuters

मामला दिल्ली स्थित देश के सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस विक्रमजीत सेन के सामने पेश हुए एक ईसाई दंपत्ति के तलाक संबंधी पीआईएल का है. पर्सनल लॉ के अंतर्गत बने क्रिश्चियन तलाक कानून के मुताबिक किसी दंपत्ति को आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए कोर्ट में जाने से पहले कम से कम दो साल का समय अलग अलग रहते हुए बिताना जरूरी है. दिल्ली के एक व्यवसायी ने जनहित याचिका दायर कर इस दो साल की अनिवार्य अवधि की शर्त को खत्म करने की अपील की थी. अन्य धर्मों में यह अवधि एक साल की है.

भारत में शादी, तलाक, संपत्ति, संतान गोद लेने और देखभाल के लिए भत्ता देने के बारे में अलग अलग धर्मों के लिए काफी अलग पर्सनल लॉ हैं. हिन्दू पर्सनल लॉ में 1950 के दशक से ही कई सुधार होना जारी है जबकि ईसाई और मुस्लिम पर्सनल लॉ में ज्यादा बदलाव नहीं आए हैं.

भारत में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के समय से देश में धार्मिक मामलों पर काफी बहस हो रही है. 1947 से स्वतंत्र भारत में ज्यादातर केंद्र में कांग्रेस पार्टी का शासन ही रहा, जिसने हमेशा एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा को प्रमुखता दी. हिन्दू बहुमत वाले भारत की करीब 1.2 अरब आबादी में 14 फीसदी मुसलमान नागरिकों के अलावा और भी कई अल्पसंख्यक समुदाय हैं.

1925 में स्थापित हुए संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर आरोप लगते रहे हैं कि वह भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता हैं. उसके बीजेपी तथा विश्व हिन्दू परिषद जैसे सहयोगियों पर अल्पसंख्यक मुस्लिमों और ईसाईयों का हिन्दू धर्म में जबरन धर्मान्तरण करवाने के आरोप लगते रहे हैं. हाल ही में जारी 2011 की जनगणना रिपोर्ट में मुसलमानों की आबादी में हुई तेज वृद्धि को देखते हुए कई कट्टरवादी हिन्दू नेता मुस्लिम आबादी को नियंत्रित करने के कई अजीबोगरीब उपाय सुझाया है. "लव जिहाद" और "घर वापसी" जैसे जुमले इसी अभियान की उपज हैं.

कई सामाजिक कार्यकर्ता भी सुप्रीम कोर्ट की इस मांग का जोरदार समर्थन कर रहे हैं. कुछ लोग मुस्लिम समाज में महिलाओं के लिए शादी और तलाक से जुड़े असमान अधिकारों को मुद्दा बना रहे हैं तो कुछ पूरे के पूरे शरिया कानून को ही बीते जमाने की बात बता रहे हैं.

कुछ विद्वानों का मानना है कि समान आचार संहिता को अगर हिन्दू प्रधान ना बनाकर धर्मनिरपेक्ष आधार दिया जाए, तो ही वह सभी धर्मों के मानने वालों के लिए स्वीकार्य होगा. जैसे भारत में अपराधों के लिए समान दंड संहिता के तहत आईपीसी और आईपीसीसी का प्रावधान है वैसे ही पर्सनल लॉ के नियम कानून भी सर्वमान्य बनाने की कोशिश हो. सबसे ऊपर भारत का धर्मनिरपेक्ष रूप विद्यमान रहे और देश में सभी नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता का भी सम्मान हो.