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समाज में बुजुर्गों की जगह मत छीनिए

शिवप्रसाद जोशी१२ जनवरी २०१६

बिजनौर की वारदात एक बहू के सास पर अत्याचार की दास्तान ही नहीं है, ये सामाजिक मूल्यों में भयावह गिरावट का प्रतीक है. शिवप्रसाद जोशी का कहना है कि निर्भया कांड से पहले भी देश हैवानियत की दास्तानें देखता और सुनता रहा है.

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तस्वीर: DW/Pia Chandavarkar

इसी देश में तंदूर कांड भी हुआ था. इसी देश में हर मिनट बलात्कार होते हैं, इसी देश में पत्नी की लाश को फ्रिज में टुकड़े टुकड़े कर डाल देने की घिनौनी वारदात हुई है, इसी देश में आज दिख रहा है कि कैसे एक ताकतवर स्त्री दूसरी लाचार स्त्री पर पाशविक अंदाज में हमलावर है, कि कैसे एक युवा, एक बुजुर्ग पर बेरहम है.

बिजनौर के दहलाने वाले वीडियो में एक महिला अपनी सत्तर वर्षीय सास की बेरहमी से पिटाई करती हुई दिखाई दे रही है. घटना से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और महिला एक्टिविस्टों में जबर्दस्त रोष है. देश में बुजुर्गों और निर्बलों असहायों की हिफाजत के लिए एक नया सख्त कानून बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है. सेक्शन 498ए में भी संशोधन की मांग उठी है जिसमें सिर्फ बहुओं की प्रताड़ना के खिलाफ सजा का प्रावधान है. देखरेख और गुजारा भत्ते को लेकर बुजुर्गो के लिए कानून तो हैं लेकिन ऐसे मामले जहां वे घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं, उन्हें लेकर कोई सख्त, स्पष्ट और विशिष्ट कानून देश में नहीं है. जैसे स्त्रियों पर यौन अत्याचार के कई मामले अनदेखे, अनसुलझे और अनरिपोर्टेड रह जाते हैं वैसे ही घर की चारदीवारियों के भीतर बुजुर्ग स्त्री या बुजुर्ग पुरुष के खिलाफ हिंसा भी रिपोर्ट नहीं हो पाती है. बुजुर्गों की असहायता इसमें एक बड़ा अवरोध बन जाता है, जानकारी का भी अभाव रहता है, लोकलाज भी एक बड़ी वजह बन जाती है.

मूल्यों में ह्रास

बुजुर्गों के शोषण और उनके खिलाफ हिंसा की वारदात अकेले भारत की समस्या नहीं है. दुनिया भर में ये एक गंभीर समस्या बनकर उभरी है. यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बारे में प्रस्ताव दिए हैं, सम्मेलन किए हैं.

लेकिन बिजनौर मामले में दाद देनी पड़ेगी महिला के पति की, कथित तौर पर जिसके लगाए सीसीटीवी कैमरे की वजह से उसकी पत्नी की हरकतें दुनिया के सामने आ पायीं. इस तरह की खबरें दुखी तो करती ही हैं वे जुगुप्सा भी पैदा करती है, एक चिढ़ सी होती है कि आखिर ये समाज कैसा बन गया है या इसे कैसा बना दिया गया है. मध्यमवर्गीय समाजों में एक ओर ऐशोआराम और उपभोग की भीषण मारामारी है तो दूसरी ओर दया, सहानुभूति, करुणा जैसे मूल्यों को पूरी तरह भुला दिया गया है. जैसे मनुष्यता की पहचान अब इन मूल्यों से नहीं, आपके वर्चस्व, आपकी ताकत, आपके पैसे और आपकी हिंसा से होने लगी है.

बिजनौर की वारदात एक सामाजिक विद्रूप की ओर भी इशारा है जहां रिश्तों नातों की पारस्पारिकता और स्नेह की जगह नफरत और दमन ने ले ली है. बूढे लोगों के लिए इन घरों मे जगह नहीं बची है. बूढे जिन्हें अपनी आंख का तारा कहते हैं, उनकी आंखों में वे ही बुजुर्ग कांटे की तरह खटकते हैं. संबंधों का ऐसा अवमूल्यन इधर हुआ है. हेल्पएज इंडिया नाम की संस्था ने कुछ वर्ष पहले अपने एक अध्ययन में पाया कि भारत में बुजुर्ग आबादी में से तीस प्रतिशत लोगों को अपने परिवार में अवहेलना और अपमान झेलना पड़ता है.

कानून पर अमल

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में इस समय कुल आबादी का आठ से नौ फीसदी बुजुर्ग लोग है. बुजुर्गो और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए कानून हैं, यात्रा, स्वास्थ्य, आवास, चिकित्सा आदि में भी कई तरह की सुविधाएं हैं लेकिन देश की बुजुर्ग आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारी स्कीमों, कल्याण योजनाओं और कार्यक्रमों से वंचित है. उन तक कोई सरकारी इमदाद नहीं पहुंचती, कानूनी मदद तो दूर की कौड़ी है. अब सवाल यही है कि क्या कानून बना भी दिया जाए तो क्या वो काफी है. क्योंकि कानून तो कहने को बहुत हैं. स्त्री अत्याचारों के खिलाफ कानूनों की कमी नहीं लेकिन अगर कानून का ही डर होता तो बलात्कार, और अन्य हिंसाएं रोजाना के स्तर पर न घट रही होतीं. तो इस पाशविकता का मुकाबला कैसे किया जा सकता है.

जाहिर है कानून पर अमल के मामले में हमारा सिस्टम सुस्त है. कानूनी कार्रवाइयां एक अंतहीन बोझ और बाजदफा यातना की तरह पीड़ितों पर ही उलटे वार करने लगती हैं. लोग फिर डरते हैं और सहम जाते हैं. वे कानून, अदालत और वकील के चक्करों में फंसना नहीं चाहते. जब तक कानून एक फांस की तरह निर्दोष और साधारण नागरिकों को डराता रहेगा तब तक वो उनकी भलाई के लिए कितना कारगर रह पाएगा, कहना कठिन है. तो कानून पर अमल के तरीकों में बदलाव होना चाहिए, सजा को अंजाम तक पहुंचना चाहिए, तत्परता दिखानी चाहिए और सामाजिक मूल्यों की तोता रटंत करने वाली, धार्मिक वितंडाओं में घिरी और कठमुल्लेपन के जंजाल में फंसी मध्यवर्गीय नैतिकता की नए सिरे से झाड़पोछ होनी चाहिए.