संथारा जैसे मुद्दों पर बहस हो
३१ अगस्त २०१५संसद का काम कानून बनाना है. भारतीय संसद के सामने जिम्मेदारियों का पहाड़ है. बहुत से कानून ऐसे हैं जो अंग्रेजों के समय से ही चले आ रहे हैं और उन्हें आजादी के छह दशक बाद भी यूं ही छोड़ दिया गया है. उसके अलावा संथारा का मामला एक बार फिर दिखाता है कि ऐसी प्रथाएं भी हैं जो भारत के संविधान और कानून के पैमाने पर खरी नहीं उतरतीं लेकिन अब तक उन पर न तो किसी का ध्यान गया है और अगर गया भी है तो किसी ने कुछ करने की नहीं सोची है.
संथारा पर राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला उचित ही लगता है. अगर आत्महत्या कानूनन अपराध है तो किसी को भूखे प्यासे रहकर मृत्यु का वरण करने की इजाजात कैसे दी जा सकती है. संसद की जिम्मेदारी है वह सब के लिए समान कानून बनाए और सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि कानून का सब के लिए समान रूप से पालन होता है. यह नहीं हो सकता है कि एक ही काम के लिए किसी को सजा मिले और दूसरे को नजरअंदाज कर दिया जाए.
किसी भी देश में संप्रदायों से परे एक नागरिक के रूप में पहचान तभी बन सकती है जब सब पर समान मूल्य लागू हों. संविधान और कानून यही मूल्य होते हैं. इसलिए इस तरह के मुद्दों पर व्यापक बहस की जरूरत है. ताकि सभी संप्रदाय के लोग अपनी राय रख सकें और जरूरत पड़ने पर सामुदायिक बहस से सामाजिक प्रथाओं में परिवर्तन भी किया जा सके. सामाजिक और धार्मिक प्रथाएं इंसान ने ही अपनी सुविधा के लिए बनाई हैं, उन्हें बदलने का भी इंसान को हक होना चाहिए. आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने की बहस पहले से ही चल रही है. सरकार ने इसके लिए आश्वासन भी दिया है. अब संसद को जल्द से जल्द कानून बनाना चाहिए ताकि इच्छा मृत्यु के मुद्दे पर समानता आ सके.
ब्लॉग: महेश झा